इतिहास से भविष्य की ओर… स्टेट मीडिया सेंटर में तब्दील होने की तरफ बढ़ा पत्रकार भवन..!
ईंट पत्थर से बनी इमारतों की भी सदाएं होती हैं, इमारतें पुरानी होती हैं तो इसके बरामदों में इतिहास चहलकदमी करता है। नई होती हैं तो इसमें 'जान' डालनी पड़ती है। आज भोपाल का पत्रकार भवन रूपांतरण यानि ट्रांसफॉर्मेशन कर रहा है। कुछ महीनों बाद पुराने भवन के मलबे पर नया भवन दिखेगा। पुराने पत्रकार भवन के सुनहरे दौर में मीटिंग, ब्रीफिंग, प्रेस कांफ्रेंस, विमर्श, मंत्री-विधायकों की ऑफ द रिकार्ड गपशप और महफिलों से लेकर गहरे मतभेद और मुकदमेबाजियां तक थीं, बावजूद यह साठ के दशक से ही सूबे के पत्रकारों का हमेशा 'अभयारण्य' रहा।
नये स्टेट मीडिया सेंटर में क्या होगा?
जाहिर है कि अब सरकार की जिम्मेदारी है कि नया भवन आधुनिकताओं के फेर में पुरानी परंपराएं और माहौल न खो बैठे। दरअसल, आज जब नये भवन की बुनियाद रखी गई है तो पुराना भवन भी पत्रकारों के जेहन में ताजा है। सवाल फिर उमड़ रहे हैं कि उस भवन का क्या दोष था जो बेरहम सरकारी जेसीबी - बुलडोजरों तले रौंदा गया। तब वहां वह चेहरे नहीं थे जो अब इक हैं।
चार साल पहले जब कांग्रेस की तत्कालीन सरकार ने इसे ढहाया तो इसके पीछे विचार प्रबल था या दबाव ? क्योंकि यह तो 2013 से 2018 तक की शिवराज सरकार पर भी रहा होगा, मगर उसने ऐसा नहीं किया व अब नई शुरुआत की। इसलिए यह सवाल भी बाकी ही रहेगा कि भवन मुकदमों के बोझ से चरमराया था, या तब सरकार ने ठान लिया था? सीएम हाउस का रिनोवेशन करने वाली वह सरकार क्यों पुराने भवन को नया स्वरूप नहीं दे सकी?
वैसे, उस भवन व खबरपालिका की हालत मेल खाती थी, क्योंकि वह भी बाहर से कभी-कभी कुछ कमजोर जरूर लगता था लेकिन अंदर से सख्त था । तभी तो इसे तोड़ते वक्त दो जेसीबी मशीनों के 'पंजे' टूट गए, अब भी इसकी 'आंतरिक मजबूती' बनी रहे यही खबर - पालिका की अंदरूनी तासीर की जीत होगी। बहरहाल, पुनर्निर्माण के साथ भवन का 'एबिएस' लौटने का गुरुतर दायित्व भी सरकार का है। उम्मीद ही की जा सकती है कि नया भवन व्यवसायिक तकाजों और अत्यधिक सरकारी अंकुशों से मुक्त पत्रकार- अभयारण्य ही रहेगा।