उद्योग जगत के मुताबिक निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के खनन करने वालों को इस फैसले के पुरानी तारीख से लागू होने के कारण 1-2 लाख करोड़ रुपये की चपत लग सकती है..!!
देश के सर्वोच्च न्यायालय ने “खनिज उत्खनन की रॉयल्टी टैक्स नहीं है।“ जैसा सिद्धांत स्थापित करते हुए खनन पर कर लगाने का राज्यों का अधिकार 1 अप्रैल, 2005 की तारीख से प्रभावी कर बरकरार रखते हुए एक ओर जहां राजकोषीय संघवाद के सिद्धांतों को मजबूती प्रदान की है, वहीं दूसरी ओर उसने खनन कंपनियों पर भारी वित्तीय देनदारी भी थोपी है।
उद्योग जगत के मुताबिक निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के खनन करने वालों को इस फैसले के पुरानी तारीख से लागू होने के कारण 1-2 लाख करोड़ रुपये की चपत लग सकती है। केंद्र सरकार ने न्यायालय से कहा कि अकेले सरकारी क्षेत्र की खनन कंपनियों पर इस फैसले से करीब 70,000 करोड़ रुपये का वित्तीय भार आएगा। न्यायालय द्वारा तय अंतिम तिथि सशर्त है, मसलन कोई ब्याज या जुर्माना नहीं लगेगा और भुगतान 12 वर्षों में किया जाएगा। इससे कुछ राहत मिली है।
सर्वोच्च न्यायालय ने अतीत की तिथि से लागू करने के बारे में स्पष्टीकरण दिया है कि निर्णय को भविष्य में लागू करना उचित नहीं होगा। उसका यह तर्क दिखाता है कि उच्चतम स्तर पर भी न्यायपालिका में काम की गति कितनी धीमी है। सन 1989 में सात न्यायाधीशों के पीठ ने इंडिया सीमेंट और तमिलनाडु राज्य एवं अन्य के मामले में कहा था कि खनिज उत्खनन की रॉयल्टी टैक्स नहीं है।
उसने कहा कि केवल सीमेंट पर कर लगाया जा सकता है जबकि राज्य सरकार केवल रॉयल्टी वसूल सकती है। पांच न्यायाधीशों के पीठ ने 2004 में टाइपिंग की एक गलती की ओर इशारा करते हुए इस निर्णय को उलट दिया। उसने कहा कि रॉयल्टी कर नहीं है लेकिन रॉयल्टी पर लगने वाला उपकर (जो तमिलनाडु सरकार ने लगाया था लेकिन इंडिया सीमेंट उसका विरोध कर रही थी) है और ऐसे अतिरिक्त उपकर वसूल करना राज्यों का अधिकार है।
इसके परिणामस्वरूप कई राज्यों ने अपने-अपने यहां खनिज खनन पर ऐसे कर लगाने के अधिकार का इस्तेमाल किया। इस बीच न्यायिक चुनौतियां भी उत्पन्न हुईं। आखिर में सर्वोच्च न्यायालय ने इन सभी चुनौतियों के परीक्षण के लिए एक पीठ का गठन किया। उसने कहा कि उसके निर्णय के भावी इस्तेमाल से ऐसी स्थिति बनेगी जहां राज्यों द्वारा खनन पर लगने वाले कर के लिए बने कानून अवैध होंगे और उन पर यह दबाव बनेगा कि वे सक्षम कानून के माध्यम से कर के रूप में संग्रहित राशि को वापस करें।
वित्तीय बोझ के अलावा अतीत से प्रभावी करों का देश में एक विवादास्पद इतिहास रहा है और अतीत में उसने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को भी नुकसान पहुंचाया है। वर्ष 2007 में एस्सार टेलीकॉम द्वारा हचिंसन से वोडफोन का अधिग्रहण किए जाने के बाद वित्त अधिनियम 2012 द्वारा पूंजीगत लाभ पर अतीत से कर लगाने के मामले में 2022 में स्थायी मध्यस्थता न्यायालय ने निरस्त कर दिया था।
वर्ष 2012 के कानून के नुकसानदेह असर के चलते सरकार ने 2021 में उस कानून को ही निरस्त कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय निस्संदेह खनिज समृद्ध राज्यों की वित्तीय स्थिति को बदलेगा। दो अगस्त को झारखंड ऐसा विधेयक पारित करने वाला पहला राज्य बन गया जिसने अपनी सीमा के भीतर होने वाले खनिज-कोयला, लौह अयस्क, बॉक्साइट और मैंगनीज पर उपकर लगाया।
ओडिशा, राजस्थान और छत्तीसगढ़ इससे लाभान्वित होने वाले अन्य राज्य हैं।इस निर्णय के मुद्रास्फीतिक प्रभाव के पहलू को देखते हुए अकेले कोयले पर लगने वाला कर कीमतों में इजाफे की वजह बन सकता है। राज्यों के लिए अच्छा होगा कि वह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उन्हें दिए गए विवेकाधिकार का इस्तेमाल करें। इससे निर्णय का प्रभाव कम हो सकेगा और उन्हें लाभ होगा।