महाराष्ट्र और झारखंड में मतदान के पहले राहुल गांधी ने फिल्म नगरी मुंबई में पीएम मोदी के एक हैं तो सेफ हैं नारे का जवाब दिया. उनका जवाब राजनीति में वैचारिक बीमारी का गंभीर संकेत कर रहा है..!!
राहुल गांधी ने सेफ का मतलब तिजोरी समझा. मीडिया के सामने तिजोरी से पोस्टर निकाला. पोस्टर पर पीएम मोदी और उद्योगपति गौतम अडानी के चित्र के साथ, एक हैं तो सेफ हैं को समझाया गया. देश का नेता प्रतिपक्ष राष्ट्र के संदर्भ में एक हैं तो सेफ हैं का मतलब अगर तिजोरी से निकालता है, तो ऐसी सियासत को तिजोरी में बंद होने का समय आ गया है.
आकांक्षा-महत्वाकांक्षा, कुतर्क और कुविचार नफरत के पागलपन तक ले जाते हैं. चुनाव में जीत के लिए बुद्धिमानी का जनाज़ा निकालने के उदाहरण चुनाव प्रचार में दिखाई पड़ते हैं. ऐसा पहले भी होता रहा है और परिणामों के बाद चुनावी मूर्खताएं और कुतर्क चुटकुले बन जाते हैं.
कोई बालक बुद्धि और पप्पू ऐसे ही नहीं बन जाता. उसके लिए ऐसे जवाब देने पड़ते हैं. जिसमें आलू से सोना निकल सके. बबूल से गुलाब निकल सके. एक हैं तो सेफ हैं से तिजोरी का मतलब निकाला जा सके. लोकतंत्र को शर्मसार करने की यह प्रतियोगिता कहां जाकर रुकेगी, समझना मुश्किल है.
धारावी की झुग्गी झोपड़ी के प्रोजेक्ट को चुनावी धारावी बनाने की कोशिश की जा रही है. यह प्रोजेक्ट कोई मायावी नहीं है. बाकायदा सरकारी प्रक्रिया में टेंडर किए गए हैं. जिसे भी ठेका मिला है, वह कॉम्पिटेटिव विडिंग पर हुआ है. अगर इसमें कोई गड़बड़ी है, तो कानूनी ढंग से उसका समाधान हो सकता है. जो लोग धारावी का मुद्दा उठा रहे हैं, वह आदर्श हाउसिंग घोटाले के कर्णधार रहे हैं.
राहुल गांधी की उलटवासी राजनीति और बहकी-बहकी बातें स्पॉन्टेनियस होती हैं, या इनको बाकायदा प्रायोजित किया जाता है, उन्हें केवल स्क्रिप्ट दी जाती है, उसी के अनुसार अभिनय करना होता है. सुरक्षा के घेरे में ही राहुल गांधी पैदा हुए पले बढ़े और सुरक्षा के घेरे में ही उनकी राजनीतिक दुकान भी चल रही है. राहुल गांधी का राजनीतिक गुरु संभवत सुरक्षा घेरा ही है. सुरक्षा घेरे की अनुमति और सहयोग से जितने विचार उन तक पहुंच पाते हैं, वही उनकी राजनीति का आधार होता है.
पीएम मोदी विरोधी विचारधारा और जेएनयू पोषित कम्युनिस्ट अर्बन नक्सल विचारधारा की स्क्रिप्ट पर राहुल गांधी केवल अभिनय करते हुए दिखते हैं. उनके मुद्दों में ना तो मौलिकता होती है और ना ही विचारों में कोई अनुभव की झलक होती है.
चुनाव में हार या जीत को राजनीतिक परिपक्वता के रूप में नहीं देखा जा सकता. चुनाव में तो कई बार विदूषक राजनीति भी सफल हो जाती है. इसका मतलब यह नहीं हो सकता, कि इसे ही राजनीति का आधार बना लिया जाए.
राहुल गांधी संविधान की लाल किताब हर सभा में दिखाते हैं. हर चुनाव में दिखाते हैं. जिन राज्यों में वह चुनाव हार जाते हैं, वहां की जनता राहुल के कथित संविधान पर भरोसा नहीं करती. जहां जीत जाते हैं, वहां संविधान बचाने की जीत का दावा करते हैं.
