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अफसर, मुख्यमंत्री और मंत्रालय का मालखाना...!

आशीष दुबे आशीष दुबे
Updated Fri , 22 Feb

सार

मप्र में घोषणाओ की जो बाढ़ आई थी, वह सरकार की आर्थिक संरचना को हिलाएगी।

janmat

विस्तार

पुलिस थानों में अक्सर। एक खास कक्ष होता है, जिस पर लिखा होता है- मालखाना। यहां जब्त किए सामान जमा रहते हैं, महीनों व कभी बरसों तक ! लेकिन अब प्रशासनिक वीथिकाओं में यही अदृश्य कक्ष व अव्यक्त शब्द तैर रहा है। मप्र के नौकरशाहों व नौकरशाही को नए सिरे से कस रहे मुख्यमंत्री मोहन यादव ने आधा दर्जन से ज्यादा रसूखदार आईएएस अफसरों को जहां बैठा रखा है, वह भी मंत्रालय का मालखाना जैसा ही है।

इन अफसरों ने कभी ऐसे ठहराव की कल्पना नहीं की होगी। दरअसल, नये मुख्यमंत्री की कार्यशैली शुरू के कुछ दिनों-सप्ताहों में ही सेट होती है। इसीलिए यादव हड़बड़ी की बजाए स्थितप्रज्ञ की तरह हालातों को भांपते व फैसले करते नजर आते हैं। सबसे पहले अपने पीएस व आईएएस मनीष रस्तोगी और फिर मनीष सिंह, मुकेश गुप्ता, नीरज वशिष्ठ, तरुण राठी, किशोर कान्याल, सौरव सुमन समेत आईपीएस संजय झा, विजय खत्री उनके रडार पर आते गए। 

एकाध को छोड़ बाकी बिना विभाग के अफसर हैं। मुकेश गुप्ता, उमाकांत उमराव जैसे कुछ और अफसर भी हैं जो लूपलाइन में डाल दिए गए हैं। माना जा रहा है कि अभी कुछ और नंबर आने बाकी है। दरअसल मोहन यादव ने सरकार की कार्यप्रणाली को सरकार में ही रहकर गौर से देखा है, जो उनके फैसलों में झलक रहा है। मप्र में पिछले कुछ समय से ब्यूरोक्रेसी हावी नजर आने लगी थी, कुछ खास तरह की निष्ठा वाले अफसरों का कॉकस बन गया था, जो पूरी मशीनरी पर हावी था।

इकबाल सिंह बैस का बतौर मुख्य सचिव पूरा कार्यकाल व एक्सटेंशन ने बाकी के नौकरशाहों को जो संकेत देना था दे दिए थे। नतीजतन, कुछ के अवसर हाथ से जाते रहे और कुछ के बेहतर ओहदे दूर छिटकते रहे व बड़ा वर्ग हताश बैठ गया। फिलहाल यह रामायण के सबसे लंबे बालकांड की ही तरह मोहन यादव के व्यक्तित्व को गढ़ने वाला अहम कालखंड है। 

अफसरशाही का पुराना हस्तिनापुर अब दरक चुका है। संकेत साफ हैं कि गुटबाजी नहीं चलेगी। बावजूद इन शुरुआती दिनों को छोड़ दें तो आगे सब कुछ हमेशा सहज रहेगा, यह मानना जल्दबाजी होगी। दरअसल, अफसरों को लगातार हटाने के बहुत से फायदो के बावजूद अर्तनिहित कुछ खतरे भी हैं। इन दोनों कारकों को यादव को पूर्ववर्तियों के उदाहरण सामने रखकर अपने चश्मे से पढ़ने की जरूरत है। एक वक्त इसी मंत्रालय में राकेश साहनी से लेकर सुधिरंजन मोहंती जैसे कई अफसर भी बिना विभाग के लंबे समय मालखाने में रहे व बाद में अपने-अपने सीएम के उपयोगी भी बने। पूर्व सीएम बाबूलाल गौर कहते थे कि नौकरशाही घोड़ा है, बस घुड़सवार (सीएम) दक्ष होना चाहिये।

बहरहाल, जैसे जैसे वक्त बीतेगा, मप्र के अफसरों की एक खास लॉबी का रुख गौरतलब होगा। मप्र में घोषणाओ की जो बाढ़ आई थी, वह सरकार की आर्थिक संरचना को हिलाएगी। नये आर्थिक स्रोतों की तलाश यदि आम आदमी की जेब तक नये टैक्स के नाम से पहुंची तो सियासी संरचना पर असर पड़ेगा। लिहाजा, पांच महीने बाद संभवतः जुलाई में मोहन सरकार का पहला बजट परीक्षा की घड़ी होगा तथा इसके बाद का रास्ता कुछ पथरीला भी। तब तक सरकार का हनीमून पीरिएड भी खत्म हो चुका होगा।

आमजन, अफसरों व अवसरों को अनुकूल बनाए रखने तथा इन सबसे पहले मार्च में उन्हें नया मुख्य सचिव चुनने की भी चुनौती है। वैसे, हाल में करीब बीस सीनियर आईएएस व आईपीएस अफसरों को संभागों के प्रभार देकर यादव ने नयी टीम गढ़ने का प्रयास किया है। उनकी मंशा मोहक और तेवर जमीनी हैं। इससे माना जा सकता है कि वे सीईओ जैसे आत्मप्रशसित जुमलों से बचते हुए सहज व दक्ष प्रशासक की छवि हासिल कर लेंगे।