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संसद का संदेश, देश से जरूरी राजनीतिक विद्वेष

सार

संसद का शीतकालीन सत्र अप्रिय हालातों में स्थगित हो गया है. इस सत्र में नई न्याय संहिता का बिल पास करने का इतिहास रचा गया है तो विपक्ष के 146 सांसदों को निलंबित करने का भी रिकॉर्ड कायम किया गया है. भारतीय संसद राजनीतिक दलों के राजनीतिक नजरिये का शिकार हो गई है. यह कोई पहला सत्र नहीं है जब पक्ष और विपक्ष के बीच में टकराहट के कारण संवाद और बहस की परिस्थितियां समाप्त हुई हैं. लगभग हर सत्र में ऐसे ही हालात बनते हैं..!!

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विस्तार

शीतकालीन सत्र में विपक्षी सांसदों को निलंबित करने को विपक्षी दल राजनीतिक मुद्दा बना रहे हैं. इसके लिए देश में राष्ट्रीय स्तर पर धरना प्रदर्शन भी किया जा रहा है. संसद की सुरक्षा में सेंध की घटना पर संसद में सरकार से जवाब मांगने को लेकर शुरू हुआ विवाद उपराष्ट्रपति की मिमिक्री तक पहुंच गया. सांसदों से संविधान और संसद की मर्यादा की रक्षा की देश उम्मीद करता है लेकिन हर बार वैसी ही परिस्थितियां बन जाती हैं. सरकार विपक्ष को दोषी ठहराती है तो विपक्ष सरकार पर तानाशाही का आरोप लगाता है. सही कौन है, गलत कौन है, इसका निर्णय करना बहुत कठिन होता है लेकिन अंततः जनमत को ही लोकतांत्रिक मर्यादाओं के अवमूल्यन का नुकसान उठाना पड़ता है. राजनीतिक दल चुनावी राजनीति को संसद के भीतर भी साधने की कोशिश करते हैं.

लोकसभा में जिस तरह से कुछ युवाओं द्वारा सेंध लगाई गई है वह बहुत गंभीर मामला है. संसद चूंकि स्पीकर के नियंत्रण में होती है. इस दुर्भाग्यजनक आपराधिक घटना की जांच हो रही है. बिना जांच के किसी भी प्रकार के निष्कर्ष की सदन में चर्चा ओउच्तीय पूर्ण नहीं हो सकती है. संसद की सुरक्षा महत्वपूर्ण विषय है. विपक्ष आरोप लगा रहा है कि सरकार इस घटना पर चर्चा नहीं करना चाहती है. आगामी लोकसभा चुनाव में तीन महीने के करीब समय बचा है. सभी दल और नेता अब अपने-अपने चुनावी एजेंडे को अंतिम रूप दे रहे हैं. मोदी विरोधी राजनीतिक दल गठबंधन की राजनीति के मुहाने पर सीट शेयरिंग और दूसरे मुद्दों पर अंतरविरोधों से घिरे हुए हैं. विपक्ष अपना नेरेटिव और एजेंडा मोदी विरोध के अलावा कोई भी सकारात्मक रूप में प्रस्तुत करने में सफल नहीं हो पा रहा है.

सबसे पहले युवाओं द्वारा संसद की सुरक्षा में किए गए हमले पर चर्चा जरूरी है. विपक्ष के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी युवाओं के इस अपराध को संसद की सुरक्षा पर तो हमला मानते हैं लेकिन इसके कारण के रूप में देश में बेरोजगारी से युवाओं में फैले आक्रोश को मान रहे हैं. किसी भी देश में सभी को सरकारी रोजगार मिल जाय ऐसा तो संभव नहीं है. कई राज्यों में विपक्षी दलों की भी सरकारें हैं. वहां भी रोजगार और दूसरी समस्याएं कमोबेश एक समान हैं. अगर यह मान भी लिया जाए कि युवाओं में बेरोजगारी है, लोगों को रोजगार नहीं मिल रहे हैं, किसानों की भी समस्या है तो क्या समस्याओं के समाधान और विरोध प्रकट करने का यह तरीका हो सकता है? 

