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अब चलेगा, इक्वेलिटी मेकैनिज्म 

सार

अल्पसंख्यक राजनीति क्या बदल रही है? वोट बैंक का तुष्टिकरण क्या अब सत्ता पाने का कारगर तरीका नहीं बचा है. बीजेपी ने वक्फ़ कानून के जरिए अल्पसंख्यक राजनीति की नई दिशा की ओर आगे बढ़ रही है..!!

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विस्तार

    चुनावी भविष्य और मुस्लिम वोट बैंक की परवाह किए बिना नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू की पार्टियों द्वारा वक्फ़ कानून का समर्थन क्या बदलती अल्पसंख्यक राजनीति का इशारा कर रही है.

   इस राजनीति का पहला टेस्ट बिहार के चुनाव में होगा. एनडीए वहां अगर फिर से सरकार बनाने में सफल हो जाता है तो फिर देश में अल्पसंख्यक राजनीति बदल जाएगी.

    अल्पसंख्यकों में मुस्लिम, सिख, इसाई, जैन, पारसी और बौद्ध आते हैं. कांग्रेस की सियासत में बात अल्पसंख्यकों की होती है लेकिन प्रायोरिटी मुस्लिम राजनीति को मिलती है. संविधान में पर्सनल कानूनों को मान्यता यही दर्शाता है कि, मुस्लिम भी बहुत लंबे समय तक कांग्रेस का राजनीतिक समर्थन करते रहे हैं. 

    बाबरी विध्वंस के बाद मुसलमानों का भरोसा कांग्रेस से टूटा तो क्षेत्रीय दलों ने उनका विश्वास अर्जित कर लिया. यूपी, बिहार, बंगाल जैसे राज्यों में जहां लालू  यादव, अखिलेश यादव और ममता बनर्जी को मुस्लिम वोट बैंक का लाभ मिलता है वहीं गठबंधन की राजनीति में पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को जरूर उनकी सीटों पर मुस्लिम समर्थन मिलने से लाभ हुआ है. 

    मुस्लिम वोट बैंक और तुष्टिकरण के कारण हिंदू ध्रुवीकरण की प्रतिक्रिया होती है. बीजेपी को तो मुस्लिम विरोधी के रूप में प्रचारित किया जाता है. इसके बावजूद उत्तर भारत के राज्यों में ध्रुवीकरण के कारण बीजेपी सत्ता में बनी हुई है. तमाम चुनावी सर्वे बताते हैं कि बीजेपी को बहुत कम प्रतिशत में मुसलमानों का समर्थन मिलता है. इसके बाद भी बीजेपी उन दलों को पराजित करने में सफल हो जाती है जिन्हें मुसलमानों का एक तरफ़ा समर्थन मिलता है. 

    सियासी केंद्र में मुस्लिम दिखाई पड़ते हैं. कुछ दल उनकी हिमायत कर और दूसरे को विरोधी स्थापित करने की सियासत करते हैं. मुस्लिम के एकमुश्त समर्थन से लंबे समय तक देश में सरकारें काम करती रही हैं. मुसलमानों के विकास को लेकर जब भी अध्ययन हुए हैं तो यही नतीजा निकला है कि, यह समाज काफी पिछड़ा है. 

    राजनीतिक ही नहीं आर्थिक, सामजिक एवं शैक्षिक दृष्टि से भी समाज में  पिछड़ापन है. सच्चर रिपोर्ट इसका प्रमाण है. 

    बीजेपी को छोड़कर सभी राजनीतिक दल अल्पसंख्यक राजनीति के अपने आधार को मजबूत बनाने में लगे रहते है. मुसलमानों को छोड़कर बाकी अल्पसंख्यक समाज राजनीतिक कट्टरता की बजाए उदारता के रास्ते पर चलता है. इन अल्पसंख्यकों को किसी भी राजनीतिक दल से परहेज नहीं है बल्कि धीरे-धीरे इन समुदायों में भाजपा अपनी पैठ बना रही है.

    भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति कोई छिपी हुई नहीं है. जिन राज्यों में बीजेपी और कांग्रेस का सीधा मुकाबला है वहां मुसलमानों का एकमुश्त समर्थन कांग्रेस को ही मिलता है. उसके बावजूद भी कांग्रेस पीछे रह जाती है. ऐसे राज्यों में कांग्रेस के वोट बैंक की राजनीति उसे लाभ पहुंचाने की बजाय उसे नुकसान पहुंचा देती है. वोट बैंक की राजनीति ही ध्रुवीकरण को प्रोत्साहित करती है.

