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शाहबानो केस की स्मृति, कांग्रेस की मनुस्मृति

सार

संविधान की 75वीं वर्षगांठ पर संसद में बहस संसदीय क्रीड़ा बन गई है. विपक्ष के नेता राहुल गांधी संसद के भीतर एक हाथ में संविधान और एक हाथ में मनुस्मृति का प्रदर्शन कर रहे थे..!!

janmat

विस्तार

      देश के लिए यह पहला अवसर होगा जब कोई लीडर आफ अपोजिशन संविधान पर बहस की शुरुआत मनुस्मृति के साथ कर रहा है. हमारा संविधान धार्मिक शास्त्रों से ऊपर है. लेकिन कांग्रेस की स्मृतियां संविधान को धार्मिक मान्यताओं के लिए समर्पित करने का रहा है.

    शाहबानो केस की स्मृति कांग्रेस की मनुस्मृति ही कही जाएगी. संविधान पर राहुल गांधी की क्रीडा इतिहास की पीड़ा ही दिखाई पड़ती है. स्वयं को दत्तात्रेय ब्राह्मण बताने वाले राहुल गांधी ना संविधान पर गंभीर हैं और ना ही मनुस्मृति पर उनके कोई विचार हैं.

    संविधान सभी धार्मिक स्मृतियों से ऊपर है. जब संविधान बन गया तो उस पर किसी भी धर्मशास्त्र को प्रतिस्थापित करना, वहीं धार्मिक विभाजन की पुरानी राजनीति है, जो अल्पसंख्यक और बहुसंख्यकवाद के नाम पर कांग्रेस अब तक करती रही है. कांग्रेस का इतिहास सत्ता का इतिहास है. कांग्रेस ने अपनी सत्ता में 75 बार भारत का संविधान बदला है. यहां तक की इमरजेंसी जैसा काला अध्याय कांग्रेस की ही देन है. 

    संविधान में धार्मिक मान्यताओं और पर्सनल लॉ लागू करने वाली कांग्रेस सेकुलर शब्द लाकर सारे अनसेकुलर कामो को अंजाम दिया है. संविधान में समानता के प्रयासों को सेकुलर के नाम पर रोका जाता है. यूसीसी को पर्सनल लॉ के नाम पर अटकाया जाता है.

    राहुल गांधी मनुस्मृति दिखाकर देश में ‘शाहबानो स्मृति’ लागू करना चाहते हैं. उनकी जातिगत जनगणना की मांग भी उसी जात-पात और वर्ण व्यवस्था को बढ़ाकर सत्ता की सीढ़ी चढ़ने का प्रयास है, जिस स्मृतियों को भारत ने मीलों पीछे छोड़ दिया है.

    शाहबानो स्मृति से ग्रसित मानसिकता के लोग ही मनुस्मृति की बात करते हैं. भारत में संविधान लागू होने के बाद समानता, स्वतंत्रता, शोषण से स्वतंत्रता , धार्मिक स्वतंत्रता, सांस्कृतिक तथा शिक्षा संबंधी संवैधानिक अधिकारों में संविधान के अलावा किसी दूसरी स्मृति का कोई दर्शन नहीं हो सकता. अतीत, इतिहास और शास्त्रों पर सियासत एक हारी हुई मानसिकता ही होती है.

    धर्म शास्त्रों पर सियासत कांग्रेस पहले भी करती रही है. मुस्लिम महिलाओं को भरण-पोषण के लिए शाहबानो केस में जब ऐतिहासिक फैसला आया था तो उस फैसले को राजीव गांधी ने संसद में बदलकर नया कानून बनाया था.

    इसे धर्मशास्त्र की सियासत कहा जाएगा. जो राहुल गांधी और कांग्रेस अदालतों के आदेश पर भी पूजा स्थलों के इतिहास पर सर्वे का विरोध करते हैं, वहीं मनुस्मृति के इतिहास को संसद के वर्तमान का हिस्सा बनाने की कोशिश कर रहे हैं. 

    सभी धर्म के धर्म शास्त्रों में अगर कोई ऐसी बात है, जो सामाजिक दृष्टि से गलत है, मानवता की दृष्टि से अनुचित है, समानता की दृष्टि से अनुपयोगी है तो क्या ऐसे धर्म के शास्त्रों से इसे समाप्त करने के लिए कांग्रेस और राहुल साहस जुटा सकते हैं?  पर्सनल लॉ के पैरोकारों पर सवाल उठाने की हिम्मत दिखाकर क्या राहुल गांधी संविधान में समानता की मंशा को फलीभूत करने का प्रयास कर सकते हैं? 

