भारत की संसद विदेशी मुद्दों पर बंद हो जाती है. संसद में एक्टिंग के लिए ड्रेस बदली जाती है. संसद के गेट पर प्रदर्शन के लिए एक ड्रेस और सदन के भीतर दूसरा ड्रेस. अडानी, सोरेस दोनों मुद्दे विदेश से जुड़े हैं. दोनों मामले लीगल प्रोसेस के हैं. दोनों मुद्दों में एक जो कॉमन फैक्टर है, वह मोदी रोगी मानसिकता है..!!
दोनों तरफ लेन-देन के आरोप हैं. सियासत मोदी रोगी और सोरोस भोगी मनोरोग से घिर गई है. लोकतंत्र में विचारधारा पर द्वंद तो ज़रूरी है, लेकिन व्यक्ति रोग पर द्वंद संसद को सियासी शूटिंग का केंद्र बना बैठी है. आजकल अंदरूनी सियासत में विदेशी हस्तक्षेप और साजिशें पूरी दुनिया में दिखाई पड़ रही हैं.
दुनिया के देशों में तख्ता पलट अंदरुनी हालात के साथ ही विदेशी साजिशों का नतीजा होते हैं. यह बहुत गंभीर मामला है, कि भारत की सत्ताधारी पार्टी विपक्षी दल कांग्रेस पर यह आरोप लगा रही है, कि वह विदेशी मदद से भारत में लोकतंत्र और सरकार को अस्थिर करना चाहती है.
दोनों तरफ के प्रवक्ता एक-दूसरे को गद्दार कह रहे हैं. अमेरिकी अरबपति जॉर्ज सोरेस तो भारत के लोकतंत्र और मोदी सरकार के खिलाफ़ अपने स्टैंड को छिपाता नहीं है. विदेश में बैठे व्यक्ति के लिए भारत में जो हाथ काम कर रहे हैं, वह सबसे बड़ी चिंता की बात है.
ऑर्गेनाइज्ड क्राइम एंड करप्शन रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट ओसीसीआरपी और फॉर्मर डेमोक्रेटिक लीडर्स को सोरेस फाउंडेशन की ओर से मदद देने के आरोपों के साथ ही इसमें सोनिया गांधी और राहुल गांधी की भूमिका पर लीगल फेक्चुअल स्टेटस चाहे कांग्रेस सार्वजनिक करे या भारत सरकार सार्वजनिक करे, लेकिन इसका सार्वजनिक होना, राष्ट्र की संप्रभुता के लिए ज़रूरी है.
वैसे अडानी और सोरेस दोनों मुद्दे लीगल प्रक्रिया के मुद्दे हैं. इनमें पॉलीटिकल प्रोसेस बिल्कुल भी निर्णायक साबित नहीं होगा. इसीलिए ऐसे मुद्दे समय के साथ मर जाते हैं. वोफोर्स के साथ भी यही हुआ. वोफोर्स के आरोपों का नुकसान कांग्रेस को उठाना पड़ा. वोफोर्स के आरोपों और उसके दुष्प्रभाव का मनोरोग कांग्रेस में समाहित है. कांग्रेस ऐसा सोचती है, कि करप्शन के आरोपों से ही किसी की इमेज को डेंट किया जा सकता है.
पार्लियामेंट के गेट पर टी-शर्ट और झोलों में मोदी-अडानी भाई-भाई के नारों के साथ प्रदर्शन से कांग्रेस खुश हो सकती है, लेकिन उससे उसका गठबंधन बिखर रहा है. महाराष्ट्र में तिजोरी से एक हैं, तो सेफ हैं नारे के साथ मोदी-अडानी के फोटो के पोस्टर भी राहुल गांधी ने निकाले थे. राज्य की जनता ने ना केवल इस मुद्दे को बल्कि कांग्रेस को ही बुरी तरह से नकार दिया.
जहां तक मोदी और केंद्र सरकार का सवाल है, उन पर करप्शन का बिना प्रमाणित कोई मामला चिपकाना इतना आसान नहीं है, क्योंकि उनकी तपस्या बड़ी है और जो इतने लंबे समय की शासन व्यवस्था में भी ईमानदारी के चट्टान पर खड़ी है.
जनहित के मुद्दे हमेशा ही संसद और सियासत में दरकिनार किए जाते हैं. अनावश्यक मुद्दों पर ही सियासत चलती है. एक नकारात्मक सोच बहुत बड़े दुष्परिणाम लाती है.
