कट्टर ईमानदार और कट्टर बेईमानी का तमगा राजनीतिक अदालतें खुद ही बांटती फिर रही हैं. राजनीति का अपना कानून है, अपनी परिभाषा है. राजनीति का तराजू, न्याय के तराजू को भी अपनी कसौटी पर ही कसने की कोशिश करता है. राजनीति में आरजू ही राजनीतिक न्याय का तराजू बन जाती हैं. अदालतें और कानून के अंतर्गत काम कर रही जांच एजेंसियां राजनीति की अदालत में हमेशा कटघरे में दिखाई पड़ती हैं..!!
देश की सर्वोच्च अदालत ने अडानी समूह को भले ही बड़ी राहत दे दी है लेकिन राहुल गांधी की राजनीतिक अदालत में अडानी देश का सबसे बड़ा आर्थिक अपराधी है. हिंडनबर्ग की रिपोर्ट पर सुप्रीम कोर्ट भले ही भरोसा नहीं करे लेकिन राहुल की अदालत के लिए हिंडनबर्ग रिपोर्ट ईमानदारी की गारंटी लगती है.
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल प्रवर्तन निदेशालय (ED) की जांच के लिए मिल रहे समन की लगातार अनदेखी कर रहे हैं और खुद को कट्टर ईमानदार घोषित कर रहे हैं. देश के कानून के अंतर्गत हर व्यक्ति तब तक ईमानदार है जब तक वह बेईमान साबित नहीं हो जाता. ईमानदारी और बेईमानी साबित करने की कसौटी देश की अदालतें और कानून ही होंगे. हर आरोपी को यह नैतिकता तो दिखानी ही होगी कि अदालती कसौटी पर अपने को आरोपी या दोषमुक्त साबित करे.
राजनीति की अदालतें भ्रष्टाचार और आर्थिक अपराध पर जो फैसले सुनाती हैं उनके खिलाफ अगर देश की अदालतों के फैसले आते हैं तो फिर ऐसे नेताओं की नैतिकता पर सवाल खड़े होना लाजमी है. कानूनी जांच प्रक्रिया के बाद अडानी समूह अगर निर्दोष साबित पाया जाता है तो फिर अडानी के नाम पर राहुल गांधी द्वारा प्रधानमंत्री मोदी और सरकार पर जनसभाओं में हजारों बार लगाए गए आरोपों के लिए क्या उन्हें देश की जनता से माफी नहीं मांगना चाहिए?
लोकतंत्र नैतिकता और मर्यादा का तंत्र है. मर्यादा इसका प्राण है और नैतिकता इसकी जीवन यात्रा है. दिल्ली सरकार में शराब घोटाले पर आम आदमी पार्टी के उपमुख्यमंत्री और एक सांसद लंबे समय से जेल में हैं. अभी तक उन्हें बेल नहीं मिली है. अरविंद केजरीवाल को पूछताछ के लिए पहले भी बुलाया गया था. अब फिर समन किया गया है तो ईडी के सामने पेश होना केजरीवाल के लिए राजनीतिक नहीं कानूनी बाध्यता है. इसको टालकर राजनीतिक हथकंडे के रूप में आरोप-प्रत्यारोप की भाषा केजरीवाल की छवि को ही खराब कर रही है. उन्हें अपनी ईमानदारी अदालत में ही साबित करना होगी।
संसदीय शासन प्रणाली में शासन संचालन के लिए संविधान सम्मत मर्यादाएं लिखित और निर्धारित हैं. यह कोई पहला अवसर नहीं है कि किसी मुख्यमंत्री के खिलाफ जांच एजेंसी द्वारा भ्रष्टाचार की जांच की जा रही है. इसके पहले भी कई मुख्यमंत्रियों पर ऐसी जांच हुई हैं और कानून के अंतर्गत अदालतों द्वारा उन्हें सजा भी दी गई है. लालू यादव इसके उदाहरण हैं कि उन्हें अदालती प्रक्रिया से गुजरकर भ्रष्टाचार के मामलों में सजा मिली है.
विपक्षी दलों में सबसे चर्चित अगर कोई विषय है तो वह ईडी की कार्य प्रणाली है. इसके खिलाफ विपक्षी दलों ने सर्वोच्च अदालत के दरवाजे भी खटखटाये थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुकाबले के लिए गठित इंडी गठबंधन में शामिल सभी दलों के नेता ईडी के निशाने पर हैं तो यह महज संयोग नहीं हो सकता. जांच एजेंसी पर भरोसा करना लोकतंत्र की मांग है. केजरीवाल के अलावा झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी ईडी के निशाने पर हैं. उन्हें भी घोटाली की जांच के लिए पूछताछ के समन लगातार भेजे जा रहे हैं. सातवीं बार उन्हें समन भेजा गया है लेकिन अभी तक एजेंसी के सामने पेश नहीं हुए हैं.
एजेंसियों के समन पर इस तरीके से राजनीतिक गतिरोध खड़ा करना लोकतंत्र की नैतिकता को धूल-धूसरित करने जैसा है. झारखंड में घोटाले के मामले में पहले भी कई स्थानों पर छापे डाले गए हैं और छापे की कार्रवाई मुख्यमंत्री के करीबियों पर अभी भी चल रही है. झारखंड में करोड़ों रुपए की नगदी भी बरामद हुई है. जांच एजेंसी के सामने भी यह चुनौती है कि वह अपनी संपूर्ण कार्यप्रणाली को अदालतों में न्यायसंगत साबित करें. साथ ही ऐसे मामलों में तत्परता से अगर फैसला आने की कोई व्यवस्था निर्मित की जाएगी तो आर्थिक अपराध के प्रकरणों में जांच की प्रक्रिया पर लोगों का भरोसा बढ़ेगा.
