जब पाप का घड़ा भरता है तब भाई भी साथ नहीं देता. साथी और सहयोगी तो साथ छोड़ ही देते हैं. मौसम में पतझड़ है तो कांग्रेस में भी पतझड़ का आलम है. कांग्रेस के दिग्गजों की कर्मभूमि ऐसे ही नहीं रणभूमि में बदल रही है. कांग्रेस की वर्तमान व्यथा दिग्गजों की कलंक कथा के कारण है..!!
राज्य की राजनीति में आकर दिग्गज कांग्रेसी नेता कमलनाथ आज पछता रहे होंगे. छिंदवाड़ा से दिल्ली बहुत दूर था इसलिए दिग्गज नेता के कारनामे कर्मभूमि में लोग समझ नहीं पा रहे थे. राज्य में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का पद और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंचकर किए गए कारनामे राज्य की जनता के साथ छिंदवाड़ा की जनता भी करीब से जान गई. जो घड़ा ढका हुआ था वह राज्य की राजनीति में ऐसा भर गया कि अब तो वही होना था जो हो रहा है.
अब तपस्या और मर्यादा की भावनात्मक अपील भी अपना असर नहीं दिखा पा रही है. समर्थक नेता और कार्यकर्ता जिस तेजी और मुखरता से साथ छोड़कर मुकाबले में खड़े हो रहे हैं वह तो रामायण के विभीषण की याद दिला रहा है. सत्य के लिए, न्याय के लिए, जब खून के रिश्ते भी छोड़ दिए जाते हैं फिर राजनीतिक साथ तो स्वार्थ और सुविधा का साथ ही होता है.
कांग्रेस में पहली बड़ी टूट कमलनाथ के मुख्यमंत्री रहते हुए हुई और विधायकों के दलबदल के कारण कांग्रेस की सरकार चली गई. इस टूट का लाभ शिवराज सिंह को मिला. सरकार बदली फिर नया जनादेश बीजेपी के पक्ष में आया. राज्य में सरकार की लीडरशिप में बदलाव हुआ. डॉक्टर मोहन यादव ने मुख्यमंत्री का पद संभाला. लोकसभा चुनाव की चुनौती मोहन यादव की पहली राजनीतिक चुनौती है.
कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में खोने के लिए केवल छिंदवाड़ा लोकसभा क्षेत्र है. बाकी तो कहीं अगर कोई परिणाम में फेरबदल होता है तो वह कांग्रेस के लिए लाभ ही होगा. बीजेपी 28 लोकसभा सीट पर तो जीत तय मान रही है लेकिन छिंदवाड़ा को जीतने के लिए बीजेपी की रणनीति कमलनाथ के एक्सपोजर पर केंद्रित है.
बीजेपी की सरकार में जब नेतृत्व परिवर्तन हुआ था तब ऐसा लग रहा था की पब्लिक कनेक्ट में शिवराज सिंह चौहान की जो उपलब्धि है उसका मुकाबला नए नेता के लिए कठिन साबित होगा. राज्य के नए मुख्यमंत्री ने कम से कम इस मामले में तो अपनी साख स्थापित कर ली है. मुख्यमंत्री की शपथ के बाद ही जिस तरह से राज्य में लगातार पब्लिक के बीच डॉक्टर मोहन यादव ने जाना शुरू किया, लोगों से जुड़ना शुरू किया, कांग्रेस की अजेय सीट छिंदवाड़ा को जीतने का प्रयास शुरू किया उसके परिणाम कांग्रेस की व्यथा की कथा कह रहे हैं.
छिंदवाड़ा में आदिवासी विधायक और आदिवासी महापौर पार्टी छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गए हैं तो इसके दूरगामी नतीजे राज्य की राजनीति में दिखाई पड़ सकते हैं. आदिवासी नेताओं के पार्टी छोड़ने के बाद कांग्रेस के दिग्गजों ने प्रतिक्रिया में ‘गद्दार’ और ‘कचरा’ जैसे शब्दों का उपयोग कर अपनी मूल अवस्था का ही दिग्दर्शन कराया है. आदिवासी जनप्रतिनिधि को गद्दार बताने की बीजेपी न केवल चुनाव आयोग में शिकायत कर रही है बल्कि एट्रोसिटी एक्ट के तहत अपराध के रूप में शिकायत दर्ज करा रही है. आदिवासी जनमानस मध्यप्रदेश में चुनावी दिशा तय करता है.