खालिस्तान की सोच ने इंदिरा गांधी को मारा था और लिट्टे की सोच ने राजीव गांधी की हत्या की थी. इसमें कोई सियासी साजिश नहीं थी. यह केवल एक सोच के कारण घटित हुआ था. इससे जो सबक निकलता है, वह यह है कि सियासी सोच हमेशा पब्लिक इंटरेस्ट में होना चाहिए. इसमें पर्सनल इंटरेस्ट का कोई स्थान नहीं है.
मोदी सरकार के अब तक के इतिहास पर नजर डाली जाए तो इसके खिलाफ़ जो भी जन आंदोलन या सियासी आंदोलन खड़े किए गए, उस सब के पीछे कोई तार्किक कारण नहीं है, बल्कि इसके पीछे सियासी सोच ही दिखाई पड़ती है. सीएए का आंदोलन हो, किसानों का आंदोलन हो, चाहे दूसरे आंदोलन हों सब पर विदेशी साजिश का साया ही उभरकर सामने आया है.
हिंदू-हिंदुत्व-सनातन की राजनीति के प्रतीक के रूप में मोदी सरकार स्थापित हुई है. सरकार भले ही सर्वधर्म समभाव पर चल रही हो, लेकिन उसकी नैतिकता की ताकत हिंदुत्व में ही समाई हुई है. हिंदुत्व की राजनीतिक ताकत के प्रतीक के रूप में मोदी को मानने वाले विरोधी विचारधारा राजनीति में मोदी रोग के मनोरोग का शिकार हैं.
कश्मीर की नेत्री हिंदुत्व को बीमारी बताने का अगर बयान दे रही हैं, तो यह बात मोदी रोग ही है. अडानी में मोदी देखने वाले तो ऐसा लगता है, कि मोदी रोग से इतने ग्रसित हैं, कि राजनीतिक विक्षिप्तता की सीमा तक पहुंच गए हैं.
राज्यसभा के सभापति उपराष्ट्रपति के विरुद्ध कांग्रेस और विपक्ष की ओर से अविश्वास प्रस्ताव दिया गया है. यह जानते हुए कि संख्या बल के हिसाब से इस प्रस्ताव का कोई औचित्य नहीं है. यह भी एक तरह की विपक्ष की मोदी रोगी मानसिकता ही दिखाता है.
भारत में राजनीतिक स्तर क्या गिरता जा रहा है? सरकारों के विरोध में विपक्ष क्या संसदीय मर्यादा का उल्लंघन कर रहा है? सरकार क्या विपक्ष को संसदीय सम्मान नहीं दे रही है? साजिश में स्टेप इन करना तो आसान होता है, लेकिन इससे बाहर निकलना बहुत कठिन होता है. राजनीतिक इतिहास यही बताता है, कि गलत सोच पर जब भी कदम बढ़ाया गया है, तब उसके दुष्परिणाम बहुत ही भयानक होते हैं. यहां तक कि देश के बड़े नेताओं को अपनी जान भी गंवानी पड़ी है.
भारत ने अपने कई प्रधानमंत्री दुर्घटनाओं में गंवाए हैं. इन हत्याओं और दुर्घटनाओं के पीछे साजिश और सोच जांच में तो आए हैं, लेकिन इससे शायद सबक नहीं लिया गया है. अभी भी सियासत इसी दिशा में ऐसी ही सोच पर बढ़ती जा रही है.
सरकार को भी अब सियासी साजिशों का मुकाबला शक्ति के साथ करने का समय आ गया है.ऐसी शक्तियों को न केवल बेनकाब किया जाना चाहिए, बल्कि उन्हें सख्त से सख्त सजा देकर सींखचों के अंदर पहुंचाने की जरूरत है. जो देश विरोधी काम कर रहे हैं उन पर केवल पॉलिटिकल स्टेटमेंट से काम नहीं चल सकता.
मोदी रोगी सियासी मानसिकता का मुकाबला तो वैचारिक धरातल पर किया जा सकता है, लेकिन साजिशों का मुकाबला तो कानून और गवर्नेंस के जरिए ही हो सकता है. पूरी दुनिया में चारों तरफ युद्ध घोष है.
भारत अपनी संप्रभुता के लिए सतर्क और सक्षम है. सियासी मुकाबले के लिए संप्रभुता को खतरे में डालने के इरादों को कुचलना जरूरी है. मोदी रोगी मानसिकता की सियासी बेचैनी अब तो पब्लिक प्लेस पर भी आमतौर पर दिख रही है.
सिस्टम तो वक्त के साथ बदल जाता है, लेकिन जो सिस्टम के कारण लाइलाज बीमार हो गए हैं, उनके मन की पीड़ा शरीर पर दिखने लगी है. सोरेस भोगी सियासी मनोरोगी डेमोक्रेसी ढोंगी ही कहे जाएंगे.