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भारत: सामाजिक व्यवस्था में नई करवट

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Mon , 16 Oct

सार

मुसलमानों को यह बात समझ आ गई है कि किस तरह राजनीतिक षड्यंत्रों से दूर रह कर अपने विकास पर ध्यान देना है, यही वजह है कि देश के मुसलमानों ने राजनीतिक दलों के नेताओं, मुल्ला-मौलवियों और हिंदुत्व के कट्टर समर्थकों के उकसावे वाले बयानों को गंभीरता से नहीं लिया..!!

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विस्तार

देश की सामाजिक व्यवस्था करवट बदल रही है। देश के मुसलमानों को गुमराह करने और भडक़ाने की कोशिशें अब नाकाम साबित होने लगी हैं। मुसलमानों को यह बात समझ आ गई  है कि किस तरह राजनीतिक षड्यंत्रों से दूर रह कर अपने विकास पर ध्यान देना है। यही वजह है कि देश के मुसलमानों ने राजनीतिक दलों के नेताओं, मुल्ला-मौलवियों और हिंदुत्व के कट्टर समर्थकों के उकसावे वाले बयानों को गंभीरता से नहीं लिया। मुसलमानों को यह भी समझ में आ गया है कि चंद सिरफिरों की देशविरोधी हरकतों का समर्थन करने से उनकी कौम का नुकसान होगा। 

यही वजह है कि हाल ही में हिजबुल्ला के कट्टर आतंकवादी और सर्वोच्च रणनीतिकार हसन नसरुल्लाह के खात्मे के बाद देश से व्यापक प्रतिक्रिया सामने नहीं आई। इसी तरह हमास और इजराइल युद्ध के दौरान मारे फिलीस्तिनियों को लेकर भी कमोबेश यही रुख कायम रहा। कश्मीर के कुछ इलाकों में सिरफिरों ने हिजबुल्लाह आतंकवादी हसन नसरुल्ला के मरने पर जरूर विरोध प्रदर्शन किया, किंतु देश के बाकी हिस्सों में शांति बनी रही। इसराइल-फिलिस्तीन युद्ध में केंद्र सरकार ने हमास की कड़ी निंदा की। मोदी सरकार इसराइल के साथ खड़ी नजर आई। इसराइल के खिलाफ भारत में बयानबाजी जरूर हुई, किन्तु ब्रिटेन और अमरीका की तरह कोई विरोध प्रदर्शन नहीं हुआ। गौरतलब है कि इन दोनों देशों में इसराइल के खिलाफ जबरदस्त रैलियां निकाली गई, धरने-प्रदर्शन किए गए। अमरीका में काफी बवाल हुआ। अमरीकी विश्वविद्यालय राजनीति का अखाड़ा बन गए।

वहाँ विश्वविद्यालयों पर पुलिस कार्रवाई की नौबत आ गई। मानवाधिकार और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का पाठ दुनिया को पढ़ाने वाले अमरीका की खूब किरकिरी हुई। कमोबेश यही हाल ब्रिटेन का हुआ। फिलिस्तीन समर्थक प्रदर्शनकारियों से निपटने में ब्रिटिश सरकार के हाथ-पैर फूल गए। यूरोप के कुछ देशों में भी इसी तरह के प्रदर्शन हुए। इजराइल ने हमास के सर्वोच्च राजनीतिक नेता इस्माइल हानिया को ईरान के दौरे के दौरान विस्फोट से उड़ा दिया। इस पर कई देशों में व्यापक प्रतिक्रिया हुई, किन्तु भारत में कहीं भी कोई विरोध प्रदर्शन नहीं हुआ। आश्चर्य की बात यह है कि भारत और विश्व के मुस्लिम जगत से जुड़े मुद्दों को लेकर देश के मुसलमानों ने चुनिंदा स्थानों पर प्रतीकात्मक प्रतिक्रिया जताई, किन्तु कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों ने जमकर उछलकूद मचाई। मुसलमानों ने ऐसे मुद्दों को ज्यादा महत्व नहीं दिया। जम्मू-कश्मीर से धारा 370 और 35-ए हटाए जाने के बाद कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों ने मुसलमानों का सच्चा हितैषी साबित करने के लिए जमकर विरोध किया। जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने नेशनल कान्फ्रेंस से चुनावी गठबंधन किया। शेख अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कान्फ्रेंस ने चुनावी घोषणा में धारा-370 को वापस लाने का ख्याली पुलाव पकाया है। कांग्रेस हिंदू वोटों की नाराजगी के डर से इस पर चुप्पी साधे हुए है। देश के मुसलमानों को यह समझ आ गया है कि जम्मू-कश्मीर का मुद्दा उनके हितों पर कोई असर डालने वाला नहीं है। यह मुद्दा देश के आम मुसलमानों का नहीं है। यह पाक परस्त आतंकवाद से जुड़ा हुआ मामला है। 