    आक्रामक विरोध भी कई बार नुकसान से ज्यादा फायदा पहुंचा देता है. अल्पसंख्यकवाद की राजनीति में बीजेपी का कट्टर विरोध उसके लिए लाभ का सौदा साबित हो रहा है. संविधान पर चलते हुए इक्वेलिटी  मेकैनिज्म को डेवलप करने के प्रयास राजनीतिक नुकसान पहुंचाते दिखते हैं लेकिन लम्बे समय में उनका  प्रभाव लाभकारी ही साबित होता हैं.

    पहले यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि जिस संशोधन विधेयक का मुस्लिम समाज की ओर से विरोध किया जा रहा है उस पर मुस्लिम राजनीति करने वाले नीतीश कुमार और चन्द्र बाबू नायडू समर्थन कर सकते हैं. दोनों नेताओं को खूब डराया गया, खूब धमकाया गया. यहां तक कहा गया कि अगर इस बिल का समर्थन किया तो चुनाव में पब्लिक सबक सिखाएगी. 

    बिहार में कुछ मुस्लिम नेता पार्टी से इस्तीफा दे रहे हैं. राष्ट्रीय जनता दल ऐसा माहौल बनाने की कोशिश कर रही है कि मुसलमान चुनाव में नीतीश कुमार को सबक सिखाएंगे. अल्पसंख्यक राजनीति अब एकमुश्त नहीं बच रही है. इसमें बिखराव लगातार बढ़ता जा रहा है. वक्फ़ कानून से इस विखराव में तेजी आएगी.

    बिहार और टीवी चैनल्स में मुस्लिम समाज के लोग खुलकर नए कानून का समर्थन कर रहे हैं. ऐसे मुसलमानों को काफ़िर और गद्दार तक कहा जा रहा है. मुस्लिम समाज में शिया-सुन्नी डिवाइड सर्वविदित है. आगाखानी, बोहरा और पसमांदा मुसलमान समाज में अपनी हैसियत पाने के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं.    

   नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू के राजनीतिक चातुर्य पर संदेह नहीं किया जा सकता. इन दोनों को वक्फ़ कानून से उनके जनाधार में कोई धक्का दिखाई पड़ता तो वह कभी भी इसका समर्थन नहीं करते. कानून के खिलाफ जो याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुयी हैं, उनमें राजनीतिक दलों के नुमाइंदे ज्यादा दिखाई पड़ते हैं. समाज के लोग तो कम ही दिखते हैं. सर्वोच्च अदालत में राजनीतिक दृष्टिकोण से कोई भी पिटीशन अपने आप कमजोर हो जाती है.

    राजनीतिक समर्थन और विरोध में भी गुरुत्वाकर्षण का नियम लगता है. जितनी तेजी से विरोध होगा, उसी गति में समर्थन भी होगा. मुस्लिम बुद्धिजीवी भी वक्फ़ कानून के प्रावधानों पर आपत्तियां नहीं व्यक्त कर पा रहे हैं. केवल यही आपत्ति बताई जा रही है कि धार्मिक स्वतंत्रता पर सरकार हमला कर रही है.

   भारत सरकार और मुसलमान के बीच ट्रस्ट डिफिसिट तो दिखता है. बीजेपी इसको जितना कम कर पाएगी उतना उसे राजनीतिक फायदा होगा. इसके जरिए मुस्लिम समाज में अगडा - पिछड़ा की राजनीति नए रूप में सामने आएगी. वक्फ़ कानून जहां मुस्लिम समाज में अगडा -  पिछड़ा का नया दौर शुरू करेगी वहीं नए कानून के कारण हिंदुत्व की राजनीति में अगडा  पिछड़ा धारा की गति स्वतः ही कमजोर होगी.

    थिंक टैंक के अभाव में कांग्रेस मुसलमानों को आरक्षण देकर धर्म की राजनीति करने की आरोपी बन जाती है. अल्पसंख्यक राजनीति में दिखे बदलाव निश्चित रूप से बीजेपी और उनके सहयोगियों के लिए फायदेमंद साबित हो सकते हैं. बदलती अल्पसंख्यक राजनीति का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि जो नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू कभी बीजेपी की कम्युनल राजनीति के चलते गठबंधन तोड़ देते थे, वही नेता अल्पसंख्यक विरोध के बावजूद बीजेपी के साथ समर्थन में खड़े होने के लिए मजबूर हो जाते हैं.

    यह बदलाव ही अल्पसंख्यक राजनीति के बदलते भविष्य का द्योतक है. वोट बैंक की राजनीति संविधान और लोकतंत्र पर ही हमला करती है.  

    बीजेपी सरकार को वक्फ़ कानून पर ईमानदारी दिखानी होगी. अल्पसंख्यकों का दिल जीतना होगा. अगले चुनाव के पहले संशोधित कानून का असर और अमल मुस्लिम समाज के कल्याण के साथ दिखाना पड़ेगा. राजनीति के इस जोखिम को सही साबित करना एक बड़ी चुनौती होगी.