यह आपराधिक और हिंसक तरीका तो नक्सलवाद का तरीका रहा है. नक्सलवादी हमेशा यही कहते हैं कि लोगों के साथ अन्याय हो रहा है, शोषण हो रहा है, शोषण और अन्याय के खिलाफ नक्सलवाद को अपना आंदोलन स्थापित करते हैं. संसद में युवाओं के अपराधिक कृत्य को बेरोजगारी और दूसरी समस्याओं से जोड़कर किसी भी स्वरूप में उनका समर्थन करना राजनीतिक नक्सलवाद ही कहा जाएगा. 

कम्युनिस्ट विचारधारा पर केन्द्रित शासन प्रणाली के दौर में भी परिस्थितियां कमोबेश ऐसी ही थीं. बेरोजगारी की दर पहले ज्यादा थी अब तो तुलनात्मक रूप से यह कम ही बताई जा रही है. इसके बावजूद देश की बुनियादी समस्याओं के समाधान में सभी राजनीतिक दलों की भूमिका है. किसी एक राजनीतिक दल को देश की समस्याओं के लिए जिम्मेदार बताकर युवाओं को ऐसे अपराधिक विरोध और प्रदर्शन के लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहित या प्रेरित करने की राजनीतिक भूमिका राष्ट्रविरोधी ही कही जाएगी.

नरेंद्र मोदी की लीडरशिप में दक्षिणपंथी राजनीति देश में चल रही है. इसके कारण वामपंथी विचारधारा लंबे समय से मोदी विरोध पर आगे बढ़ रही है. विपक्षी दलों का गठबंधन भी इसी आधार पर खड़ा हुआ है. वैचारिक स्तर पर कांग्रेस पार्टी वामपंथी विचारधारा से ही प्रेरित दिखाई पड़ रही है. राहुल गांधी के क्रांतिकारी विचार हमेशा शासन व्यवस्था और सामाजिक परिस्थितियों को भड़काकर राजनीतिक समर्थन हासिल करने की कोशिश के रूप में ही दिखाई पड़ते हैं. 

राज्यों के विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी ने जातिगत जनगणना को सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया था. जिस जातिगत जनगणना का कांग्रेस के पूर्वजों ने हमेशा विरोध किया, उसी कांग्रेस के नेता सत्ता हासिल करने के लिए आज जातिगत जनगणना के सबसे बड़े समर्थक बन गए हैं. समाज में विभाजन की परिस्थितियां राजनीतिक दलों के लिए हमेशा मुफीद रहती हैं. विशेषकर तब जब विशेष समुदाय अपनी सामुदायिक अस्मिता को राजनीति के साथ जोड़ देता है. हक और हिस्सेदारी के नाम पर नक्सली सोच जैसी ही राजनीतिक सोच जाति और वर्ग के नाम पर विभाजन की कोशिश करती है. यही विभाजन अंततःसमाज को नुकसान पहुंचाता है.

अगर बेरोजगारी की स्थिति है, युवाओं के सामने समस्या है तो उसके समाधान के लिए प्रयास किया जाना चाहिए. ऐसे युवाओं को इस तरह की अपराधिक गतिविधियों को अंजाम देने के लिए राजनीतिक रूप से प्रेरित करने का महापाप क्यों किया जाना चाहिए? 

जहां तक विपक्षी सांसदों के निलंबन का सवाल है, यह पूरा मामला राजनीति से ज्यादा तकनीकी लगता है. सदन का संचालन नियम प्रक्रिया के अंतर्गत होता है. इन नियमों का निर्माण सांसदों द्वारा ही समय-समय पर किया जाता है. इन्हीं कार्य संचालन नियमों में यह भी प्रावधान है कि कोई भी सांसद यदि सदन के गर्भगृह में प्लेकार्ड लेकर जाएगा तो वह स्वतः ही निलंबित हो जाएगा. विपक्षी सांसदों के निलंबन में यही कारण बना है. 

