संविधान के अपमान पर राज्यपाल तमिलनाडु विधानसभा में अभिभाषण बिना पढ़े वापस चले गए, राष्ट्रगान नहीं होने से ऐसा हुआ. यह दोनों आचरण संविधान की शपथ ग्रहणकर संविधान की शक्ति रखने वालों के हैं..!!
तमिलनाडु विधानसभा की यह घटना संविधान की शक्तियों का संविधान पर हमला कहा जाएगा. विवाद की शुरुआत तब हुई जब अभिभाषण के लिए सदन में पहुंचे राज्यपाल आर. एन. रवि ने राष्ट्रगान नहीं होने पर इसे संविधान का अपमान निरूपित किया और अभिभाषण देने की परंपरा निभाए बिना सदन छोड़कर चले गए.
यह सामान्य परंपरा है, कि विधानसभा में राज्यपाल का अभिभाषण शुरु होने के पहले और समाप्त होने के बाद राष्ट्रगान गाया जाता है. तमिलनाडु विधानसभा में इस संवैधानिक परंपरा का पालन नहीं किया गया. सदन में केवल तमिलनाडु का राज्य गीत गाया गया. यह घटना सियासत पर संविधान की बलि देने जैसा है.
ऐसा माना जाता है, कि तमिलनाडु के राजनीतिक हालात सनातन विरोधी हैं, राष्ट्रभाषा विरोधी हैं. राष्ट्रगान विरोधी होने का भी सबूत इस घटना ने दिया है. राज्यों में सियासत के लिए संविधान को अपमानित करने के कई उदाहरण हैं. दिल्ली चुनाव की घोषणा हो गई है. केंद्रीय कृषि मंत्री दिल्ली के मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर यह आग्रह कर रहे हैं, कि केंद्र सरकार की किसान हितैषी योजनाओं को दिल्ली राज्य में लागू किया जाए. इसका मतलब है, कि किसानों की केंद्रीय योजनाएं दिल्ली राज्य में लागू नहीं हैं.
बंगाल में आयुष्मान योजना लागू नहीं है. दिल्ली में भी यह योजना लागू नहीं की गई है. राज्यों में केंद्रीय योजनाओं का क्रियान्वयन सियासत के हिसाब से होना, संविधान का सम्मान तो नहीं कहा जाएगा. केंद्र और राज्य सरकारों के बीच वैचारिक मतभेद संभव है, लेकिन इसके कारण किसी भी नागरिक को योजनाओं के लाभ से कैसे वंचित किया जा सकता है.
सियासत में फंसा संविधान दलीय निष्ठा के अनुरूप मान और अपमान से ग्रसित है. संविधान की हालत इस प्रकार से हैं, जो किसी माँ की होती है. युद्ध कोई भी हो प्राण माँ के ही दुखी होते हैं. उसका भाई मरता है, उसका बेटा मरता है, उसका बाप मरता है, उसका पति मरता है, प्रेमी मरता है. मां का कोई ना कोई युद्ध में जाकर मरता है.
ऐसे ही किसी भी दल की सरकार अपनी दलीय जरूरत के हिसाब से भले काम करे, लेकिन इससे मरता संविधान है. संविधान के अपमान की जितनी ज्यादा बातें हो रही हैं, उतनी ही अपमान की घटनाएं भी बढ़ती जा रही हैं.
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के संसद में दिए वक्तव्य पर डॉ. अंबेडकर के अपमान का मुद्दा चल ही रहा है.कांग्रेस इसको छोड़ना नहीं चाहती है. अंबेडकर की जन्म भूमि के स्मारक पर कांग्रेस के सभी बड़े नेता इकट्ठे हो रहे हैं. तमिलनाडु की विधानसभा सदन में जो कुछ भी हुआ है, वह भी संविधान के अपमान की श्रेणी में ही आता है. कांग्रेस के गठबंधन सहयोगी की वहां सरकार है. सनातन के खिलाफ भी जब तमिलनाडु में अनर्गल बातें कही गई थीं, तब भी कांग्रेस ने अपने सहयोगी से किनारा नहीं किया. अब संविधान के अपमान के मामले में भी कांग्रेस मौन ही रहेगी.
