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क्या देश में परजीवियों की जमात बन रही है?

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Mon , 22 Feb

सार

मुफ्त सुविधाओं के चलते लोग काम नहीं करना चाहते। खेतों में मजदूर नहीं मिल पा रहे हैं, लोगों को मुफ्त अनाज मिल रहा है, बिना काम किए नकदी पैसे मिल रहे हैं, मुफ्त पेंशन बांटी जा रही हैं, कई मुफ्त योजनाओं की घोषणाएं कर सुविधाएं दी जा रही हैं, ऐसे में जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस एजी मसीह ने एक आशंकित सवाल किया है कि क्या हम परजीवियों का एक वर्ग तो नहीं बना रहे हैं? 

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विस्तार

और अब देश की सर्वोच्च अदालत ने मुफ्तखोरी और रेवडिय़ों पर चिंता के साथ-साथ नाराजगी भी जताई है। इन मुफ्त सुविधाओं के चलते लोग काम नहीं करना चाहते। खेतों में मजदूर नहीं मिल पा रहे हैं। लोगों को मुफ्त अनाज मिल रहा है। बिना काम किए नकदी पैसे मिल रहे हैं। मुफ्त पेंशन बांटी जा रही हैं। कई मुफ्त योजनाओं की घोषणाएं कर सुविधाएं दी जा रही हैं। ऐसे में जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस एजी मसीह ने एक आशंकित सवाल किया है कि क्या हम परजीवियों का एक वर्ग तो नहीं बना रहे हैं? 

वस्तुतःराष्ट्रीय विकास के लिए लोगों को मुख्यधारा में लाने के बजाय हम उन्हें नकारा बना रहे हैं। मुफ्तखोरी और रेवडिय़ों का देश के खजाने पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है। देश और राज्यों पर कर्ज के बोझ असहनीय होते जा रहे हैं। बजट में कटौतियां कर सरकारें रेवडिय़ां परोसने को विवश हैं, क्योंकि अब यही राजनीति हो गई है। सवाल यह भी है कि इन लोगों को विकास में योगदान देने के अवसर क्यों न दिए जाएं? यह कर्ज का बोझ है अथवा मुफ्तखोरी बांटने का असर है कि 2025-26 के राष्ट्रीय बजट में स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्रामीण विकास, शहरी विकास, कृषि, समाज कल्याण, प्रधानमंत्री आवास योजना, फसल बीमा योजना, जल-जीवन मिशन, प्रधानमंत्री मुफ्त अनाज योजना आदि के बजट में कटौतियां करनी पड़ी हैं। देश पर 200 लाख करोड़ रुपए से अधिक का कर्ज है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का मोटा हिस्सा कर्ज और उसका ब्याज चुकाने में खर्च करना पड़ रहा है। भारतीय रिजर्व बैंक भी इस मुद्दे पर चिंता और सरोकार जताते हुए कह चुका है कि जीडीपी के 20 प्रतिशत से ज्यादा कर्ज लेना ठीक नहीं है। हाल ही में महाराष्ट्र और दिल्ली में विधानसभा चुनाव हुए हैं। दोनों चुनावों में मुफ्तखोरी और रेवडिय़ों की जमकर बोलियां लगाई गईं। दिल्ली में एक लंबे अंतराल के बाद भाजपा सत्ता में लौटी है। अभी सरकार का गठन होना है, लेकिन अनुमान सामने आ रहे हैं कि मुफ्तखोरी की योजनाओं को लागू करने के लिए कमोबेश 25,000 करोड़ रुपए की जरूरत पड़ेगी। दिल्ली का कुल बजट 76,000 करोड़ रुपए का है।

उसमें से करीब 62-64 हजार करोड़ रुपए वेतन, भत्तों, पेंशन आदि पर खर्च हो जाते हैं। बुनियादी ढांचे के विकास के लिए करीब 6000 करोड़ रुपए ही शेष बचते हैं। तो नए खर्चों के लिए 25,000 करोड़ रुपए कहां से आएंगे? महाराष्ट्र में 1 लाख करोड़ रुपए की बजट में कटौती का खतरा आसन्न है। मुफ्त योजनाओं को मिला कर 2 लाख करोड़ रुपए से अधिक का घाटा हो सकता है। राज्य पर कर्ज 7.11 लाख करोड़ रुपए का है। शिव भोजन थाली, तीर्थ यात्रा, आनंद सिद्धा आदि योजनाएं या तो बंद करनी पड़ी हैं अथवा बंद होने के कगार पर हैं। जिस ‘लाडकी बहिन’ योजना के बल पर भाजपा-महायुति की सरकार बरकरार रही है, उस योजना के वर्गीकरण पर पुनर्विचार किया जा रहा है, क्योंकि इस योजना पर 46,000 करोड़ रुपए अनुमानित खर्च है। जाहिर है कि कई महिलाओं की नकदी पर गाज गिरना तय है। 

ठेकेदार अपने काम के भुगतान मांगने को कपड़े फाड़ रहे हैं, लेकिन लगातार घाटों के कारण सरकार की सांसें फूली हैं। ऐसे फलितार्थ लगभग सभी राज्यों में सामने आ रहे हैं। बहरहाल सर्वोच्च अदालत ने नाराज टिप्पणी की है, कोई फैसला नहीं सुनाया है, लेकिन मुफ्तखोरी और रेवडिय़ां बांटना अब भारतीय राजनीति का अंतरंग हिस्सा बन गया है। रेवडिय़ां बांट कर राजनीतिक दल चुनाव जीत रहे हैं और सत्ता में आ रहे हैं। ये राजनीतिक दल मुफ्तखोरी को ‘कल्याणकारी’ मानते हैं और गरीब जनता के प्रति सरकार का दायित्व भी मान रहे हैं। ऐसे में शीर्ष अदालत के दो न्यायाधीश कोई फटकार जैसी नाराजगी जताएं, तो उसके कोई खास मायने नहीं हैं। बहरहाल रेवडिय़ों को परिभाषित नहीं किया जा सका। इस पर चिंतन होना चाहिए।