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भारत और आंतरिक पलायन 

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Thu , 19 Jan

सार

कोविड महामारी के दौरान आंतरिक पलायन और भी ज्यादा उजागर हो गया। इस महामारी के दौरान प्रवासी मजदूरों को उनके गृह राज्यों में भेजने के लिए विशेष रेलगाड़ियों और बसों का प्रबंध करना पड़ा..!!

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विस्तार

देश में आंतरिक पलायन का सिलसिला सदियों से जारी है। 19वीं शताब्दी में राजस्थान से मारवाड़ी कारोबार करने के लिए देश के सुदूर पूर्वी हिस्से तक पहुंच गए और वीरता दिखाने में माहिर मराठा समुदाय ने पश्चिमोत्तर और दक्षिण तक अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी। इसी तरह बंगाली, तमिल और तेलुगू समुदाय के लोग भी पूरे देश में फैल गए।

आर्थिक विकास, देश भर में शिक्षा का प्रसार और आबादी में युवाओं का अनुपात बढ़ने से पिछले कुछ वर्षों में आंतरिक पलायन बढ़ा है। कोविड महामारी के दौरान आंतरिक पलायन और भी ज्यादा उजागर हो गया। इस महामारी के दौरान प्रवासी मजदूरों को उनके गृह राज्यों में भेजने के लिए विशेष रेलगाड़ियों और बसों का प्रबंध करना पड़ा। 

लॉकडाउन की घोषणा के बाद शुरुआती दिनों में हजारों मजदूर अपने घर पैदल ही जाने के लिए सड़कों पर निकल पड़े। बाहों में बच्चे और सिर पर सामान की गठरी लादे लोगों को देखना असहज था और दिल को झकझोर देने वाले दुःस्वप्न जैसी स्थिति थी।

वैसे भी हमारे दिलो-दिमाग में कहीं न कहीं ‘ग्रामीण समुदायवाद’ की छाप है, जो मुक्त बाजार व्यवस्था और पूंजीवादी औद्योगीकरण के खिलाफ है। हममें कई लोगों के मन में ठहरे और न बदलने वाले ग्रामीण जीवन की वही पुरानी तस्वीर बसी हुई है, जो हिंद स्वराज में नजर आती है, जिसे महात्मा गांधी ने युवावस्था में लिखा। ठीक उसी तरह जैसा महात्मा गांधी के हिंद स्वराज में बताया गया है। उस सोच में पलायन तो हो ही नहीं सकता।

हमें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि पलायन का लोगों पर गहरा भावनात्मक एवं मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। खास कर जब गांव से लोग अनियोजित एवं अव्यवस्थित शहरों की तरफ रुख करते हैं तो यह असर और गंभीर हो सकता है। 

शहरों में पहुंचते ही पांव टिकाने, जल आपूर्ति, साफ- सफाई, शिक्षा और स्वास्थ्य सहित बुनियादी सुविधाएं हासिल करने की समस्याओं से जूझना पड़ता है। कभी-कभी ये समस्याएं काफी विकट हो जाती हैं। हमें इन शहरों में प्रवासियों के लिए व्यवस्थित जीवन-यापन का इंतजाम करने के साथ सुनियोजित शहरीकरण को बढ़ावा देना होगा। साथ ही हमें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि पलायन लगातार इतिहास का हिस्सा रहा है और आर्थिक विकास में तेजी के साथ इसमें भी खास तौर पर तेजी आई है। हमें इसका स्वागत करना चाहिए।

वर्ष 2005 में कुल वैश्विक आबादी का 12 प्रतिशत हिस्सा (76.3 करोड़ लोग) अपने मूल जन्म स्थान से बाहर जीवन-यापन कर रहा था। लोग अक्सर इधर से उधर जाते रहते हैं और देश से बाहर जाने के बजाय देश के अंदर यह सिलसिला अधिक दिखता है। देश का आर्थिक विकास तेज होने के साथ ही ग्रामीण से शहरी इलाकों की तरफ पलायन बढ़ जाता है। दुनिया में आज उच्च आय वाले जो भी देश हैं, उन सभी में 19वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी के मध्य तक तेज आर्थिक विकास के साथ ग्रामीण से शहरी इलाकों की तरफ पलायन भी खूब हुआ।

दुनिया के सभी क्षेत्रों में विकास का पहिया घूमता रहता है। क्षेत्रों की भौगोलिक स्थिति और दूसरों के मुकाबले उन्हें मिलने वाले अधिक फायदों के अनुरूप विकास की प्रक्रिया आगे भी जारी रहेगी। अनुसार यह सिलसिला चलता ही रहेगा। हमने अपने पुराने अनुभव के कारण हम जानते हैं कि माल ढुलाई एक समान करने की नीतियों आदि के जरिये तमाम राज्यों की औद्योगिक वृद्धि और सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) को एक बराबर करने के प्रयासों का किस तरह प्रतिकूल असर हो सकता है। अलग-अलग राज्य में जीएसडीपी अलग-अलग रफ्तार से बढ़ेगा। लोग तेजी से आर्थिक विकास करते क्षेत्रों की ओर जाएंगे और इस पलायन से पूरे क्षेत्र में प्रति व्यक्ति आय का स्तर बढ़ाने और इसमें समानता लाने में मदद मिलेगी।

