यह संसद और सर्वोच्च अदालत के फैसलों का उल्लंघन भी है, फिर भी उपमुख्यमंत्री सुरेंद्र चौधरी के जरिए प्रस्ताव पेश कराया गया कि जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा बहाल किया जाए, यह दर्जा अनुच्छेद 370 में ही संरक्षण पाता रहा है, प्रस्ताव को लेकर विधानसभा में विधायकों ने हाथापाई, धक्कामुक्की की, यहां तक कि मारपीट भी की गई। विपक्षी सदस्यों को मार्शलों के द्वारा जबरन सदन के बाहर धकियाया गया..!!
जम्मू-कश्मीर विधानसभा में जो कुछ हुआ कम नहीं कहा जा सकता,हक़ीक़त में नेशनल कॉन्फ्रेंस का यही राजनीतिक मंसूबा था, क्योंकि अनुच्छेद 370 और 35-ए पार्टी का प्रमुख चुनावी मुद्दा था। पार्टी को 23 प्रतिशत वोट ही हासिल हुए, लेकिन वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, लिहाजा सत्तारूढ़ है। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला बखूबी जानते हैं कि विधानसभा को संविधान में संशोधन करने या ऐसा प्रस्ताव पारित करने का कोई भी अधिकार नहीं है।
यह संसद और सर्वोच्च अदालत के फैसलों का उल्लंघन भी है। फिर भी उपमुख्यमंत्री सुरेंद्र चौधरी के जरिए प्रस्ताव पेश कराया गया कि जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा बहाल किया जाए। यह दर्जा अनुच्छेद 370 में ही संरक्षण पाता रहा है। प्रस्ताव को लेकर विधानसभा में विधायकों ने हाथापाई, धक्कामुक्की की। यहां तक कि मारपीट भी की गई। विपक्षी सदस्यों को मार्शलों के द्वारा जबरन सदन के बाहर धकियाया गया। यह लगने लगा था कि यह विधायी सदन है अथवा अराजकता का कोई अखाड़ा है?
सत्तारूढ़ पक्ष अच्छी तरह जानता है कि अब अनुच्छेद 370 और 35-ए को बहाल नहीं किया जा सकता। प्रधानमंत्री मोदी यहां तक कह चुके हैं कि अनुच्छेद 370 को जमीन में गाड़ा जा चुका है। दुनिया की कोई भी ताकत अब उसे वापस नहीं ला सकती।’ मोदी सरकार ने ही इन अनुच्छेदों को निरस्त कराया है, वह ही इन्हें बहाल क्यों करेगी, कश्मीरी प्रतिनिधि यह भी बखूबी जानते हैं, लेकिन सियासत की उछल-कूद कर रहे हैं। सदन में जो असंसदीय, असंवैधानिक, अनधिकृत, अनैतिक हरकत की गई है, उसके अंजाम ऐसे भी हो सकते हैं कि उमर अब्दुल्ला सरकार और विधानसभा ‘प्रतीकात्मक’, ‘कागजी’ बनकर रह सकते हैं और राज्यत्व का मुद्दा भी लटक कर रह सकता है। अनुच्छेद 370 एक ऐतिहासिक गलती थी, लिहाजा उसे दुरुस्त करना जरूरी और उचित था।
वैसे भी विलय-पत्र में भी इसका कहीं उल्लेख नहीं था। संविधान में यह अस्थायी प्रावधान था। अनुच्छेद 370 को 17 अक्तूबर, 1949 को संविधान का हिस्सा बनाया गया, जिसे 26 जनवरी,1950 को गणतंत्र बनने के बाद भी धारण किया गया। नेहरू-गांधी परिवार के तीन प्रधानमंत्री हुए, कांग्रेस अध्यक्ष बने, कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री भी कांग्रेस के ही थे, लेकिन इस अस्थायी अनुच्छेद को हटाया नहीं गया। नतीजतन जम्मू-कश्मीर का ‘विशेष दर्जा’ जारी रहा। यह दर्जा ऐसा था, जिसका झंडा, संविधान, नागरिकता और 6 साल की विधानसभा आदि अलग व्यवस्थाएं थीं। भारत के कई कानून यहां मान्य और लागू नहीं थे। ‘जनसंघ’ के संस्थापक नेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कश्मीर में ‘एक विधान, एक निशान, एक प्रधान’ के तहत आंदोलन छेड़ा था और रहस्यमयी बलिदान दिया।
‘बलिदान हुए जहां मुखर्जी, वह कश्मीर हमारा है,’ भाजपा विधायकों ने सदन में ये नारे लगाए। जवाब में अब्दुल्ला की पार्टी के विधायकों ने नारे लगाए-‘जिस कश्मीर को खून से सींचा, वो कश्मीर हमारा है।’ यह कश्मीर में हिंसक अतीत को सुलगाने की हरकत है। यह जेहादियों का और अलगाववाद का नया एजेंडा हो सकता है, अलबत्ता दोनों अनुच्छेद तो आज मृत हैं। 5 अगस्त, 2019 को संसद ने कश्मीर के विशेष दर्जे को समाप्त करने का फैसला लिया। लोकसभा में 370 सांसदों और राज्यसभा में 125 सांसदों ने अनुच्छेद 370 और 35-ए को निरस्त करने वाले प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किए थे। लोकसभा में कांग्रेस समेत विरोधियों के कुल 70 सांसदों ने ही मतदान किया। आज एक अधूरी, बौनी-सी विधानसभा उस संसदीय निर्णय को खारिज कर दर्जा बहाल करने की मांग का दुस्साहस कैसे कर सकती है? पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने भी संसद के निर्णय को ‘संवैधानिक’ माना था। उसका उल्लंघन भी ‘संवैधानिक अपराध’ है।
दरअसल कश्मीर में अब्दुल्ला परिवार और नेशनल कॉन्फ्रेंस की सियासत ही, सोच के आधार पर, भारत-विरोधी रही है। वर्ष 2000 में तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला की सरपरस्ती में ‘जम्मू कश्मीर स्वायत्तता प्रस्ताव’ सदन में पारित कर केंद्र सरकार को भेजा गया था। वह आज कहीं धूल फांक रहा होगा। अनुच्छेद 370 वाले प्रस्ताव की नियति भी वही होगी। उमर सरकार मोदी सरकार के भरोसे है, लिहाजा अभी से ऐसी दरारें पैदा करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा।