एमपी में चुनाव प्रचार थम गया है. कांग्रेस की स्टार प्रचारक प्रियंका गांधी ने चुनाव प्रचार के आखिरी दिन दतिया में अपनी सभा में ज्योतिरादित्य सिंधिया को निशाने पर लिया. सभा में उन्होंने कहा कि सिंधिया ने अपने परिवार की परंपरा अच्छे से निभाई है. उन्होंने ग्वालियर चंबल के लोगों से विश्वासघात किया है. आपकी चुनी हुई सरकार को गिराकर आपको धोखा दिया है. आपकी पीठ में छुरा घोंपा. पीएम मोदी ने दुनिया भर के कायरों और गद्दारों को पार्टी में ले लिया है..!!
मध्यप्रदेश में कांग्रेस अगर विपक्षी पार्टी के रूप में चुनाव मैदान में है तो उसके जिम्मेदार सिंधिया ही हैं. अगर सिंधिया पार्टी के साथ रहे होते तो आज कांग्रेस की सरकार चुनाव मैदान में होनी चाहिए थी. कांग्रेस को सिंधिया का दर्द होना स्वाभाविक है. मध्यप्रदेश में सिंधिया एपिसोड और कांग्रेस की सरकार के पतन की चर्चाएं अब पुरानी हो गई हैं. इस चुनाव में तो भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों में इतना दलबदल हुआ है कि अगर पार्टी छोड़ने को गद्दारी कहा जाएगा तो फिर हर जिले और शहर में गद्दारों की लंबी फौज दिखाई पड़ेगी.
एमपी चुनाव में आज कड़ी टक्कर पार्टियों में दलबदल और बगावत के कारण चुनाव मैदान में उतरे निर्दलीय और तीसरे दलों के प्रत्याशियों के कारण ही है. प्रियंका गांधी कांग्रेस छोड़ने को अगर किसी नेता की गद्दारी मानती हैं तो फिर कांग्रेस से जितने बड़े-बड़े नेता निकले हैं उन सब की सूची गद्दारों की ही सूची कही जाएगी और आज कांग्रेस ऐसे ही नेताओं के साथ गठबंधन में भी है.
इसकी शुरुआत भी राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के विभाजन से शुरू होगी. कांग्रेस को विभाजित कर नई पार्टी बनाने का काम प्रियंका की दादी इंदिरा गांधी ने ही किया था चूंकि कांग्रेस ने देश में बहुत लंबे समय तक शासन किया है, इसलिए कांग्रेस छोड़ने वाले नेताओं और दूसरे दलों से कांग्रेस में शामिल होने वाले नेताओं की लंबी लिस्ट है.
देश में क्षेत्रीय राजनीति के क्षत्रप कांग्रेस से ही निकले हैं. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी कांग्रेस छोड़कर स्वयं की राजनीति को स्थापित किया है. महाराष्ट्र में शरद पवार ने भी कांग्रेस से ही निकलकर अपना राजनीतिक अस्तित्व कायम किया है. किसी भी राज्य में क्षेत्रीय राजनीति के सफल चेहरे कभी कांग्रेस के चेहरे ही हुआ करते थे. अभी हाल ही में कांग्रेस के वरिष्ठ मुस्लिम नेता गुलाम नबी आजाद भी पार्टी से बाहर गए हैं.
मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस के बड़े नेता अर्जुन सिंह ने कांग्रेस छोड़कर तिवारी कांग्रेस बनाई थी. भले ही बाद में उनकी पार्टी का कांग्रेस में विलय हो गया था. ज्योतिरादित्य सिंधिया कोई पहले नेता नहीं है जो किसी पार्टी को छोड़कर दूसरी पार्टी में शामिल हुए हैं. दलबदल का कानून ही राजीव गांधी की सरकार में इसीलिए लाया गया था कि उसे दौर में दलबदल एक राजनीतिक प्रेक्टिस बन गई थी.
अगर केवल मध्यप्रदेश की बात की जाए तो इस चुनाव में भाजपा छोड़कर कांग्रेस में ज्यादा नेता शामिल हुए हैं. कांग्रेस के सीएम फेस कमलनाथ इसे अपनी उपलब्धि बताते हुए साक्षात्कार में यह कहते हैं कि यह इस बात का प्रमाण है कि प्रदेश में माहौल कांग्रेस के पक्ष में है. यदि किसी पार्टी को छोड़ना गद्दारी है तो उन्हें दूसरी पार्टी द्वारा शामिल करना भी गद्दारी को ही प्रोत्साहित करना है. इस चुनाव में कांग्रेस ने मध्यप्रदेश में ऐसी गद्दारी को सबसे ज्यादा गले लगाया है.
