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अब क्या कहेंगे सी बी आई को?

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Tue , 19 Sep

सार

दिल्ली सरकार में ही उप मुख्यमंत्री रहे मनीष सिसोदिया को करीब डेढ़ साल जेल में कैद रहना पड़ा, उसके बाद भी जमानत इस आधार पर दी गई कि ट्रॉयल अभी अनिश्चित और बहुत लंबी है, लिहाजा किसी को भी उसकी स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार से वंचित नहीं रखा जा सकता..!!

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विस्तार

देश की सर्वोच्च अदालत में मुख्यमंत्री केजरीवाल की जमानत के संकेत तभी मिल गए थे, जब न्यायिक पीठ ने अपना फैसला सुरक्षित रखा था। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के धनशोधन वाले मामले में केजरीवाल को 12 जुलाई को ही जमानत दे दी गई थी, जबकि इस कानून में जमानत मिलना बहुत मुश्किल है। लंबे वक्त तक जेल में बंद रहना पड़ सकता है। दिल्ली सरकार में ही उप मुख्यमंत्री रहे मनीष सिसोदिया को करीब डेढ़ साल जेल में कैद रहना पड़ा। उसके बाद भी जमानत इस आधार पर दी गई कि ट्रॉयल अभी अनिश्चित और बहुत लंबी है, लिहाजा किसी को भी उसकी स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार से वंचित नहीं रखा जा सकता।

केजरीवाल और सिसोदिया एक ही केस के आरोपित हैं, लेकिन केजरीवाल के संदर्भ में सीबीआई केस भी समानांतर रूप से जारी था। बीती 13 सितंबर को, अंतत:, उन्हें जमानत दे दी गई, लेकिन न्यायाधीश भुइयां ने देश की प्रमुख जांच एजेंसी सीबीआई पर गंभीर टिप्पणी की कि उसे ‘पिंजरे में बंद तोते’ की धारणा से बाहर आना चाहिए और ‘सीजर की पत्नी’ की तरह ईमानदार होना चाहिए। यकीनन यह सीबीआई की निष्पक्षता और स्वायत्तता पर गंभीर सवाल है। करीब 11 साल पहले 2013 में भी सर्वोच्च अदालत ने ही सीबीआई को ‘तोता’ करार दिया था, जो अपने मालिक की आवाज ही सुनता है। तब केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार थी और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह थे। देश की शीर्ष अदालत के न्यायाधीश ही, देश की प्रमुख जांच एजेंसी सीबीआई पर, ऐसी टिप्पणियां कर कमोबेश यह संदेश दे रहे हैं कि सीबीआई ईमानदार नहीं है और अपने मालिक के आदेशानुसार ही काम करती है। नतीजतन सभी गंभीर और संवेदनशील जांच-प्रक्रियाएं दांव पर रखी महसूस होती हैं। दरअसल किसी भी बड़े, विवादित और पेचीदा मामले में देश की राज्य सरकारें और आम आदमी, अंतत:, मांग करते हैं कि जांच सीबीआई को सौंपी जाए, लेकिन सीबीआई की कार्यप्रणाली तो ‘सवालिया और संदेहास्पद’ है।

क्या इसके मायने ये हैं कि भारत में जांच-प्रक्रिया तटस्थ और निष्पक्ष ही नहीं है? केजरीवाल केस में जस्टिस भुइयां ने सीबीआई से सवाल पूछा था कि केस 22 महीने पहले दर्ज किया गया, लेकिन गिरफ्तारी की याद 2024 में क्यों आई? इस दौरान एजेंसी क्या करती रही? जब ईडी केस में जमानत दे दी गई, तो उसके एकदम बाद ही आरोपी को गिरफ्तार क्यों किया गया? जाहिर है कि कुछ संदेह तो होते हैं। इसी संदर्भ में न्यायाधीश ने ‘तोते’ वाली टिप्पणी की, जिसके निहितार्थ हो सकते हैं कि सीबीआई ने किसी के अदृश्य, अघोषित आदेश पर ही केजरीवाल को गिरफ्तार किया हो! जमानत की शर्तों पर जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस भुइयां मतभेदी लगे। जस्टिस भुइयां का मानना था कि जमानत की शर्तें क्यों होनी चाहिए? इस बिंदु पर उनकी आपत्ति है, लेकिन वह इससे अधिक कुछ नहीं बोलेंगे।

ज़मानत के बाद केजरीवाल तिहाड़ जेल से बाहर आ गए, लेकिन उन पर ऐसी शर्तें थोपी गई हैं, जिनसे वह मुख्यमंत्री रहते हुए भी मुख्यमंत्री नहीं होंगे। बिन शक्तियों का मुख्यमंत्री होगा। मुख्यमंत्री केजरीवाल अपने दफ्तर और दिल्ली सचिवालय नहीं जा सकेंगे। किसी भी आधिकारिक फाइल पर हस्ताक्षर नहीं कर सकेंगे। यह भी स्पष्ट नहीं है कि वह कैबिनेट की बैठक बुला सकेंगे या नहीं। उपराज्यपाल के आदेश और आग्रह पर ही मुख्यमंत्री फाइल पर हस्ताक्षर कर सकते हैं। केजरीवाल के जेल में रहने के कारण करीब 4000 फाइलें मंत्रियों के पास लंबित पड़ी हैं। क्या बतौर मुख्यमंत्री केजरीवाल अपने मंत्रियों को नीतिगत आदेश दे सकते हैं या नहीं? बहरहाल हम लोकतंत्र में रहते हैं। न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका सभी उस लोकतंत्र के हिस्से हैं। अदालत ने केजरीवाल को जमानत पर रिहा किया है। अभी तक वह मासूम और बेगुनाह हैं, क्योंकि अदालत ने उन्हें दंडित नहीं किया है।

 केजरीवाल लोकतंत्र में ही जनादेश हासिल कर मुख्यमंत्री बने हैं। यदि वह अपनी जनता के अटके काम नहीं कर सकेंगे, घोषित कार्यक्रमों को लागू नहीं कर सकेंगे, नीतिगत फैसले नहीं ले सकेंगे, तो करीब 5 महीने बाद जो चुनाव होने हैं, उनमें वह जवाबदेही कैसे दे सकेंगे? क्या नजला जेल, ‘तोता-मैना’ रूपी जांच एजेंसियों और अदालत पर ही गिराया जाएगा? संभवत: एक बार फिर अदालत को यह सोचना पड़ेगा कि जनादेश हासिल व्यक्ति कितना महत्वपूर्ण है? उसे सिर्फ ‘तोते’ का शिकार बनने को नहीं छोड़ा जाए।