इंडी गठबंधन के सभी दलों के नेता और उनसे जुड़ी सरकारें ईडी की जांच से भारी कठिनाई में फंसी हुई दिखाई पड़ रही हैं. बंगाल में ममता बनर्जी के भतीजे के खिलाफ भी एजेंसी जांच कर रही है. कई दूसरे मामलों में भी जांच की प्रक्रिया चल रही है. तमिलनाडु में डीएमके के मंत्रियों के खिलाफ ईडी की जांच लंबे समय से चल रही है. महाराष्ट्र में भी इस गठबंधन से जुड़े दलों और नेताओं के खिलाफ जांच की प्रक्रिया चल ही रही है.
विपक्षी दलों के इन राजनीतिक आरोपों को तर्क के रूप में स्वीकार भी किया जाए कि बीजेपी विरोधी दलों के नेताओं पर ही सख्ती के साथ ईडी कार्रवाई कर रही है बीजेपी के नेताओं पर इस एजेंसी द्वारा छापे नहीं डाले जाते. विपक्ष का यह आरोप भी सतही तौर पर स्वीकार किया जा सकता है कि ईडी की जांच में शामिल कई नेता बीजेपी में शामिल होने के बाद इस जांच की तपिश से धीरे-धीरे मुक्त से हो जाते हैं.
कानून सबके लिए बराबर है. वह चाहे सत्तापक्ष के नेता हों या विपक्ष से जुड़े नेता हो. जांच एजेंसी को कानून के अंतर्गत अपनी पूरी प्रक्रिया को साबित करने की जिम्मेदारी होती है. जांच एजेंसी भी कानून के दायरे में है.वह भी अदालती प्रक्रिया के अंतर्गत कसौटी पर कसी जाती है. आरोप प्रत्यारोप की इस राजनीति में अदालतों और जांच एजेंसियों को घसीटा जाना संसदीय शासन प्रणाली को कमजोर करना ही कहा जाएगा.
शुद्ध अंतःकरण-निष्ठा और ईमानदारी से काम करने की शपथ लेकर संविधान के अंतर्गत काम करने वाली एजेंसियों के आदेशों का सम्मान करने की बजाय उन पर आक्षेप लगाना उस संविधान का उल्लंघन है जिसकी शपथ लेकर मुख्यमंत्री-मंत्री और दूसरे नेता पदों पर बैठे हुए हैं. मर्यादा और नैतिकता के साथ जनादेश द्वारा संविधान के अंतर्गत काम करने का अवसर नेताओं को दिया गया है. पद पर होने का मतलब यह नहीं हो सकता कि वह खुद अपनी ईमानदारी का प्रमाण पत्र जारी करें. दूसरों को बेईमान और खुद को कट्टर ईमानदार साबित करें और पद का दुरुपयोग करते हुए इमेज बिल्डिंग के लिए सरकारी धन और सुविधाओं का दुरुपयोग किया जाए.
आर्थिक अपराध के मामले में राजनीतिक आरोप लगाने की नैतिकता तब तक किसी भी दल या नेता को नहीं मिलती जब तक कि कानून और संविधान के अंतर्गत अदालती प्रक्रिया में ऐसे आरोप साबित नहीं हो जाएं. अडानी के मामले में राहुल गांधी ने जिस तरह भारत जोड़ो यात्रा में हर सभा और हर संवाद में पीएम मोदी को कटघरे में खड़ा करने के लिए अडानी के आर्थिक साम्राज्य का संदर्भ दिया वह अब सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद पूरी तरह से अप्रसांगिक साबित हो गया है. जब अपराध साबित करने के लिए अदालत ही एकमात्र जगह है तो फिर इस प्रक्रिया को पूरा किए बिना किसी को भी आरोपों की राजनीति क्यों करना चाहिए?
राहुल गांधी ने तो ऐसी परंपरा ही बना ली है कि संसदीय मर्यादा के विरुद्ध आक्षेप लगाकर प्रचार में फोकस पा सकें. कभी ‘चौकीदार चोर’ तो कभी अडानी का सहारा लेकर आरोपों की झड़ी लगाने वाले राहुल गांधी को कई बार अदालत के सामने भी माफी मांगनी पड़ी है. राजनीति की अदालत तो ऐसा मानती है कि ऐसी माफी भी कई बार राजनीति के लिए लाभकारी साबित हो जाती है. शायद इसीलिए यह जानते हुए कि उनके द्वारा लगाया जा रहा आरोप तथ्यात्मक नहीं है फिर भी आरोप लगाने की राजनीति की जाती है.
राजनीति में मर्यादा का पालन करने वाला ही जनविश्वास और प्रतिष्ठा पाता है. यह राजनीति नहीं हो सकती है कि कोई राजनीतिक दल स्वयं को न्याय का पुरोधा स्वीकार कर ले और देश में न्याय दिलाने के लिए ‘न्याय यात्रा’ का स्वांग रच दे. ‘न्याय यात्रा’ के आव्हान में ही अहंकार छिपा हुआ है. इसका यही संदेश है कि हम आम समाज से ऊपर हैं. जिसके साथ न्याय नहीं हो रहा है उसे न्याय दिलाना है.
जनता की अदालत ऐसी राजनीतिक अदालतों को जो स्वयंभू रूप से स्वयं को शिखर और जनता को अन्याय से ग्रसित स्वीकार करती हैं, उन पर समय-समय पर सटीक फैसला देती रही हैं. मर्यादित राजनीति का ही देश में भविष्य है. सभी दलों और नेताओं को सर्वोच्चता की भावना छोड़कर जन भावनाओं के साथ जुड़कर नीति और नैतिकता का परिचय देना ही बेहतर भविष्य सुनिश्चित करेगा.