पार्टियों में विधायकों और पूर्व विधायकों तथा नेताओं के दलबदल पर प्रतिक्रियाएं भी अजीब तरीके से आ रही हैं लेकिन कई बार अजीब हालात में भी सत्यता प्रकट हो जाती है. बीजेपी के नेता कह रहे हैं कि कांग्रेस से गीला और सूखा कचरा पार्टी में शामिल हो रहा है. अब कांग्रेस में तो केवल मेडिकल वेस्ट बचा है. कांग्रेस भी जाने वाले नेताओं को कचरा ही बता रही है. स्थिति यह बन गई है कचरे से कचरा जा रहा है और कचरे का कचरा ही स्वागत कर रहा है.
आत्मा बेचकर कचरा एकत्रित करना मानव की सबसे बड़ी त्रासदी है. भ्रष्टाचार बेईमानी और पदों पर बैठकर अनैतिकताओं से जेब भरने के कुत्सित प्रयासों में ही आत्मा बिक जाती है फिर कुछ भी उपलब्ध हो जाए लेकिन आत्मस्वाभिमान समाप्त हो जाता है. बिना आत्मस्वाभिमान के ऐसे ही कचरे वाली राजनीति चलती रही है और चलती रहेगी.
सबसे बड़ा सवाल है कि दिग्गज नेता का चोला ओढ़े कमलनाथ की कलंक कथा एक्सपोज़ क्यों हो रही है? अभी तक तो उनकी महानता के गुणगान गाये जा रहे थे. अब अचानक छिंदवाड़ा में ही लोग उनको छोड़ने की दौड़ में लग गए हैं. राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को आयकर की वसूली के लिए जो नोटिस मिले हैं उनके संबंध में मीडिया में आई खबरों में भी यह बात सामने आई है कि कमलनाथ के मुख्यमंत्री रहते हुए उनके करीबियों पर डाले गए छापों में मिली जानकारी और तथ्यों के आधार पर कांग्रेस पार्टी के हिसाब में हेराफेरी पकड़ में आई थी. इसका मतलब है कि कांग्रेस की राष्ट्रीय स्तर पर व्यथा के पीछे भी कमलनाथ की कलंक कथा आधार बनी हुई है. कांग्रेस का लोकसभा का चुनावी केम्पेन ‘मेरे विकास का हिसाब दो’ की टैगलाइन के साथ शुरू हुआ है. कांग्रेस दूसरे से हिसाब मांग सकती है लेकिन अपनी पार्टी के लेनदेन का हिसाब देने को तैयार नहीं है.
छिंदवाड़ा के बाद एक और दिग्गज नेता का चुनावी लोकसभा क्षेत्र राजगढ़ सुर्ख़ियों में है. राजगढ़ दिग्विजय सिंह का गृह क्षेत्र है. उनके चुनाव में उतरने से चुनावी लड़ाई काफी रोचक हो गई है. बीजेपी जितना इस सीट को अपने लिए आसान मान रही थी अब शायद उसके लिए इतना आसान नहीं होगा. बीजेपी को अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण लोकसभा चुनाव में भावनात्मक मुद्दे के रूप में निश्चित रूप से लाभ पहुंचा रहा है. राजगढ़ में कांग्रेस प्रत्याशी स्वयं राम मंदिर के लिए जमीन खरीदी को लेकर भाजपा सरकार पर सवाल खड़े कर रहे हैं. जिस मुद्दे पर कांग्रेस को बिल्कुल चुप्पी साध लेना चाहिए उस राम मंदिर पर किसी न किसी तरह के आरोप लगाकर कांग्रेस अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मार रही है.
पद-प्रतिष्ठा, धन-वैभव, संपत्ति की लंका बनाने में कुकर्मों का होश ही नहीं रहता. जब यह लंका जलने लगती है तब कर्मों का स्मरण आता है. बिना खुद मरे मृत्यु का एहसास कोई कर नहीं सकता है. पहले के सारे दिग्गज बिना कुछ हासिल किए हुए गुजर जाते हैं लेकिन उनका इतिहास किसी को भी सबक नहीं देता. जब खुद की लंका जलने लगती है तो कर्मभूमि को रणभूमि और तपस्याभूमि बता कर भावनात्मक जंग छेड़ी जाती है. प्रदेश में कमलनाथ का सम्मोहन खत्म हो रहा है तो नया मन मोहन अपने पांव जमाता दिखाई पड़ रहा है.