वर्ष 2016 में चीन में 7.7 करोड़ प्रवासी मजदूर रोजगार की तलाश में एक प्रांत से दूसरे प्रांत में गए। चीन की तुलना में भारत में वर्ष 2011 से 2016 के दौरान लगभग 90 लाख लोग ही एक राज्य से दूसरे राज्य गए। भारत में राज्यों के बीच पलायन चीन ही नहीं अमेरिका की तुलना में भी काफी कम है। अमेरिका के जनगणना ब्यूरो के अनुसार अमेरिका में 2021 में राज्यों के बीच 79 लाख लोगों का पलायन हुआ। हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि अमेरिका की आबादी 34 करोड़ है, जो भारत की कुल आबादी के एक चौथाई से भी कम है।

बुजुर्गों की तुलना में युवा अधिक पलायन करते हैं और शिक्षित युवा तो और भी ज्यादा पलायन करते हैं। लिहाजा भारत की आबादी में युवाओं की हिस्सेदारी, साक्षरता में बढ़ोतरी और ठीकठाक ऊंची वृद्धि दर को देखते हुए आंतरिक पलायन की दर घटने के बजाय बढ़नी चाहिए। हमें देश में आंतरिक पलायन की दर के रुझान पर सावधानी से और नियमित रूप से नजर रखनी चाहिए। 

देश में आंतरिक पलायन के रुझान का ‘400 मिलियन ड्रीम्स’ में उल्लेख किया गया है। ‘400 मिलियन ड्रीम्स’ प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद का शोध पत्र है, जो दिसंबर 2024 में जारी हुआ है। विवेक देवराय और देवी प्रसाद मिश्रा द्वारा संयुक्त रूप से लिखे इस पत्र में पलायन पर व्यापक आंकड़े उपलब्ध कराए गए हैं। हमें पलायन पर पहले से मौजूद आंकड़ों के अलावा इस पत्र की मदद से नई और दिलचस्प जानकारियां भी मिलती हैं।

इस पत्र में भारतीय रेल की अनारक्षित टिकट प्रणाली (यूटीएस), भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के टेलीफोन उपभोक्ता रोमिंग और जिला-स्तरीय बैंकिंग से जुड़े आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया है। ये सभी महत्त्वपूर्ण जानकारियां हैं क्योंकि बड़े पैमाने पर विस्तृत पलायन के आंकड़े केवल जनगणना के समय मिल पाते हैं। आखिरी बार जनगणना वर्ष 2011 में हुई थी। गैर-उपनगरीय यूटीएस 2 श्रेणी यात्रियों की संख्या पर मिले नए आंकड़ों से ‘400 मिलियन ड्रीम्स’ में निष्कर्ष निकाला गया है कि 2023 में प्रवासियों की संख्या 40.2 करोड़ (देश की आबादी की 28.9 प्रतिशत) थी। यह आंकड़ा 2011 की जनगणना में उपलब्ध कराए गए 45.6 करोड़ (कुल आबादी की 37.6 प्रतिशत) की तुलना में कम था। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन विवेक मौलिक चिंतक थे। दुर्भाग्य से वह पिछले वर्ष 1 नवंबर को हम सबको अलविदा कह गए। 

मुझे पूरा विश्वास है कि इस पत्र पर व्यापक चर्चा होगी, इसमें शामिल तथ्यों का हवाला भी दिया जाएगा और हो सकता है कि इसकी आलोचना भी की जाए। रिपोर्ट लिखने वाले विद्वान का इस बात के लिए आभारी रहना चाहिए कि उन्होंने हमें पलायन के साक्ष्यों पर व्यापक रूप से विचार करने और इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर गहराई से सोचने के लिए प्रेरित किया है।

वर्ष 2011 से 2023 के बीच आंतरिक पलायन में वास्तव में कितनी कमी आई इस पर माथापच्ची किए बिना हमें स्वीकार करना चाहिए कि देश में आंतरिक पलायन उतनी तेजी से नहीं हो रहा है, जितनी तेजी से होना चाहिए। राज्यों के बीच पलायन को बढ़ावा देने से न केवल श्रम बाजार की क्षमता बढ़ेगी बल्कि राष्ट्रीय अखंडता को भी बल मिलेगा। बेहतर रहन-सहन की खोज में सुनियोजित शहरों की तरफ ज्यादा पलायन को हमारे भविष्य के सपने के अभिन्न हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए।