एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने कहा कि देशवासियों को चिकित्सा का बुनियादी ढांचा उपलब्ध कराना राज्यों का कर्तव्य है, निर्विवाद रूप से राज्य सरकारें ऐसा करने में विफल रही हैं, इसके बावजूद कि उन्होंने बड़े अस्पतालों को जमीन आदि तमाम सुविधाएं रियायती दरों पर दी हैं, ऐसे में वे गरीब मरीजों को राहतकारी इलाज देने के लिये बड़े अस्पतालों को बाध्य कर सकती थीं..!!
इसे सिर्फ़ दुरभाग्य ही कहा जा सकता है कि आज भी देश के करोड़ों मरीज पहुंच से बाहर के महंगे इलाज के कारण गरीबी की दलदल में फंस रहे हैं। वे कथित रुप से दूसरे भगवान कहे जाने वाले शख्स ’डाक्टर‘ के आगे बेबस नजर आते हैं। खासकर बड़े आप्रेशनों व उपकरणों से लेकर महंगी दवाओं को लेकर। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने मरीजों की दुखती रग को समझते हुए केंद्र व राज्य सरकारों से निजी अस्पतालों में मरीजों का शोषण रोकने के लिये नीतिगत फैसला लेने को कहा है।
एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने कहा कि देशवासियों को चिकित्सा का बुनियादी ढांचा उपलब्ध कराना राज्यों का कर्तव्य है। निर्विवाद रूप से राज्य सरकारें ऐसा करने में विफल रही हैं। इसके बावजूद कि उन्होंने बड़े अस्पतालों को जमीन आदि तमाम सुविधाएं रियायती दरों पर दी हैं। ऐसे में वे गरीब मरीजों को राहतकारी इलाज देने के लिये बड़े अस्पतालों को बाध्य कर सकती थीं। वैसे चुनावों के दौरान तमाम तरह के सब्जबाग दिखाने वाले राजनीतिक दलों के एजेंडे में चिकित्सा सुविधा सुधार कभी प्राथमिकता नहीं रही। यदि सार्वजनिक चिकित्सा का बेहतर ढांचा उपलब्ध होता तो लोग निजी अस्पतालों में जाने को मजबूर न होते।
यदि निगरानी तंत्र मजबूत होता और प्रभावी कानून होते तो मरीजों को दोहन का शिकार न होना पड़ता। यदि मरीजों से निजी अस्पतालों में मनमानी रकम वसूली जाती है तो यह राज्य सरकारों की छवि पर आंच है कि वे मरीजों को किफायती उपचार उपलब्ध कराने में विफल रही हैं। यही वजह है कि शीर्ष अदालत को कहना पड़ा कि मरीजों को उचित मूल्य वाली दवाइयां न मिल पाना राज्य सरकारों की नाकामी को ही दर्शाता है। इतना ही नहीं राज्य सरकारें निजी अस्पतालों को न केवल सुविधाएं प्रदान करती हैं बल्कि उन्हें प्रोत्साहन भी देती हैं। सरकारों का यह दावा अतार्किक है कि मरीजों के तिमारदारों के लिये निजी अस्पताल के मेडिकल स्टोरों से दवा खरीदने की बाध्यता नहीं है।
दरअसल, अस्पताल की फार्मेसी या खास मेडिकल स्टोरों से दवाइयां खरीदना तिमारदारों की मजबूरी बन जाती है। उन्हें खास ब्रांड की दवा व उपकरण खरीदने के निर्देश होते हैं। दरअसल, खुले बाजार में उनकी उपलब्धता और गुणवत्ता को लेकर आशंका होती है। असल में, यह नीति-नियंताओं की जवाबदेही है कि वे मरीजों और उनके परिवारों को शोषण से बचाने के लिये दिशा-निर्देश तैयार करें। हालांकि, यह इतना भी आसान नहीं है क्योंकि विभिन्न हितधारकों के दबाव अकसर सामने आते हैं। जैसा कि वर्ष 2023 में राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग को उस समय कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा था जब उसने डॉक्टरों से कहा था कि वे ब्रांडेड दवाएं न लिखें। उसके स्थान पर जेनेरिक दवाएं लिखें, ऐसा न करने पर उनके विरुद्ध कार्रवाई की जाएगी।
चिकित्सा बिरादरी ने तब दबाव बनाते हुए कहा था कि दवाओं की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं किया जाना चाहिए। जिसके बाद यह आदेश जल्दी ही वापस लेना पड़ा था। इसके अलावा ब्रांडेड दवाओं के निर्माताओं ने भी दबाव बनाया था, जो कि जन-कल्याण के बजाय बड़े पैमाने पर मुनाफे को प्राथमिकता देते रहते हैं। वैसे निजी अस्पतालों द्वारा दवाओं के जरिये पैसा कमाने की वजह यह भी है कि सरकारी जन-औषधि केद्रों का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा है। ये केंद्र, जिनकी देश में संख्या पंद्रह हजार के करीब है, देश के सभी जिलों को कवर करते हैं।
ये केंद्र नागरिकों को सस्ती कीमत पर गुणवत्ता वाली जेनेरिक दवाएं उपलब्ध कराने के लिये बनाये गए थे। लेकिन, ये केंद्र दवाओं की कमी,गुणवत्ता के नियंत्रण के अभाव और ब्रांडेड दवाओं की अनधिकृत बिक्री की समस्याओं से ग्रसित रहे हैं। निश्चित रूप से औषधि विनियामक प्रणाली में सुधार करने से तमाम असहाय रोगियों की परेशानियों को कम करने में मदद मिल सकती है। एक रिपोर्ट बताती है कि सरकारी अस्पतालों की तुलना में निजी अस्पतालों का खर्च सात गुना होता है। खासकर कोरोना काल के बाद चिकित्सा खर्च में खासी बढ़ोतरी हुई है। निस्संदेह, राज्य सरकारों को इस मुद्दे पर व्यापक दृष्टिकोण से विचार कर उचित गाइडलाइंस बनानी चाहिए। निजी अस्पतालों व मरीजों के हितों के मद्देनजर राज्य सरकारों के संतुलित दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है।