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यंत्रवत सियासत मनोभावों पर आघात 

सार

राहुल गांधी मुंबई की धारावी बस्ती के चमड़ा बाजार में जाकर चमड़ा सिलने की मशीन पर बैठ जाते हैं. चमड़े का बैग सिलने का प्रयास करने लगते हैं. राहुल गांधी ने अपना पूरा व्यक्तित्व यंत्रवत बना लिया है. पूरी पर्सनालिटी फॉल्स नेरेटिव पर खड़ी हो गई है. इसीलिए शायद वह राजनीति से खुश भी दिखाई नहीं पड़ते..!! 

janmat

विस्तार

    हमेशा एंग्री यंग मैन की इमेज बनाएं रखने के पीछे भी कांग्रेस का कोई टूलकिट काम करता रहता है. राहुल का दिल क्या चाहता है, यह ना कांग्रेस जानती है, ना उनका परिवार जानता है, ना ही जानने की कोशिश करता है. उनके दिल को भूलकर एक सियासी टूल के रूप में राहुल उपयोग हो रहे हैं. कांग्रेस पार्टी के लिए भी वे एक टूल हैं और दुर्भाग्य से विपक्षी दलों के लिए भी टूल के रूप में ही उनका उपयोग हो रहा है.

    राहुल गांधी हमेशा हर माह दो माह के भीतर कहीं ना कहीं ऐसी जगह चले जाते हैं, जो ख़बर बन जाती है. कभी वह किसानों के बीच चले जाते हैं, कभी कुलियों के पास चले जाते हैं, कभी मैकेनिक बन जाते हैं, कभी श्रमिक बनकर पुताई करने लगते हैं, यहां तक कि कभी-कभी कुक बनकर भी अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करते हैं. 

     ईश्वर ने हर व्यक्ति को जीवन का एक स्वभाव दिया है. जीवन का एक रस दिया है. अपने रस के मुताबिक  व्यक्ति अपनी पर्सनालिटी विकसित करता है. पूरा जीवन उस पर चलता है. कई लोगों के साथ ऐसा दुर्भाग्य होता है, कि उन्हें उनकी डेस्टिनी नहीं मिलती. वह अपना जीवन सहज भाव से जी नहीं सकते. उनका मन कई प्रकार के भय से ग्रसित होता है, जो मनो चिकित्सक मनों का अध्ययन करते हैं, वह यह जानकर हैरान हो जाते हैं, कि ऐसी भी पर्सनालिटी हैं, जो एक साथ कई तरह का जीवन जीना चाहते हैं.

   वह किसान भी बनना चाहते हैं, मैकेनिक भी बनना चाहते हैं, कुली भी बनना चाहते हैं, कुक भी बनना चाहते हैं, पॉलीटिशियन तो वह हैं ही. ऐसी बंटी हुई और फॉल्स पर्सनालिटी कभी भी अपने जीवन के स्वभाव जीवन के रस का आनंद नहीं ले पाते. 

    मशीन पर चमड़े के बैग की सिलाई करना कोई आसान काम नहीं है. अगर यह इतना ही आसान होता, तो इसके लिए किसी प्रशिक्षण किसी कौशल की जरूरत नहीं होती. अभिनय के लिए तो ऐसे प्रयासों को स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन जो वास्तविक जीवन में अनुभव लेने के नाम पर वर्षों से अनुभव और कौशल कमाने वालों की बराबरी करने की कोशिश करता है, उस पर्सनालिटी के बारे में यही कहा जा सकता है, कि वह अपने दिल के अनुरूप काम नहीं कर रहा है, बल्कि उसे कई तरह की चीजें करने के लिए मजबूर किया जाता है.

    राहुल गांधी की पर्सनालिटी का सबसे बड़ा बोझ और सबसे बड़ा भय उनकी पारिवारिक विरासत है. पहले भी इस परिवार की इंदिरा गांधी और राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने हैं. उन लोगों ने भी ऐसे ही समूहों के बीच में जाकर सियासत करने का काम किया था. उसी पैटर्न पर राहुल गांधी का भी पार्टी उपयोग कर रही है. यह कोई मान सकता है, कि राहुल गांधी दिल से यह करते होंगे कि उन्हें चमड़े के बैग की सिलाई करने का प्रशिक्षण लेना है, सीखना है, तो इसके लिए समुचित समय देना पड़ेगा.जो गरीब श्रमिक वर्षों मेहनत कर अपनी परंपरागत स्किल का उपयोग कर यह काम कर रहे हैं. उनकी मशीन पर बैठकर राष्ट्रव्यापी प्रचार पाने  का फॉल्स नेरेटिव गढ़ना पॉलिटिक्स ही नहीं है, बल्कि इस प्रोफेशन की स्किल का असम्मान है. 

