संसद में आधी रात तक बहसें चलती रही, सत्ता और विपक्ष के सांसदों ने अपनी-अपनी दलीलें पेश कीं और मत-विभाजन के बाद बिल पारित किया गया, इससे अधिक और कारगर लोकतांत्रिक और संवैधानिक प्रक्रिया और क्या हो सकती है?
अब वक़्फ़ क़ानून देश की सर्वोच्च अदालत में है। वक्फ संशोधन कानून के खिलाफ दाखिल याचिकाओं पर सर्वोच्च अदालत 15-16 अप्रैल को सुनवाई करेगी। ऐसी 15 याचिकाएं हैं। चूंकि संसद के दोनों सदनों से वक्फ बिल पारित हो चुका है, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भी हस्ताक्षर कर दिए हैं, लिहाजा अधिसूचना जारी होने के बाद वक्फ का नया कानून प्रभावी हो चुका है।
संसद में आधी रात तक बहसें चलती रही, सत्ता और विपक्ष के सांसदों ने अपनी-अपनी दलीलें पेश कीं और मत-विभाजन के बाद बिल पारित किया गया। इससे अधिक और कारगर लोकतांत्रिक और संवैधानिक प्रक्रिया और क्या हो सकती है? यही संसदीय प्रक्रिया सात दशकों से जारी रही है और बड़े-बड़े फैसले लिए गए हैं। बिल पारित किए जाते रहे हैं। अब विपक्ष के एक तबके ने कानून को ‘असंवैधानिक’ करार देते हुए उसे सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी है, तो यह हास्यास्पद और पूर्वाग्रही लगता है। अदालत में जाना भी विपक्ष का संवैधानिक अधिकार है। अब सर्वोच्च अदालत नए वक्फ कानून की समीक्षा करेगी और अपना फैसला सुनाएगी।
इसके बावजूद देश के कुछ हिस्सों में हिंसा, मारपीट, नफरत और आगजनी के दृश्य क्यों दिख रहे हैं? जम्मू-कश्मीर विधानसभा में वक्फ संशोधन कानून की प्रतियां फाड़ दी गईं, विधायकों ने जमकर हाथापाई की, सदन में हुड़दंग मचाया। दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी वामदलों और कांग्रेस के छात्र-नेताओं ने वक्फ बिल की प्रतियां फाड़ कर चिंदी-चिंदी बिखेर दीं। उन्हें जला भी दिया। उप्र के संभल, मुजफ्फरनगर, कानपुर आदि इलाकों में जिन्होंने वक्फ संशोधन बिल का समर्थन किया था अथवा जो ‘शुक्रिया भाईजान मोदी’ के नारे लगा रहे थे, बैनर लहरा रहे थे, उन्हें बुरी तरह पीटा गया। मुजफ्फरनगर में एक बूढ़े शख्स को भी नहीं बख्शा गया।
मणिपुर में बिल के समर्थक का घर तक जला दिया गया। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में वक्फ बिल के विरोधी पुलिस से ही भिड़ गए। खूब हिंसा हुई और पुलिस वाहन फूंक दिए गए। घटनास्थल पर बड़े-बड़े पत्थर देखे गए, जाहिर है कि पथराव भी किया गया होगा! आखिर यह कैसा लोकतंत्र और कैसी संवैधानिकता है? यदि वक्फ के नए कानून के तहत मुसलमानों का कुछ छिन सकता है, मौलिक अधिकार खंडित हो सकते हैं, तो इंसाफ की गुहार के लिए सर्वोच्च अदालत है। ऐसे चेहरे शीर्ष अदालत में कानून को चुनौती दे चुके हैं। अदालत को अपना काम करने दें और फैसले का इंतजार करें।
संसद में नागरिकता संशोधन बिल भी पारित किया गया था। उस पर करीब 250 याचिकाएं अदालत में दाखिल की गईं। मामला अब भी लंबित है। ‘तीन तलाक’ को जब आपराधिक कानून बनाया गया, तो उसके खिलाफ भी 15 याचिकाएं दाखिल की गईं। अयोध्या के ‘राम मंदिर’ पर संविधान पीठ का फैसला आने के बाद भी पुनर्विचार याचिकाएं दी गईं। हालांकि उन्हें खारिज कर दिया गया। अनुच्छेद 370 पर तो कांग्रेस आज भी दावा कर रही है कि वह अब भी संविधान का हिस्सा है। सर्वोच्च अदालत उसे सर्वसम्मति से ‘वैध’ करार दे चुकी है, जो फैसला बहुमत से संसद ने पारित किया था। दरअसल एक विशेष तबके की फितरत ही ऐसी है कि उसे मोदी सरकार के संसदीय फैसलों का विरोध करना ही है। कमोबेश विपक्ष के कुछ चिह्नित चेहरों को संसद की गरिमा और फैसले को बरकरार रखना चाहिए था, क्योंकि ओवैसी, ए. राजा, मुहम्मद जावेद आदि लोकसभा के सदस्य हैं। वे बहुमत के फैसले के हिस्सेदार रहे हैं।
अदालती चुनौती महज सियासत के अलावा कुछ और नहीं है। वक्फ पर बहुत कुछ सामने आ चुका है। वक्फ बोर्ड के अधीन 9.4 लाख एकड़ जमीन में करीब 8.72 लाख संपत्तियां हैं। उप्र में ही सबसे ज्यादा 27 प्रतिशत संपत्तियों पर अवैध कब्जे बेनकाब हुए हैं। ऐसे ही कब्जे बंगाल-पंजाब में 9-9प्रतिशत , तमिलनाडु में 8प्रतिशत , कर्नाटक में 7प्रतिशत , केरल में 6 प्रतिशत और तेलंगाना-गुजरात में 5-5 प्रतिशत हैं। क्या उन पर कार्रवाई करना सरकारों का संवैधानिक दायित्व नहीं है? संशोधित कानून में एक बार फिर संशोधन किया गया है। इस पर आपत्ति क्यों होनी चाहिए?