यह निलंबन किसी भी राजनीतिक कारणों से नहीं है. सांसदों द्वारा बनाए गए कार्यसंचालन नियमों को खंडित करने के कारण सांसद निलंबित हुए हैं. इसलिए इस निलंबन को विपक्ष के साथ राजनीतिक कार्यवाही के बदले संसद की मर्यादा को भंग करने के रूप में देखना ज्यादा लोकतांत्रिक होगा. क्योंकि लोकसभा चुनाव करीब हैं तो बीजेपी और दूसरे दल भी अपने-अपने चुनावी एजेंडे को धार दे रहे हैं. कोई भी दल पीछे नहीं रहना चाहता.

राहुल गांधी कांग्रेस की समस्या के रूप में तो कई बार स्थापित हुए हैं लेकिन अब तो ऐसा लगता है कि विपक्षी गठबंधन के लिए भी वह समस्या साबित हो रहे हैं. उपराष्ट्रपति की मिमिक्री का मामला टीएमसी सांसद द्वारा भले ही किया गया हो लेकिन उसकी जिम्मेदारी राहुल गांधी पर ही आ गई है. यदि राहुल गांधी उस मिमिक्री का वीडियो नहीं बनाते तो शायद यह घटना सांसदों के बीच ही सीमित रहती और इस पर इतना बवाल नहीं होता. 

संवैधानिक पद पर बैठे लोगों की मर्यादा का ध्यान सांसदों द्वारा ही नहीं रखा जाएगा तो फिर संविधान की मर्यादा की रक्षा कौन करेगा? चुनावी राजनीति जैसा माहौल पांच साल क्यों होना चाहिए? चुनाव एक बार होते हैं तो सभी राजनीतिक दल अपने-अपने एजेंडे पर जनता के बीच जाते हैं. जनादेश के बाद सरकार देश के लिए काम करती है दल के लिए काम नहीं करती. यह सर्वानुमति दलों के बीच क्यों नहीं बनाई जा सकती है?

गैर जरूरी मुद्दों को राजनीतिक मुद्दे के रूप में पेश करके विपक्ष हमेशा अपना नुकसान ही करता रहा है. अगर जनहित के मुद्दों पर ही फोकस किया जाए तो कम से कम विपक्ष के जनाधार और समर्थकों को तो स्पष्ट दिशा मिलती रहेगी लेकिन हर समय अलग-अलग गैर जरुरी मुद्दे ऐसा विषय बन जाते हैं जो लगता है देश का सबसे बड़ा मुद्दा हैं. इस समय विपक्ष के लिए सांसदों का निलंबन सबसे बड़ा मुद्दा है जबकि जनता के लिए यह कोई भी मुद्दा नहीं है. सांसद नियमों का उल्लंघन करेंगे तो निलंबित होना स्वभाविक है.

लोकसभा चुनाव संपन्न होकर नई सरकार के गठन होने तक अब तो हर दिन नए-नए राजनीतिक हथकंडे देश को देखने को मिलेंगे. विपक्षी एकता मोदी विरोध के कारण भले ही आकार ले ले लेकिन देश हित के मुद्दों पर विपक्ष का नरेटिव बहुत प्रभावशाली साबित नहीं हो सकेगा. गठबंधन की राजनीति में जिस तरह की बेमेल परिस्थितियां विभिन्न राज्यों में बनी हुई हैं उनमें मोदी विरोध के कारण एकता का कोई सूत्र भले निकाल लिया जाए लेकिन जनता में इसकी स्वीकार्यता बहुत कठिन दिखाई पड़ रही है.

संविधान और संसद की मर्यादा की रक्षा सभी राजनीतिक दलों के सांसदों की जिम्मेदारी है. कम से कम संसद को तो राजनीति का अखाड़ा बनाने से बचना चाहिए. चुनावी राजनीति और संसद की कार्यपद्धति को अगर अलग-अलग नजरिए से देखा जा सके तो यह लोकतंत्र की बड़ी सेवा होगी. डेमोक्रेटिक संवाद के नाम पर पॉलिटिकल नक्सलिज्म देश हित में नहीं हो सकता. नकारात्मकता एक समय के लिए तो मददगार हो सकती है लेकिन जब तक सकारात्मक नेरेटिव स्थापित नहीं होगा तब तक केवल नकारात्मकता के आधार पर राजनीतिक उपलब्धि हासिल करना टेढ़ी खीर ही होगी.