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एकाधिकार वाद, निष्पक्ष खेल या राहुल मॉडल व्यवसाय

सार

    राहुल गांधी का एक लेख इन दोनों बहुत चर्चा में है. ईस्ट इंडिया कंपनी के बहाने हमले के कारण राजाओं महाराजाओं में आक्रोश है. ज्योतिरादित्य सिंधिया और जयपुर की दीपा कुमारी, राहुल गांधी के लेख पर कड़ी नाराजगी जता चुके हैं..!!

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विस्तार

    राहुल गांधी के लेख का जिस्ट यह दिखाई पड़ता है कि, ईस्ट इंडिया कंपनी ने व्यवसाय की कुशलता से नहीं बल्कि कंपनी में साझेदारी करके, रिश्वत देकर भारत का गला घोंट दिया था. उनका इशारा इस तरफ है,कि जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी में उस समय तंत्र के साथ, राजाओं- महाराजाओं के साथ बैंकिंग, नौकरशाहों, सूचना नेटवर्क को नियंत्रित किया. 

    लेख यह भी कहता है कि हमने अपनी आजादी किसी दूसरे देश के हाथों नहीं खोई. हमने इस एकाधिकार वादी ईस्ट इंडिया निगम के हाथों खो दिया, जो एक दमनकारी तंत्र चलाता था. पूरे लेख में राहुल गांधी ने कई उद्योग समूहों को उनकी उपलब्धियों के लिए सराहा है लेकिन इशारों-इशारों में कई उद्योग समूह का बिना नाम लिए, तंत्र पर नियंत्रण के फलस्वरुप उद्योग जगत में बढ़ रहे एकाधिकार वाद की ओर इशारा किया है.

    सरकारी तंत्र और ऐसे उद्योग जगत के बीच ‘मैच फिक्सिंग’ का भी इशारा किया है. राहुल गांधी का विचार यह है, कि इसके कारण देश में बेहतर और अच्छे उद्योग के अवसर कम हो रहे हैं. डर के कारण लोग चुप रहते हैं. लेकिन यह जो असमानता बढ़ रही है, उसके कारण उद्योग व्यवसाय में मैच फिक्सिंग और एकाधिकार वाद हो रहा है. निष्पक्ष खेल व्यवसाय में अब नहीं रह गया है. 

    निश्चित रूप से राहुल गांधी यह मुद्दा बहुत पहले से उठाते रहे हैं कि, अडानी अंबानी को मोदी सरकार तरह-तरह की सुविधा और अवसर दे रही है. इस लेख में भी उन्होंने उनका नाम तो नहीं लिया लेकिन इशारा निश्चित रूप से अपने उन्हीं पुराने आरोपों को सही साबित करने के साथ ही भारत के भविष्य के प्रति, एक डर पैदा करना उनका नजरिया लग रहा है. मोदी सरकार की नीतियों का विरोध ही उनका लक्ष्य प्रतीत होता है.

    विचारों की स्वतंत्रता है. राहुल गांधी को जो अच्छा लगता है, वह उन्होंने इस लेख में कहा है. राहुल गांधी आज एक सामान्य नेता नहीं है. नेता प्रतिपक्ष के संवैधानिक पद पर बैठे हुए हैं. कम से कम देश के विकास, व्यवसाय और औद्योगिक जगत के मामले में तो उन्हें अगर कोई ऐसे फैक्ट्स ज्ञात हैं, उनके पास ऐसे कोई प्रमाण हैं, जिससे यह साबित होता है, कि कोई भी सरकार किसी भी उद्योगपति को गैरकानूनी, अनैतिक और पक्षपात पूर्ण ढंग से सहयोग कर रही है, तो यह सारे प्रमाण उन्हें सार्वजनिक करना चाहिए. केवल राजनीतिक बयानों और लेखों के जरिए व्यवस्था को बदनाम करने की कोशिश अंततः उनकी ही बदनामी का कारण बनेगा. 

    ईस्ट इंडिया कंपनी से ही मिलता-जुलता यंग इंडिया कंपनी का मामला जांच में चल रहा है. एसोसिएटेड जनरलस की संपत्तियों को यंग इंडिया कंपनी में गैर कानून ढंग से हड़पा गया है, इसीलिए राहुल गांधी ईडी के सामने पेश भी हुए. उनके बयान भी हुए हैं. बातें तो बातें होती हैं, लीडर की इमेज एक्शन से बनती है. बीजेपी तो यह कहती है कि, यंग इंडिया कंपनी के मामले में राहुल गांधी और सोनिया गांधी अदालत से जमानत पर हैं. 

    राहुल गांधी का बिजनेस मॉडल अगर यंग इंडिया है तो पॉलिटिकल मॉडल कांग्रेस पार्टी है. मैच फिक्सिंग और एकाधिकार वाद शब्द सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं लेकिन कांग्रेस में एकाधिकार वाद की स्थितियां किस सीमा पर हैं, यह दीवार पर लिखी इबारत जैसा साफ-साफ दिखता है. बुजुर्ग मल्लिकार्जुन खड्गे, भले  ही राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिए गए हैं लेकिन कांग्रेस में जिले का भी निर्णय स्वतंत्र रूप से उनके द्वारा लिया जा सकता है, ऐसा तो दिखाई नहीं पड़ता.