सियासत में आजकल गद्दारी को सत्ता की यारी का सबसे सफल तरीका माना जाने लगा है. विचारधारा और पार्टियां गौड़ हो गई हैं. कांग्रेस ने जब महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ मिलकर बेमेल गठबंधन की सरकार बनाई थी तब उन्हें सियासी गद्दारी का एहसास नहीं था लेकिन जब विचारधारा के कारण शिवसेना में बगावत हुई और कांग्रेस गठबंधन की सरकार का पतन हुआ तब उन्हें सियासी गद्दारी का एहसास हुआ राजनीति में इसी तरीके की सोच और चिंतन पार्टियों की विचारधारा और संगठन को कमजोर कर रहे हैं.
प्रियंका गांधी द्वारा ज्योतिरादित्य सिंधिया के सियासी दलबदल को उनके परिवार की गद्दारी के साथ जोड़ना भी राजनीतिक समझदारी नहीं कही जाएगी. गांधी परिवार के साथ सिंधिया परिवार के निजी-रिश्ते हमेशा से बेहतर रहे हैं. कांग्रेस आज जिस दौर से गुजर रही है उसमें सत्ता के लिए किसी को भी गले लगाने की रणनीति आगे बढ़ाई जा रही है. बीजेपी से मुकाबले के लिए राष्ट्रीय स्तर पर जिस गठबंधन को आकार देने में कांग्रेस लगी है उसमें सारे नेता एक दूसरे के विरोधी हैं. खास करके कांग्रेस का विरोध कर ही अपना राजनीतिक वजूद बनाने वाले नेताओं के साथ भी कांग्रेस गठबंधन में खड़ी दिखाई पड़ रही है. सत्ता के लिए वैचारिक आधार को तिलांजलि देकर सत्ता की राजनीति के लिए बेमेल गठबंधन बनाना भी लोकतंत्र के साथ गद्दारी का ही एक स्वरूप है.
प्रियंका गांधी एमपी चुनाव में पहले भी सभाएं कर चुकी हैं लेकिन उन्होंने सिंधिया को सीधे निशाने पर कभी नहीं लिया। यहाँ तक की ग्वालियर की जनसभा में भी प्रियंका ने सिंधिया के खिलाफ कुछ भी नहीं कहा था. एमपी में इस बार का चुनाव दोनों पार्टियों के बागियों के परफॉर्मेंस के बीच से ही निकलेगा. पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र और आंतरिक समस्याओं के निदान की व्यवस्थाएं समाप्त हो गई हैं. प्रियंका गांधी या किसी भी अन्य नेता को पार्टी छोड़ने वाले दूसरे नेता को गद्दार कहने से ज्यादा इस बात पर मंथन की जरूरत है कि गद्दारी की परिस्थितियां किन कारणों से निर्मित होती हैं?
जहाँ तक सिधिया का सवाल है अगर कांग्रेस संगठन सजग होता तो क्या ऐसे हालात बन पाते? जब ऐसे हालात बनते दिखाई पड़ रहे थे तो उन समस्याओं के समाधान के लिए प्रियंका गांधी और आलाकमान ने हस्तक्षेप क्यों नहीं किया? सत्ता का नुकसान हो गया तो गद्दारी समझ आ रही है और दूसरी पार्टियों से आने वाले नेताओं को लेकर अगर सरकार की सवारी मिल जाए तो फिर वही गद्दारी क्या राजनीतिक सक्सेस मानी जायेगी?
मतलब खुद की पार्टी से जाने वाला नेता गद्दार और दूसरी पार्टी से आने वाला नेता सबसे समझदार, क्योंकि उसने सत्ता का सुख दिलाने में भूमिका अदा की है. ऐसी सोच और दोहरापन लोकतंत्र का सबसे बड़ा पाखंड बन गया है. भारत का परिपक्व होता लोकतंत्र निश्चित रूप से ऐसे पाखंड को खत्म करेगा. भले ही इसमें समय लगे.