आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने समाजशास्त्र के हवाले से घटती जनसंख्या पर चिंता व्यक्त करते हुए कम से कम तीन बच्चों के संतति नियमन की नसीहत दी है. उनका विचार हम दो हमारे दो से अलग है..!!
भारत में प्रभावशील जनसंख्या नीति में प्रजनन दर 2.1 से नीचे रहने की सीमा है. मोहन भागवत कहते हैं, कि किसी भी समाज की जनसंख्या दर 2.1 से नीचे रहेगी तो वह समाज और सभ्यता कालांतर में नष्ट हो जाएगी. उसको कोई मारेगा नहीं बल्कि अपने आप ही वह समाप्त हो जाएगी.
ऐसे ही कारणों से कई समाज व्यवस्था, संस्कृति, सभ्यता, भाषा नष्ट हो गई हैं. मोहन भागवत चिंतक, विचारक और मार्गदृष्टा की भूमिका में अपने विचार रखते रहे हैं. यह अलग बात है, कि उनकी सोच को हिंदू अस्मिता और हिंदू समाज से जोड़कर ही देखा जाता है. जनसंख्या के मामले में भी ऐसा ही माना जा रहा है. इसीलिए इस पर विवाद भी खड़े हो रहे हैं.
जनसंख्या का ही डर है और जनसंख्या का ही समर है. जनसंख्या का बहुमत निर्णायक होता है. बुद्धि और विवेक का बहुमत जनसंख्या का मुकाबला नहीं कर पाता है. भीड़ का मुकाबला भीड़ है और बुद्धि का मुकाबला बुद्धि है.
धर्म के आधार पर विभाजन के बाद ही भारत का स्वरूप बना है. जनसंख्या में असंतुलन के कारण फिर इस स्वरूप को ख़तरा दूरदृष्टि में दिखने लगा है. जनसंख्या घटे या बढ़े पृथ्वी घटती-बढ़ती नहीं है. बढ़ती जनसंख्या का भार पृथ्वी पर दरिद्रता बढ़ाता है. भाषा, संस्कृति, सभ्यता, मानवता के भीतर है. जनसंख्या का विस्फोट मानवता को ही ख़तरा पैदा कर रहा है.
भारत ने जबरन नसबंदी का भी दौर देखा है. अभी भी देश में फ्री अनाज और नगद सहायता की योजनाओं से बहुमत जुगाड़ा जा रहा है. इसका यही संकेत है, कि भारत में बहुतायत दरिद्रता का ही है. जनसंख्या सियासत का टारगेट ग्रुप है.
मोहन भागवत का बयान पूरी तरह से गलत भी नहीं कहा जा सकता. जनसंख्या में कमी किसी समाज का अल्पसंख्यक स्वरूप उसके अस्तित्व को नष्ट कर देता है. कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के साथ जो कुछ हुआ, उससे बड़ा इसका उदाहरण नहीं हो सकता. बांग्लादेश में जो हो रहा है, वह भी जनसंख्या के आतंक का ही उदाहरण है.
भारत की सभ्यता और संस्कृति हिंदू और सनातन संस्कृति है. मोहन भागवत की दूरदृष्टि अगर इस पर ख़तरा देख रही है और उसका कारण जनसंख्या में कमी को मान रहे हैं, तो यह उनके अनुभव की ही समझ होगी. भारत में नए पाकिस्तान, भारत में नए अफगानिस्तान के नजारे भले ही छुटपुट देखे जाते हैं, लेकिन इनके बीज तो विद्यमान हैं ही.
हिंदुओं और मुसलमानों की आबादी में वृद्धि दर में अंतर कई स्थानों पर डेमोग्राफी को बदल चुका है. भारत में कई ऐसे चुनाव क्षेत्र हैं, जहां सनातन धर्मी का चुनाव जीतना असंभव है, क्योंकि वहां की डेमोग्रेफी ऐसी हो गई है, कि वहां सनातन विचारधारा पराजित ही हो जाएगी.
