जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री एवं नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने कहा है कि यदि ‘इंडिया’ गठबंधन संसदीय चुनाव तक ही था, तो अब उसे खत्म कर देना चाहिए..!!
अब यह साफ़ दिखने लगा है कि भाजपा के ख़िलाफ़ बना विपक्ष का ‘इंडिया’ गठबंधन खत्म हो चुका है अथवा खत्म होने के कगार पर है। कुछ अवशेष बचे हैं, अलबत्ता ताश के पत्तों की तरह बिखर रहे हैं। लोकतंत्र के लिए यह सुखद खबर नहीं है।
कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा का मानना है कि गठबंधन लोकसभा चुनाव तक ही था, लिहाजा अब उसका कोई अस्तित्व नहीं है। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री एवं नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने कहा है कि यदि ‘इंडिया’ गठबंधन संसदीय चुनाव तक ही था, तो अब उसे खत्म कर देना चाहिए और सभी क्षेत्रीय दल अपने-अपने राज्यों में अलग-अलग काम करें। लेकिन नेशनल कॉन्फ्रेंस के ही अध्यक्ष डा. फारूक अब्दुल्ला ‘इंडिया’ को लोकसभा चुनाव तक ही सीमित नहीं मानते।
उनका मानना है कि यह गठबंधन नफरती, तानाशाही किस्म की सियासत के खिलाफ बनाया गया था और लोकसभा चुनाव में कामयाब भी रहा, लिहाजा कोई भी गठबंधन हो, वह हरेक चुनाव और हरेक क्षण के लिए होता है।
‘इंडिया’ का विश्लेषण इसलिए प्रासंगिक है, क्योंकि दिल्ली विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव) ने केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) को समर्थन देने की घोषणा की है। अखिलेश यादव, ममता बनर्जी और उद्धव ठाकरे ‘आप’ का मंच साझा कर उसके पक्ष में चुनाव-प्रचार भी करेंगे, हालांकि दिल्ली में इन राजनीतिक दलों का जनाधार ‘नगण्य’ है, लेकिन चुनाव के दौरान ‘हवा’ तो बनती है।
सपा, तृणमूल और शिवसेना (उद्धव) ‘इंडिया’ के प्रमुख घटक दल हैं और लोकसभा में इनके 75 सांसद हैं। राजद नेता तेजस्वी यादव भी गठबंधन को लोकसभा चुनाव तक ही सीमित मान रहे हैं। बिहार में इसी साल अक्तूबर में विधानसभा चुनाव होने हैं। क्या राजद-कांग्रेस-वामदल का कथित महागठबंधन एक साथ चुनाव में नहीं उतरेगा?
क्या 2029 के संसदीय चुनाव तक ‘इंडिया’ यूं ही बिखरा हुआ रहेगा और कांग्रेस अकेली-थकेली पड़ जाएगी? दरअसल ‘इंडिया’ कभी भी विपक्ष का लामबंद गठबंधन नहीं बन पाया। उसका न तो कोई सचिवालय है, न कोई समन्वय समिति है और न ही साझा न्यूनतम कार्यक्रम है। यदि ऐसी ही स्थिति रहनी है, तो फिर उसे खत्म करने में क्या दिक्कत है?
गठबंधन पहले भी टूटते रहे हैं, खत्म होते रहे हैं। फिर गठबंधन बनते रहे हैं, क्योंकि यही गठबंधनों की नियति है। लोकसभा चुनाव की ही बात करें, तो कांग्रेस ने तृणमूल और केरल के वाम मोर्चा के खिलाफ चुनाव लड़े। पंजाब में कांग्रेस-आप एक-दूसरे के लिए गंभीर चुनौती बने रहे, हालांकि दिल्ली में गठबंधन जरूर था, लेकिन भितरघात भी थे। यदि लोकसभा चुनाव के बाद का परिदृश्य देखा जाए, तो हरियाणा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और ‘आप’ एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी थे, नतीजतन कांग्रेस बहुत थोड़े अंतर के साथ सत्ता की लड़ाई हार गई।
महाराष्ट्र में कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव) और एनसीपी (शरद) ने ‘महाविकास अघाड़ी’ गठबंधन में चुनाव लड़ा, लेकिन अंदरूनी तनाव, विरोधाभास, बेमेल समन्वय इतने रहे कि अघाड़ी चारों खाने चित्त हो गया। अब खबरें हैं कि मुंबई नगर निगम के चुनाव शिवसेना (उद्धव) अकेले ही लडऩे की तैयारियां कर रही है। महाराष्ट्र के ही पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने कहा है कि दिल्ली में ‘आप’ ही चुनाव जीतेगी। कांग्रेस को ‘आप’ के साथ गठबंधन रखने की कोशिश करनी चाहिए थी।
‘इंडिया’ के प्रमुख दलों में तमिलनाडु का द्रमुक और झारखंड का झामुमो भी हैं। झारखंड में हाल ही में चुनाव सम्पन्न हुए हैं। अगले साल पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु सरीखे बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। घटक दल कांग्रेस को छोडऩे और झटकने की मुद्रा में हैं। क्षेत्रीय दल कांग्रेस के ही वोट बैंक पर पनपे और ताकतवर हुए हैं। अब एकमात्र संभावना बची है कि 2029 के लोकसभा चुनाव में विपक्षी दल फिर गठबंधन बना सकते हैं।