संसद में एक देश एक चुनाव का ऐतिहासिक बिल पेश कर दिया गया है. भले ही अच्छी नियत से अच्छे भाव से सुधार का यह बिल पेश किया गया हो, लेकिन इसे मोदी सरकार ने पेश किया है, इसलिए गुण-दोष की परवाह के बिना इसका विरोध कुछ दलों का फंडामेंटल राइट बन गया है..!!
इस ऐतिहासिक बिल के साथ भी ऐसी ही शुरुआत हुई है. सरकार ने स्वयं इस बिल पर व्यापक चर्चा के लिए, संयुक्त संसदीय समिति को भेज दिया है. संसदीय समिति इस पर सभी पक्षों से विचार विमर्श करेगी. इसमें सभी दलों के सदस्य होंगे.
राज्यों से भी परामर्श किया जाएगा. संसदीय समिति की रिपोर्ट के बाद फिर से केंद्रीय कैबिनेट उस पर विचार करेगी, फिर संसद में यह बिल विचार के लिए प्रस्तुत किया जाएगा.यह प्रक्रिया पूरी होने के बाद चुनाव सुधार के इस नवाचार पर संसद की मुहर लगेगी.
संसद की सदस्य संख्या संविधान संशोधन विधेयकों को पारित करने के लिए किसी भी दल के पास पर्याप्त नहीं है. यह विधेयक इसी स्थिति में पारित हो सकता है, जब दलों और गठबंधनों से ऊपर उठकर नेशन और लोकतंत्र के भाग्य के लिए शुभ भाव से कदम बढ़ाया जाएगा.
सुधार सतत प्रक्रिया है. सुधार स्वभाव है. मोदी सरकार ने अपने हर कार्यकाल में इसी स्वभाव का परिचय दिया है. वन नेशन वन टैक्स लागू हो चुका है. वन नेशन वन इलेक्शन के बाद देश में चुनाव सुधार के लिए अभियान चलाने की जरूरत है.
इसके अंतर्गत जन प्रतिनिधि कानून में सुधार, चुनाव में काले धन पर रोक राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण पर रोक, दल बदल कानून में सुधार, मुफ्त खोरी की प्रवृत्ति पर रोक और चुनावी वादों की सार्थकता पर सुधार के कदम उठाने की जरूरत है. लोगों में राजनीतिक जागरुकता और राजनीतिक दलों में जवाबदेही सुनिश्चित किए बिना जीवंत लोकतंत्र स्थापित नहीं हो सकेगा.
एक देश एक चुनाव का बिल जेपीसी में व्यापक बहस के लिए भेज दिया गया है. सभी दलों को खुले मन से दलीय और क्षेत्रीय भावनाओं से ऊपर उठकर दल से ऊपर देश की भावना से चुनाव सुधार की इस पहल पर मंथन की जरूरत है. नया संसद भवन चुनाव सुधार का नया प्रतिमान स्थापित कर पाया, तो यह देश के लिए स्वतंत्रता जैसी नई सुबह होगी.
संसद में यह बिल पेश करते समय एनडीए की ओर से समर्थन तो कांग्रेस और उसके गठबंधन के सहयोगियों की ओर से विरोध दलीय और गठबंधन की सीमाओं में ही दिखाई पड़ रहा था. लोकतंत्र को लेकर कोई प्रगतिशील सोच विधेयक पेश करते समय तो नहीं दिखा.
एक देश एक चुनाव के पक्ष में और विरोध में तमाम तर्क दिए जा रहे हैं. लंबे समय से इस पर विचार विमर्श चल रहा था. इस मसले पर चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग और संविधान समीक्षा आयोग विचार कर चुके हैं. इस बिल पर राजनीतिक दलों में आम राय अगर बन सके तो यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत होगा.
स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की आधारशिला हैं. लोकसभा और राज्यों के चुनाव पूरे पांच साल बीच-बीच में चलते रहते हैं. इसके कारण देश हमेशा चुनावी मोड में रहता है. इससे न केवल प्रशासनिक और नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं, बल्कि देश के खजाने पर भी बोझ पड़ता है.
एक देश एक चुनाव कोई अनूठा प्रयोग नहीं है, क्योंकि आजादी के बाद 1967 तक लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाए जाते थे. बीच में यह क्रम टूट गया. एक देश एक चुनाव कराना तो संभव है.