जनसंख्या में कमी के कारण संस्कृति और सभ्यता के नष्ट होने के इससे बड़े उदाहरण क्या हो सकते हैं. आबादी घटने का कारण युवाओं में अरुचि को माना जा सकता है. विवाह की संस्था ही प्रभावित हो रही है. लिविंग और ना मालूम किन-किन तरीकों से स्वच्छंद जीवन-यापन समाज में बढ़ता जा रहा है.
बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण बुजुर्गों की संख्या बढ़ रही है. जनसंख्या दर का कम होना और बुजुर्गों की संख्या बढ़ना किसी भी देश को बूढ़े देश की ओर धकेलते हैं. ऐसे हालात देश के लिए घातक ही कहे जाएंगे.
भारतीय संस्कृति में मातृ-पितृ ऋण को सबसे बड़ा धर्म और सबसे बड़ा ऋण माना गया है. ऐसा माना जाता है, कि जिसने भी इस ऋण को नहीं चुकाया उसका जीवन सार्थक नहीं कहा जाएगा. माता-पिता ने अपने पूर्वजों का ऋण चुकाया तो आप जगत में आए हैं. जो भी इस जगत में आया है, उसका धर्म बनता है, कि वह संतति बढ़ाकर माता-पिता का ऋण चुकाए.
अगर इस संस्कृति को हर व्यक्ति अपने जीवन आचरण में लाए तो फिर ना जनसंख्या का असंतुलन होगा, ना अचानक जनसंख्या में कमी आएगी और ना ही आयु वर्ग में असंतुलन आएगा. देश युवा भी रहेगा, बुजुर्गों का भी सम्मान रहेगा और संस्कृति और सभ्यता भी सुरक्षित विकसित होती रहेगी.
संतति नियमन किसी एक समाज के लिए नहीं बल्कि हर समाज के लिए जरूरी है. किसी भी समाज को अनियंत्रित बच्चे पैदा करने के लिए छूट नहीं दी जा सकती. जनसंख्या नीति ऐसी होना चाहिए, जो सभ्यता संस्कृति से ज्यादा देश की जरूरत हो.
अगर एक समाज में जनसंख्या की वृद्धि दर कम होगी और दूसरे समुदाय में ज्यादा होगी तो यह असंतुलन सभ्यता और संस्कृति को निश्चित रूप से प्रभावित करेगा. यह केवल एक विचार नहीं है, बल्कि ऐसे अनुभव हमारे सामने है, जहां जनसंख्या के बलबूते सभ्यता को नष्ट किया गया.
बांग्लादेश में आज जो हो रहा है, वह हिंदू संस्कृति को वहां समाप्त करने की साजिश है. अगर हिंदुओं की जनसंख्या पर्याप्त संख्या में यहां होती, तो फिर ऐसे हालात पैदा नहीं हो सकते थे.
जनसंख्या पर मोहन भागवत के मार्ग पर चलने के लिए सरकार को जनसंख्या नीति में बदलाव करना होगा. हम दो हमारे दो की नीति को बदलना होगा. ऐसी नीति बनाना होगा जिसमें सभी संस्कृति और सभ्यता को एक समान रूप से संतति नियमन का पालन करना पड़े. संतति नियमन के अलावा घुसपैठ और धर्मांतरण भी जनसंख्या की डेमोग्रेफी को बदलता है.
सियासत, संस्कृति-सभ्यता पर नहीं जनसंख्या की बहुमत पर टिकी होती है. बहुमत की कट्टरता अक्सर अल्पसंख्यक सोच का नतीजा होती है, जो कम होते हैं, वह ज्यादा एकजुट होकर एक तरफा कदम उठाते हैं.
संतति नियमन का स्वरूप ऐसा निर्धारित होना चाहिए, कि जहां संस्कृति और सभ्यता भी बची रहे. हर क्षेत्र की डेमोग्राफी भी सुरक्षित रहे. युवा और बुजुर्गों का भी संतुलन रहे. बुद्धि-विवेक,धन-संपत्ति और समृद्धि भी संतति नियमन से जोड़ी जाए. जनसंख्या की महाभारत और रामायण से जीवन में ना गुजरना पड़े, इसलिए जरूरी है, कि परिवार का सम्मान हो, विस्तार हो और सुधार हो. जनसंख्या के साथ ही मानवता और सभ्यता की दर और स्तर भी सुधरता रहे.