राहुल गांधी का चित्त बोफोर्स की पीड़ा से भरा हुआ है. जो पीड़ा उन्होंने भोगी है, वैसी ही पीड़ा वह दूसरे को भी पहुंचाने की कोशिश करते हैं. मोदी- अडानी को टारगेट करके वह अपनी इस पीड़ा का इज़हार कर रहे हैं.
राहुल गांधी अगर उद्योगपतियों को अनुचित सहयोग के प्रमाणों के साथ मोदी सरकार के ख़िलाफ़ अदालत में जाने का साहस दिखा सकते, तो उनकी राजनीति को विश्वसनीयता मिल सकती थी.
अब तो ऐसा लगने लगा है, कि शायद उनकी समझ यह बन गई है, कि पब्लिक के बीच कुछ भी बोलते रहो कोई ना कोई तो, विश्वास कर ही लेगा. राजनीतिक विचारधारा पर देश विभाजित है, जो पक्ष भाजपा विचारधारा में भरोसा नहीं करता, बीजेपी के ख़िलाफ़ समर्थन देना उसकी मजबूरी है,
राहुल गांधी को जो भी समर्थन मिल रहा है, वह उनके सियासी कर्मों के कारण नहीं, बल्कि वैचारिक विभाजन के कारण ही मिल पा रहा है.
ग़लतफहमी सबसे बड़ा अनिष्ट होता है. वैचारिक विभाजन के कारण जो समर्थन मिल रहा है, उसको स्वयं का समर्थन मानने की ग़लतफहमी राहुल गांधी और उनके प्रशंसक पाले बैठे हैं. जातिगत जनगणना के जरिए जातिवाद को प्रोत्साहन, कई राज्यों में राहुल गांधी को पराजय दिला चुका है. फिर भी उनकी ज़िद और नादानी ऐसी हो गई है, कि हर चुनाव में जातिवाद को ही बेचने की कोशिश कर रहे हैं.
जातिवाद और तुष्टिकरण के अंधेरे में रहने के आदी देश और संविधान के सत्य को नहीं देख सकते. उनकी आंखें जितना देख सकती हैं, उसी को ही भारत समझ रहे हैं. अपने ही सियासी गठबंधन को इंडिया मानने की भूल कर रहे हैं.
कांग्रेस का राहुकाल चल रहा है. कुंडली में राहु दोष खतरनाक होता है. अगर यह सुरक्षा घेरे में चल रहा हो, तो और सावधान रहने की जरूरत है. महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव परिणाम राजनीति में वैचारिक बीमारी का इलाज करेंगे, ऐसी उम्मीद दिखाई पड़ रही है. कांग्रेस की नई आशा प्रियंका गांधी निश्चित रूप से संसद में पहुंचेंगी, लेकिन राहुल गांधी ने देश की राजनीति में जो नकारात्मकता और निराशा बढ़ाई है, उस पर नियंत्रण ज़रूरी है.
राजनीति की ज़मीनी हक़ीक़त में फ़िल्मी हीरो जैसा अभिनय हमेशा काम नहीं करता. स्क्रिप्ट तो स्क्रिप्ट होती है, जब तक अनुभव नहीं हो, तब तक स्क्रिप्ट पर भी जीवन में सही अभिनय नहीं हो पाता. राहुल गांधी को देश की वास्तविकताओं से रूबरू होना होगा. वैचारिक धरातल पर स्पष्टता लानी होगी. राष्ट्र के मुद्दों पर गंभीर होना होगा. हर बात को तिजोरी से जोड़ना बंद करना होगा.
सुरक्षा घेरे में अभिनय को जीवन से दूर करना होगा. दूसरों पर आरोप लगाने के पहले खुद के भीतर झांकना होगा. खुद की कमजोरी को स्वीकार करना होगा. स्क्रिप्ट पर बजती तालियों से मदमस्त होने की बजाय कांटों का भी अनुभव लेना होगा.
कभी विचारों से छल, कभी मुद्दों से छल, कभी संविधान से छल, कभी गठबंधन से छल करते-करते, कभी-कभी खुद से भी छल हो जाता है. छल से कुछ अगर पा भी लिया जाता है, तो वह भी छल ही साबित होगा. इसीलिए कहा गया है, छल का फल तो छल है. आज नहीं तो कल है!