    राहुल गांधी के जीवन में जिस तरह की निजी घटनाएं हुईं हैं, वह निश्चित रूप से भय पैदा करने वाली हैं. प्राइम मिनिस्टर पिता के निधन के बाद उन्हें राजनीति में आना पड़ा. राजीव गांधी भी अप्रत्याशित रूप से अपनी मां इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजनीति में आए थे. राजीव गांधी का रस प्लेन चलाने में था. प्रधानमंत्री के बेटे होने के बाद भी उन्होंने स्वाभाविक रस वाला प्रोफेशन चुना और आनंद के साथ जीवन जीते देखे गए थे. उन्होंने कभी नहीं सोचा होगा कि उन्हें राजनीति में आना पड़ेगा. परिस्थितियों के कारण उन्हें आना पड़ा. ऐसे ही हालात राहुल गांधी के साथ भी रहे हैं. उनके जीवन का स्वाभाविक रस किस प्रोफेशन में था उसे शायद समझा ही नहीं गया.

    वह स्वयं कई बार कह चुके हैं, कि राजनीति जहर है. इसका मतलब है कि दिल से राजनीति उनका रस नहीं है. या तो उनके स्वाभाविक रस को परिवार ने महसूस नहीं किया, समझा नहीं, या मजबूरी में राजनीति में डाल दिया गया. कांग्रेस पार्टी सत्ता हासिल करने के लिए सियासत करती है. जब पार्टी को लगा कि गांधी परिवार का चेहरा राहुल गांधी उन्हें सत्ता दिलाने में मददगार हो सकते हैं, तो फिर टूल के रूप में उपयोग चालू हो गया.

    यह उपयोग ऐसे होता गया, कि अब राहुल गांधी अपनी ओरिजिनल पर्सनालिटी ही खो चुके हैं. अब उनकी पूरी लाइफ फॉल्स  पॉलिटिकल नेरेटिव गढ़ने में बीत रही है.  यह नेरेटिव भी उनके दिल का नहीं लगता बल्कि इसके लिए उन्हें मजबूर किया जाता है.

    शायद यही कारण है, कि राहुल गांधी जो भी बातें करते हैं, राजनीति में जो भी आरोप लगाते हैं, वह सब यंत्रवत होते हैं. उनमें न कोई नैतिक बल होता है, ना कोई फेक्चुअल बल होता है, अगर यह कहा जाए कि राहुल गांधी को पार्टी ने एक पॉलीटिकल सक्सेस मशीन के रूप में उपयोग करना चालू कर दिया है, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी.

    जिस धारावी बस्ती में जाकर सिलाई मशीन पर चमड़े का बैग सिलने का प्रचार हासिल किया है, महाराष्ट्र चुनाव के समय इसी बस्ती के टेंडर को लेकर उन्होंने जिस तरह के राजनीतिक आरोप लगाए थे, जनादेश ने तो करारा जवाब दे दिया था. अब सुप्रीम कोर्ट ने भी धारावी के पुनर्निर्माण कार्य पर रोक लगाने से इनकार कर दिया. यह टेंडर अडानी ग्रुप के पास है.

    सामान्य इंसान भी जब टूल के रूप में उपयोग होता है, तो आत्मसंतोष खो देता है. जो भय में जीता है, जो दबाव में जीता है, जो दिल को छोड़कर दिमाग से जीता है, वह अपनी डेस्टिनी के खिलाफ जीता है. राहुल गांधी दिल से जीते तो सनातन के सबसे बड़े पर्व महाकुंभ में संगम में डुबकी लगाने जरूर जाते. उनका नहीं जाना भी कांग्रेस का टूल किट है.

    सियासत में वैसे दिल का कोई काम नहीं होता. सेवा में जरूर दिल की मुख्य भूमिका होती है. प्रचार की भूख सत्ता का टूल किट हो सकता है. सियासत अगर मजबूरी है, दबाव है, भय है, तो मिल भी जाए तो आत्म संतोष नहीं मिल सकता.