पूरी सियासी प्रक्रिया यही इशारा कर रही है, कि संविधान का अपमान करने में कोई पीछे नहीं है. अपमान के मामले राजनीतिक ज़रूरत के हिसाब से ही उठाए जाएंगे.
पॉलीटिकल करप्शन संविधान का सबसे बड़ा अपमान है. इस पर कभी भी सियासी तूफान खड़ा नहीं होता. ऐसे मामलों में पूरी सियासत एक दूसरे की पीठ खुजलाने में व्यस्त रहती है. आम जनता को तो संविधान के नाम पर शासित किया जाता है. संसदीय व्यवस्था में जो शासन की भूमिका निभाते हैं, उनके द्वारा ही संविधान का सबसे बड़ा अपमान किया जाता है. संविधान सियासत का परम विधान होता है, लेकिन इसी विधान को ही तोड़-मरोड़ कर सियासत अपना पेट भरती है.
संविधान की आड़ में असंवैधानिक आचरण वोट बैंक मजबूत करता है. संविधान सम्मत काम सर्वस्पर्शी होगा. इसमें किसी खास को अपने पक्ष में बनाने का अस्त्र नहीं होगा. अब तक संविधान के साथ ऐसा ही होता रहा है, कि बातें संविधान की और सियासी आचरण वोट के विधान की.
संविधान के मान-अपमान के राजनीतिक मुद्दे के पीछे भी वोट बैंक पॉलिटिक्स छिपी हुई है. तमिलनाडु की घटना भी इसी पॉलिटिक्स का हिस्सा है. महू में कांग्रेस का जमावड़ा भी वोट बैंक पॉलिटिक्स का ही नमूना है. संविधान को बदलने का प्रावधान संविधान में ही निहित है. इन संवैधानिक प्रावधानों का उपयोग और दुरुपयोग अपनी जगह है, लेकिन संविधान के प्रावधानों का भी सियासी मिस इंटरप्रिटेशन बड़ी समस्या है.
जब बुनियाद ही इस पर टिकी हुई है, कि हमें वही बात करना है, जो हमारे समर्थक समूह को सूट करती हो. ऐसी हालत में संविधान तो विषय ही नहीं बचा. वह तो केवल उपयोग की वस्तु रह गई है. विषय है, वोटर को साधना. वोटर साधते-साधते संविधान को कमतर करने में भी कोई गुरेज नहीं है.
संविधान से शक्ति प्राप्त ताकतें ही जब संविधान पर हमला करेंगी, तो फिर उसको बचाने की बात भी सियासत ही रहेगी. राज्य सरकारों और राज्यपालों के बीच टकराव आम बात है. इन टकराव की स्थितियां कई बार तो दो गिरोहों के टकराव जैसी दिखती हैं. केंद्र और राज्य की सरकारों में दलों के हिसाब से राज्यपाल के साथ व्यवहार किया जाता है. सारे राज्यपाल संविधान सम्मत आचरण ही करते हैं, यह भी नहीं कहा जा सकता.
कई बार सर्वोच्च अदालत में ऐसे मामले आए हैं, जहां राज्यपाल द्वारा अपने अधिकार का सदुपयोग नहीं करना पाया गया है. विधानसभाओं द्वारा पारित कानून पर राज्यपालों के हस्ताक्षर पर भी विवाद उठते रहते हैं. जब सभी संविधान को अपना सबसे बड़ा विधान मानते हैं, तो फिर विवाद का तो कोई सवाल नहीं है. हमारा संविधान लिखित में है और बड़ी स्पष्टता के साथ है. फिर भी ऐसे विवाद ख़त्म ही नहीं होते हैं.
संसदीय व्यवस्था में संविधान का दर्जा माँ जैसा पूज्य है. सब बातें तो पूजने जैसी करते हैं, लेकिन आचरण में अनादर आम हो गया है. संविधान के रक्षक ही जब भक्षक बन जाएंगे, तो फिर संविधान जनता की रक्षा कैसे कर पाएग.
संविधान-संविधान बोलने और खेलने का विषय नहीं है. यह जीवन आचरण का विषय है. सियासी खुदगर्जी और खुदमर्जी, संविधान को ही चोट पहुंचाती है. संविधान को सम्मान दिए बिना लोकतंत्र की मर्यादा नहीं बच सकेगी.