पहले कम सुनने की समस्या दिखायी देती है और कालांतर समस्या बहरेपन में तब्दील हो जाती है, दरअसल, कानों पर तकनीकी शोर का इतना अधिक दबाव बढ़ गया है कि बच्चे अपनी सुनने की प्राकृतिक क्षमता खोने लगे हैं, जो एक आसन्न गंभीर संकट को ही दर्शाता है..!!
अब इस अक्सर होने वाली आशंकाके परिणाम भी समाने आने लगे है कि लगातार कानों पर मोबाइल व ईयरफोन लगाने का बच्चों की श्रवण शक्ति पर नकारात्मक असर पड़ रहा है। अब हाल में हुए अध्ययन ने इसकी पुष्टि की है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय भी इस खतरे की पुष्टि कर रहे हैं। इसीलिए अभिभावकों को चेताया गया है कि बहुत अधिक स्क्रीन टाइम और गैजेट्स की तेज ध्वनि से बच्चों की रक्षा करें।
डब्ल्यूएचओ की दक्षिण पूर्व एशिया की निदेशक साइमा वाजेद ने कहा है कि दुनिया में 1.40 अरब लोग इस संकट से प्रभावित हुए हैं। जिसमें 40 करोड़ लोग दक्षिण पूर्व एशिया में बधिरता से ग्रस्त हो रहे हैं। एक अध्ययन के अनुसार वर्ष 2050 तक 1.6 अरब लोग बधिरता से प्रभावित हो सकते हैं। जिनमें अधिकांश लोग मध्यम व कम आय वर्ग के होंगे। यूं तो साठ साल के बाद सुनने की क्षमता प्राकृतिक रूप से कम हो जाती है, लेकिन हाल के वर्षों में लगातार कानों में ईयरफोन आदि लगाने से यह संकट बच्चों में बढ़ता जा रहा है। खासकर वे बच्चे जो लगातार लेपटॉप व मोबाइल पर गेमिंग व अन्य कार्यक्रम तेज आवाज में घंटों सुनते रहते हैं।
पहले कम सुनने की समस्या दिखायी देती है और कालांतर समस्या बहरेपन में तब्दील हो जाती है। दरअसल, कानों पर तकनीकी शोर का इतना अधिक दबाव बढ़ गया है कि बच्चे अपनी सुनने की प्राकृतिक क्षमता खोने लगे हैं। जो एक आसन्न गंभीर संकट को ही दर्शाता है।
सबसे बड़ा संकट यह है कि आज मोबाइल फोन एक आवश्यक बुराई बन चुका है। आज नई पीढ़ी इस संबंध में मां-बाप की नसीहत पर ध्यान कम ही देती है। ऐसे में स्कूल-कालेजों में शिक्षकों व सामाजिक अभियानों से जुड़े लोगों को जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है। विभिन्न सूचना माध्यमों और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों से बच्चों को जागरूक करने के लिये मुहिम चलाने का कुछ लाभ जरूर मिल सकता है। प्रयास किया जाए कि न टाले जा सकने वाले कार्यक्रमों को कम आवाज के साथ सुना जाए। लेकिन विडंबना यह है कि हरदम कानों पर मोबाइल व ईयरफोन तथा बड्स आदि लगाना स्टेटस सिंबल बन गया।
व्यक्ति खुद व्यस्त होने का दिखावा करता रहता है। विडंबना यह है कि जीवनशैली में आए बदलावों तथा शिक्षा कार्यों के लिये ऑनलाइन रहने की दलील देकर बच्चे भी मोबाइल-लेपटॉप आदि से चिपके रहने का बहाना ढूंढ ही लेते हैं। तेज आवाज का संगीत व कंसर्ट बच्चों को लुभाते हैं। ऐसे में अभिभावक बच्चों को इस संकट की भयावहता से अवगत कराएं तथा समय-समय पर उनके कानों का चेकअप कराते रहें। कोशिश हो रचनात्मक तरीके से उनकी इस आदत को बदलने का प्रयास किया जाए।
वैसे भी महानगरों व भीड़भाड़ वाले इलाकों में ध्वनि प्रदूषण लगातार बढ़ता जा रहा है। जिसके खतरों को लेकर समाज में जागरूकता के प्रचार-प्रसार की सख्त जरूरत होती है। बच्चों को लेकर अभिभावकों व शिक्षकों की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है, क्योंकि उनके लंबे जीवन पर बहरेपन का संकट मंडराने का खतरा बढ़ता ही जा रहा है।