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नए समीकरणों में मोदी सरकार 3.0

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Tue , 22 Feb

सार

इसी बीच, तृणमूल कांग्रेस की तेज-तर्रार नेत्री महुआ मोइत्रा का अपने संबोधन में पैब्लो नेरूदा और पुनीत शर्मा के उदाहरणों का इस्तेमाल (तुम कौन हो बे, मुझे पूछते हो, इस देश से मेरा रिश्ता कितना गहरा है) ‘डर से निजात’ को जतलाने के मकसद से था, जिसके लिए उन्होंने जोर देकर कहा, यह अब देश में पैदा हुए नए जज़्बे का उद्घोष है..!!

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विस्तार

लोकसभा के हाल ही में सत्र में दिया राहुल गांधी का पहला भाषण, भगवानों एवं संतों का संदर्भ से ओत-प्रोत था भगवान शिव से लेकर गुरु नानक एवं जीसस क्राईस्ट तक– जिसके जरिए उन्होंने हिंदू धर्म की ‘समावेशी आत्मा’ और हालिया वर्षों में भाजपा द्वारा बरते जा रहे अधिक कट्टरता वाले हिंदुत्व के बीच अंतर को उजागर करना चाहा और संसद में इसकी जरूरत वाकई लंबे समय से थी। 

इसी बीच, तृणमूल कांग्रेस की तेज-तर्रार नेत्री महुआ मोइत्रा का अपने संबोधन में पैब्लो नेरूदा और पुनीत शर्मा के उदाहरणों का इस्तेमाल (तुम कौन हो बे, मुझे पूछते हो, इस देश से मेरा रिश्ता कितना गहरा है) ‘डर से निजात’ को जतलाने के मकसद से था, जिसके लिए उन्होंने जोर देकर कहा, यह अब देश में पैदा हुए नए जज़्बे का उद्घोष है।

 चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी ने और न ही नीतीश कुमार के जदयू ने – जिनके सहारे पर यह सरकार है,मानो उन्हें ज़रा परवाह नहीं। लगता है नायडू और नीतीश, दोनों को, भली-भांति पता है –नीतीश के गिरते स्वास्थ्य की अफवाहों के बावजूद- चोट मारने का यही सही वक्त है, जब लोहा गर्म है। अर्थात‍्, यही समय है जब केंद्र सरकार से अपने-अपने सूबे की हालत सुधारने के लिए पर्याप्त आर्थिक सहायता ले सकें, भले ही इसके लिए ‘विशेष राज्य’ का दर्जा मिले न मिले। नायडू, जिनके 16 सांसद एनडीए के लिए बहुमूल्य हैं, विशेष तौर पर उन्हें अपनी नव-अर्जित शक्ति का भान है। चूंकि वे पहले भी कई राजनीतिक दलों के साथ गठजोड़ कर चुके हैं लिहाजा दलबदलू के ठप्पे की परवाह नहीं है, बतौर मोदी का सहयोगी, उनका मंतव्य अपने लिए अधिक से अधिक फायदा पाना है। 

उनका उद्देश्य केंद्र सरकार को उनके सूबे के मुद्दों पर ‘समयबद्ध ध्यान’ देने के लिए राज्य सरकार के अफसरों के साथ एक ‘प्रभावशाली समन्वय’ तंत्र बनानाहै – इन विषयों में, प्रस्तावित नई राजधानी अमरावती के लिए रिंग रोड की मांग से लेकर वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण से आगामी बजटीय भाषण में आंध्र प्रदेश में नई तेल रिफाइनरी लगाए जाने की घोषणा शामिल है।

अभी यह स्पष्ट नहीं है कि नायडू कितना धन मांग रहे हैं। किसी का कहना है कि 1 लाख करोड़ रुपये तो कोई इससे आधा, लेकिन जो बात शीशे की तरह साफ है, वह यह है कि जो भी चाहेंगे, वह मिलेगा। जिन लोगों को हकीकत का पूरी तरह अहसास है, वे जानते हैं कि संसद में की गई गर्मागर्म बहस और आतिशी भाषण, मसलन, राहुल और महुआ के, साफ कहें, तो इनका कोई फायदा नहीं। क्योंकि मोदी 3.0 तब तक चलेगी जब तक कि नायडू पूरी तरह संतुष्ट हैं, इसलिए यह मोदी के हित में होगा कि उन्हें खुश बनाए रखें।

फिर, ऐसा भी नहीं कि इन्हें देने को केंद्र सरकार के पास पैसा नहीं है– पर्याप्त है। बल्कि उसके पास चतुरतम नौकरशाही भी है, जिसे भली-भांति इल्म है कि इसके लिए जुगाड़ कहां से और कैसे करना है। मोदी और नायडू, दोनों को भी यह पता है। उनसे यह भी छिपा नहीं है कि नीतीश कुमार अधिक खतरनाक हो सकते हैं, क्योंकि अगले साल बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं और खुद को राजनीतिक रूप से फंसा देख यह शख्स अपनी जरूरत की खातिर किसी भी हद तक जा सकता है।

 जिन सबको देश की हालत को लेकर चिंता है, तो यहां खुशकिस्मती से दुनिया में भारत का स्थान बेहतर मुल्कों में एक है, क्योंकि माली हालत अच्छी है – यह अलग बात है कि क्या इसका अधिकांश भाग केवल दो सूबों को संवारने में लगने वाला है। इसलिए, दिल्ली का कौन-सा प्रारूप अधिक सच है, एक वह जो कहता है कि भारत बदल चुका है क्योंकि भाजपा अपने दम पर बहुमत नहीं ले पाई और उसे दबकर रहना पड़ेगा और यह भी कि सत्ताधारी दल के ‘बहुसंख्यकों का तुष्टीकरण’ एजेंडे की तरफ लोगों का झुकाव अब और नहीं रहा? या फिर वह प्रारूप जिसमें माना जाता है कि संसद भले ही स्तरीय भाषणों का मंच हो, लेकिन असल शक्ति हमेशा से संसद से बाहर ही रही है?