केंद्र सरकार ने तीन तलाक को खत्म कर दिया। मुस्लिम महिलाओं से जुड़े तीन तलाक के मुद्दे पर भी देश में सिर्फ लखनऊ और पुणे में विरोध प्रदर्शन हुआ। यह प्रदर्शन भी ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के आह्वान पर हुआ। देश में अन्य हिस्सों में मुसलमानों ने इस पर कोई व्यापक प्रतिक्रिया नहीं जताकर पर्सनल लॉ बोर्ड के इरादों को विफल कर दिया। नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2019 (सीएए) 11 दिसंबर 2019 को भारत की संसद द्वारा पारित किया गया था। इसने अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए प्रताडि़त धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए भारतीय नागरिकता प्रदान करके नागरिकता अधिनियम 1955 में संशोधन किया। भारत में 2014 तक पात्र अल्पसंख्यकों को हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी या ईसाई बताया गया। सीएए के तहत देश के स्थायी निवासी मुस्लिम समुदाय को छोडक़र तीन मुस्लिम बहुल पड़ोसी मुल्कों से आने वाले बाकी धर्मों के लोगों को नागरिकता देने का प्रावधान है। सीएए के विरोध में मुद्दे पर कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों ने खूब हंगामा किया।

इस कानून के तहत यह साफ जाहिर था कि देश में लंबे अर्से से रहने वाले मुसलमानों को इसके दायरे में शामिल नहीं किया गया है। इसके बावजूद विपक्षी दलों ने इस पर जबरदस्त विवाद पैदा करके मुसलमानों को दिग्भ्रमित करने का प्रयास किया। इस मुद्दे पर कई दिनों तक वाद-विवाद हुआ। आखिरकार देश के मुसलमानों को समझ में आ गया कि सीएए से उनका कोई सरोकार नहीं है। 

इसमें कोई संदेह नहीं कि मौके-बेमौके राजनीतिक दलों के निहित स्वार्थों पर सुप्रीम कोर्ट ने पानी फेरा है। अदालतों के ऐसे आदेशों से देश के मुसलमानों का भरोसा मजबूत हुआ है। यही वजह है कि मुसलमानों ने ऐसे सार्वजनिक मुद्दों पर भाजपा के खिलाफ विपक्षी दलों के उकसावे के प्रयासों का खामोशी से जवाब दिया। सोशल मीडिया पर लव जेहाद जैसे आरोप या फिर किसी सामान्य घटना को सांप्रदायिक रंग देने के प्रयासों को भी मुसलमानों ने शांति और सौहार्द रख कर विफल कर दिया। इससे साफ जाहिर है कि देश के मुसलमान अब परिपक्व हो चुके हैं और फालतू के भावनात्मक और धार्मिक बहकावे में नहीं आते हैं। दरअसल मुसलमानों को सुरक्षा का एहसास दिलाने में सुप्रीम कोर्ट की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। मुसलमानों ने न्यायिक फैसलों का सम्मान किया है। विपक्षी दलों के बात का बतंगड़ बनाने के प्रयासों को नाकाम कर मुसलमानों ने साबित किया है कि राजनीतिक प्रपंचों से दूर रह कर ही विकास की इबारत लिखी जा सकती है। यह बदलाव सकारात्मक दिशा में है।