एक देश एक चुनाव से जहां आचार संहिता के कारण लगातार विकास कार्य प्रभावित नहीं होंगे. वहीं चुनाव प्रक्रिया में लगने वाले भारी भरकम खर्च की भी बचत होगी.
एक साथ चुनाव होंगे, तो निश्चित रूप से चुनाव में काले धन और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने में मदद मिलेगी. चुनाव प्रक्रिया में लगने वाले सरकारी कर्मचारी और सुरक्षा बलों के समय में भी बचत होगी और इससे प्रशासन की सामान्य प्रक्रिया बिना बाधा के चलती रहेगी.
एक देश एक चुनाव के विरोधी इसे संघीय ढांचे के ख़िलाफ़ और राज्यों की स्वायत्तता के विरुद्ध बताते हैं. एक देश एक चुनाव की प्रक्रिया में निश्चित रूप से विधानसभाओं का कार्यकाल कम या अधिक हो सकता है.
कार्यकाल में कमी या अधिकता को एक देश एक चुनाव के विरोधी राज्यों के अधिकार का हनन मानते हैं. इसके विरोधी इसे संसदीय लोकतंत्र के लिए घातक कदम मानते हैं.
एक देश एक चुनाव की प्रक्रिया के विरोधी यह भी कहते हैं, कि राष्ट्रीय चुनाव, राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं और राज्यों के चुनाव क्षेत्रीय मुद्दों पर होते हैं. जब चुनाव एक साथ होंगे, तब मुद्दों की राष्ट्रीय धारा ही प्रभावी रहेगी और क्षेत्रीय मुद्दों को नजरअंदाज किया जाएगा. यह एक तरह से देश में मुद्दों की तानाशाही स्थापित करने का प्रयास होगा, जो लोकतंत्र की आत्मा को लहूलुहान कर देगा.
एक देश एक चुनाव के लिए संविधान के संशोधन के जो विधेयक सदन में पेश किए गए हैं, उससे संघीय ढांचा और राज्य की स्वायत्तता कैसे प्रभावित होगी. यह बात समझ के परे है.
इन संशोधनों के जरिए केवल यही प्रयास किया जा रहा है, कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ संपन्न कराए जाएं. पंचायत, नगरीय निकाय के चुनाव भी इससे जोड़कर कराए जा सकते हैं.
एक देश एक चुनाव से विकास का अवरोध अगर रुक सकता है, हमेशा देश में चुनावी मौसम अगर रोका जा सकता है, तो इससे जनहित को ही फायदा होगा.
राजनीतिक दलों में टकराहट का जो लेवल है, उसको देखकर तो ऐसा नहीं लगता है, कि एक देश एक चुनाव पर कोई राजनीतिक आम सहमति बन पाएगी. बिना आम राय के इस ऐतिहासिक प्रावधान को लागू करना भी कठिन ही दिख रहा है. मोदी सरकार को अपनी ऐतिहासिक पहल को लागू करने के लिए उदारता पूर्वक राजनीतिक दलों को सहमत कराना होगा.
चुनाव सुधार की प्रक्रिया को कई राजनीतिक दल अपने विरोध में मानते हैं. एक देश एक चुनाव पर ही जब इस तरह की बाधा दौड़ चलेगी, तो फिर चुनाव सुधार के बाकी प्रयासों पर तो कोई पहल ही संभव नहीं हो सकेगी.
राजनीतिक दल जिस तरह से अपने वेतन भत्तों के लिए विधेयक पारित करने में आम सहमति बना लेते हैं, वैसे ही चुनाव सुधार के प्रयासों के लिए भी आम सहमति बनानी होगी.
सुधार तो जीवंतता का प्रतीक है. सुधार तो होकर रहेगा, भले ही वक्त कितना भी बर्बाद हो. देश में जब-जब सुधार का कोई कदम उठाया गया है, तब-तब विरोध हुआ है, लेकिन देश के लोगों ने इसका भरपूर समर्थन भी किया है. एक देश एक चुनाव भी जन समर्थन का इतिहास रचेगा. इस इतिहास में आम सहमति का ओंकार सदन के सदस्यों का गौरव बढ़ाएगा.