    संसद में बहस संविधान पर हो रही है न कि, मनुस्मृति पर. मनुस्मृति में किसी भी संदर्भ पर कोई आपत्ति है तो वह उसके मानने वाले और नहीं मानने वालों के बीच हो सकती है. संसद जिनका प्रतिनिधित्व कर रही है, वह संविधान के प्रति उत्तरदायी हैं ना कि मनुस्मृति के प्रति.

    कोई भी सांसद, सदन  के भीतर मनुस्मृति दिखाकर विभिन्न समुदायों के बीच नफरत का व्यापार नहीं कर सकता. अगर कांग्रेस, बीजेपी का सियासी मुकाबला नहीं कर पा रही है, तो वह धर्म शास्त्रों का दुरुपयोग कर राजनीति के अपने मुकाम तक नहीं पहुंच सकती.

    संसदीय प्रणाली में महिलाओं का नेतृत्व लगातार मजबूत हो रहा है. नारी वंदन अधिनियम के जरिए संसद और विधानसभा में महिलाओं का आरक्षण प्रभावशील होने के बाद वीमेन लेड डेवलपमेंट की दृष्टि साफ-साफ दिखाई बढ़ेगी.

    कोई मनुस्मृति में अब ऐसा साहस है कि महिलाओं को पीछे धकेल सके. जाति, धर्म, भाषा, लिंग के आधार पर भेदभाव आज करना, क्या संभव है? कोई अपराधिक प्रवृत्ति अगर अपवाद स्वरूप ऐसी किसी घटनाओं को अंजाम देती है तो इससे ना तो संविधान प्रभावित हो सकता है और ना ही इन अपवादों से मनुस्मृति को जोड़ा जा सकता है.

    जो पीएम के घर में पैदा हुआ, जिसका पिता पीएम हो, जिसकी मां पीएम को चलाने वाली हो, उसकी पीड़ा ना तो संविधान है और ना ही मनुस्मृति बल्कि उसकी पीड़ा सत्ता की पीड़ा है. इसी पीड़ा को दूर करने के लिए संविधान की द्रुतक्रीड़ा संसद में खेली जा रही है.

    राहुल गांधी को अपनी दादी और पिता की हत्या के अपराध की पीड़ा है. उन्हें बोफोर्स की भी पीड़ा है. उनके चित्त पर जिस जिस तरह की पीड़ा घनीभूत रूप से उपलब्ध है, वही उनके आचरण में दिखाई पड़ती है.

    बोफोर्स की पीड़ा उन्हें अडानी-अंबानी को पीड़ा देने के लिए प्रेरित करती है, तो अल्पसंख्यकवाद से सत्ता तक पहुंचने के लिए मनुस्मृति का भौंडा प्रदर्शन उन्हें करना पड़ता है. परिवार की विरासत की पॉलिटिक्स पूरी दुनिया में छिन्न-भिन्न हो रही है.

    बांग्लादेश उसका सबसे बड़ा उदाहरण है. बांग्लादेश बनाने वाले नायक का परिवार दूसरे देशों में शरण ले रहा है. परिवार वाद की सियासत भारत में भले ही अभी पल-बढ़ रही है लेकिन इस पर बांग्लादेश जैसे खतरे कभी भी आ सकते हैं.

    संविधान की मनुस्मृति से तुलना करना खालिस्तान सियासी सोच है. यह ऐसा ही सोच है कि जो हमें पसंद है, वही सही है और बाकी सब गलत है. देश के कई इलाकों में नक्सलवादी अभी भी सक्रिय है, तो संविधान के नाम पर भी नक्सलवादी विचारधारा ही संविधान की तुलना, मनुस्मृति से कर सकती है.

    शाहबानो केस की स्मृतियां जिनका अतीत हो वह अपने भविष्य की तलाश में सारी स्मृतियों को जोड़ घटा रहे हैं. राहुल गांधी का दिल और दिमाग लयवद्ध नहीं दिखते. दिल, उनका है, तो दिमाग उनको ना मालूम कहां से मिल जाता है कि, वह संविधान और मनुस्मृति की तुलना करने लगते हैं. 

    धर्मशास्त्र निजी आस्था या अनास्था का विषय हो सकते हैं, लेकिन संविधान में किसी को भी अनास्था का अवसर नहीं है. राहुल गांधी को स्वतंत्रता है, वह कोई भी धर्मशास्त्र माने या नहीं लेकिन उन्हें संविधान को किसी धर्मशास्त्र जोड़ने की स्वतंत्रता नहीं है.