    वायनाड में नामांकन के समय जिस तरह के दृश्य सामने आए थे, जिसमें कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष नामांकन कक्ष के बाहर देखे गए थे, उससे सारी कहानी साफ हो जाती है. राहुल गांधी जब राजनीति में सक्रिय हुए थे, तब उनसे बहुत आशा थी, बहुत उम्मीदें थी. भारत की संसद में बीस साल से वह किसी न किसी संसदीय क्षेत्र का नेतृत्व कर रहे हैं.

    पार्टी तो लगभग उनके नियंत्रण में है. कुछ समय तो वह राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे हैं. अगर कांग्रेस में एकाधिकार वाद और मैच फिक्सिंग को नियंत्रित करने में राहुल मॉडल एक प्रतिशत भी सफल हो पाता तो फिर उनके द्वारा ऐसे शब्दों का उपयोग, थोड़े अर्थ ले सकता था. 

  कांग्रेस से बड़े-बड़े नेता पार्टी छोड़कर दूसरे दलों में चले गए. मध्य प्रदेश में तो कांग्रेस में विभाजन के कारण कांग्रेस को सरकार गंवानी पड़ी. कोई भी राज्य ऐसा नहीं है जहां कांग्रेस अंदरूनी संघर्ष और बगावत से नहीं गुजर रही हो. 

    राहुल गांधी का संवैधानिक दायित्व है कि मोदी सरकार की कमियों को पूरी ताकत के साथ उजागर करे. सवाल केवल इतना है, कि केवल बातों से नहीं बल्कि और प्रमाण के साथ तथ्य सामने आना चाहिए. अगर ऐसा मान लिया जाए कि मोदी सरकार अडानी और अंबानी को अनैतिक, पक्षपात पूर्ण ढंग से सहयोग और मदद कर रही है, तो अवेयरनेस के इस जमाने में उसके प्रमाण भी निश्चित रूप से सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होंगे. 

    अदालत में जिस तरीके से एक्टीविजम का माहौल है उसमें किसी भी गलती पर अगर अदालती प्रक्रिया में कोई जाता है, तो निश्चित रूप से न्याय मिलता है. राहुल गांधी ने तो राफेल के मामले में भी अदालत से माफी मांगी. उनका तो यह ट्रेंड बन गया है कि, कुछ भी बोल दो, कोई जवाबदेही तो है नहीं. ऐसी बातें हो रही हैं, जो अनयूजुअल हो तो मीडिया में भी फोकस होगा. 

    पॉलिटिक्स का शायद यही टारगेट होता है, कि चर्चा हो. चर्चा चाहे नेगेटिव हो, चाहे पॉजिटिव हो, लेकिन नेता का लक्ष्य होता है, ऐसी बात करो जो चर्चा में रहे. इस तरह का एप्रोच अपराध में भी होता है. अपराधी भी ऐसे एक्शन करते हैं जो किसी न किसी रूप में चर्चा में आते हैं और इसके कारण उनकी धमक बढ़ती है.

    भारत में खालिस्तान आंदोलन को कोई जगह नहीं है लेकिन कनाडा में एक्टिविटी करके खालिस्तान समर्थक चर्चा बनाए रखते हैं. इसी तरीके से पॉलिटिकल स्टेटमेंट भी टारगेटेड अटैक के हथियार होते हैं. अगर कोई प्रमाणिकता होती है तो निश्चित रूप से विपक्ष की भूमिका लोकतंत्र में सरकार से कम महत्वपूर्ण नहीं होती. 

    विपक्ष के नेताओं ने भारत में लोकतंत्र के इतिहास को बदला है. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के रायबरेली से चुनाव को बयानों से रद्द नहीं किया गया था, राज नारायण ने चुनाव की गड़बड़ी के प्रमाण के साथ उच्च न्यायालय में याचिका लगाई थी, हाई कोर्ट ने उसे सही पाया और तत्कालीन प्रधानमंत्री की सदस्यता रद्द कर दी गई थी.

    इसके बाद ही भारत को इमरजेंसी का सामना करना पड़ा था. कहने का मतलब साफ है, कि लोकतंत्र में किसी को भी अनैतिक, पक्षपात पूर्ण और मित्र  शासन चलाने का अधिकार नहीं है. अगर कोई ऐसा शासन चला रहा है? तो यह भी विपक्ष के नेता और विपक्षी दलों की ही कमजोरी मानी जाएगी. 

    भारत में अगर असमान और अन्यायपूर्ण कुछ भी हो रहा है तो वह राहुल गांधी और विपक्ष की कमजोरी होगी. इसका मतलब है, कि विपक्ष अपना दायित्व निभाने में अक्षम  है. कमजोर और बेजुबानों की रक्षा बातों से नहीं एक्शन से होती है. कांग्रेस पार्टी एक्शन में तो खुद बिखर रही है, खुद एकाधिकारवाद का शिकार है, खुद मैच फिक्सिंग कांग्रेस की कमजोरी है. बातें कम काम ज्यादा, कांग्रेस का ही नारा था. राहुल गांधी अपने पूर्वजों के नारों को ही अपना लें तो उन्हें खुद निष्पक्ष खेल खेलने और खिलाने का मौका मिल सकता है.