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पुरानी हसरत, संसद में दिखेगी शोहरत

सार

राहुल गांधी द्वारा छोड़ी गई लोकसभा की दूसरी सीट वायनाड के उपचुनाव की घोषणा हो चुकी है. सीट छोड़ते समय ही राहुल गांधी घोषित कर चुके थे कि इस सीट से प्रियंका वाड्रा गांधी चुनाव लड़ेंगीं. राहुल और प्रियंका की उम्र में दो साल से भी कम का अंतर है. राहुल गांधी बीस साल से सांसद हैं. उनके इतने लंबे समय तक सांसद रहने के बाद गांधी परिवार चुनावी मैदान में ‘प्रियंका यान’ लॉन्च करने जा रहा है..!!

janmat

विस्तार

   गाँधी परिवार के किसी भी सदस्य का संसद के लिए चुना जाना कोई बड़ी घटना नहीं है. खासकर मुस्लिम बाहुल्य वायनाड से तो नामांकन भरने की ही देर है, संसद में तो प्रियंका यान लेंड हो ही जाएगा. प्रियंका के चुनाव लड़ने की चाहत और मांग बहुत पुरानी है. शायद देरी पुत्र प्रेम में हुई है?

   भारत में मताधिकार की आयु अट्ठारह साल निश्चित है. किसी नेता को बीस साल संसद में रहने का मौका मिलने का मतलब है, कि उसकी सारी संभावनाएं उदित हो चुकी है. राहुल गांधी के सांसद रहते हुए दस साल तक कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार भी चलती रही. सरकार की इमेज और परफॉर्मेंस में तमाम डायरेक्टर्स के डायरेक्शन के बाद भी राहुल गांधी हीरो नहीं बन पाए. कभी-कभी विलेन के दृश्य जरूर देखने को मिले, जब विधेयक की प्रतियाँ फाड़ी गयी. पहली बार राहुल गांधी नेता प्रतिपक्ष के संवैधानिक पद पर बैठे हैं. यह उनके लिए मौका है, कि अपनी इमेज गंभीर और  भारत की जड़ों से जुड़ने की तरफ ले जा सकते हैं.

   कांग्रेस पार्टी में हमेशा से राहुल और प्रियंका के बीच पब्लिक कनेक्ट की तुलना की जाती रही है. हमेशा ऐसा कहा जाता रहा कि राहुल गांधी राजनीति में आना नहीं चाहते थे. उन्होंने स्वयं सियासत को ज़हर बताया था. प्रियंका गांधी वाड्रा में कांग्रेस जन इंदिरा गांधी की छवि देखते हैं. राजनीति में आने के बाद सांसद रहने के साथ ही राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व भी कर चुके हैं. वर्तमान में अध्यक्ष नहीं होने के बावजूद पार्टी पर पूरा नियंत्रण राहुल गांधी का ही लगता हैं.

    राजनीति में राहुल गांधी के सक्रिय होने के बाद कांग्रेस पार्टी को कितना राजनीतिक लाभ हुआ? इसका आंकलन तो समय-समय पर होता रहता है. राहुल गांधी से पहले ही प्रियंका को राजनीति में लाने की बातें चलती रही थी. हर परिवार में सामान्यतः पुत्र को ही आगे बढ़ाया जाता है. यही गांधी परिवार में भी किया गया. अब जब वारिस अधेड़ आयु में पहुंच चुका है, पार्टी की संभावना हिचकोले खा रही है. तभी शायद गांधी परिवार में प्रियंका वाड्रा को चुनावी मैदान में उतारने का फैसला लिया है.

   चुनाव लड़ने के लिए भले ही प्रियंका पहली बार मैदान में उतरने जा रही हैं लेकिन चुनाव लड़ाने का काम तो बहुत पहले से ही कर रही हैं. महासचिव के रूप में पार्टी में भी उनका सक्रिय दखल रहा है. उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव का ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ अभियान का नेतृत्व भी कर चुकी हैं.

  अमेठी में हमेशा प्रियंका चुनाव अभियान का नेतृत्व करती रही हैं. एक बार तो यहां से राहुल गांधी को भी हारना पड़ा इस बार ज़रूर कांग्रेस को जीत मिली है. प्रियंका वाड्रा गांधी की राजनीतिक समझ और सूझ-बूझ पहले से सार्वजनिक है, उनका पॉलीटिकल केरियर अभी तक तो औसत ही रहा है. 

   गांधी परिवार कांग्रेस के लिए मजबूरी जैसा बना हुआ है. पार्टी में जो भी बिखराव, अनुशासनहीनता के हालात बने हुए हैं, वह गांधी परिवार के नियंत्रण के बावजूद है. यदि यह नियंत्रण समाप्त हो जाएगा तो फिर पार्टी एक साथ रह पाएगी? इस पर भी सवाल खड़े हो जाएंगे. कांग्रेस के भीतर राहुल और प्रियंका के अलग-अलग गुट अनेक बार सामने आते दिखाई पड़ते हैं. संसद में अभी तक सोनिया गांधी और राहुल गांधी बैठते थे. सोनिया गांधी तो सक्रिय राजनीति से दूर होकर राज्यसभा में सिमट गई हैं.

   वायनाड के चुनाव परिणाम के बाद राहुल और प्रियंका गांधी लोकसभा में अगल-बगल उपलब्ध होंगे. वैसे तो हर व्यक्ति अलग-अलग होता है, एक दूसरे से तुलना की कोई गुंजाइश नहीं होती. हर व्यक्ति के हाथ की लकीरें अलग होती है. यहां तक कि पेड़ों का हर पत्ता भी अलग-अलग होता है. इसके बावजूद तुलना तो होती है. तुलना व्यवहार की होती है, परफॉर्मेंस की होती है, आचरण की होती है और उपलब्धि की होती है. भाई बीस साल से सांसद है. बहन नई सांसद होगी तो पहली बार लोगों को तुलना का अवसर मिलेगा. एक ढलान पर होगा तो एक उफान पर.

  निश्चित रूप से कांग्रेस के भीतर परिस्थितियों पर विचार किया गया होगा. चुनावी राजनीति में कांग्रेस के लिए पिछले दस साल बिल्कुल भी आशा जनक नहीं रहे हैं. गठबंधन की राजनीति के सहारे थोड़ा बहुत भले ही कुछ हासिल कर लिया गया हो लेकिन अकेले कांग्रेस फिसलती ही दिखाई पड़ रही है. पार्टी की उपलब्धि में किसी की छाप दिखाई नहीं पड़ती. कांग्रेस से सौ साल पुराना दल है. राष्ट्रीय पार्टी के रूप में कांग्रेस का पूरे देश में भले ही थोड़ा बहुत हो लेकिन समर्थन तो बना हुआ है. जो भी चुनावी सफलता मिलती है वह इस नींव का परिणाम है. किसी की पर्सनेलिटी के कारण अगर सक्सेस मिल रही होती तो गांधी परिवार को सत्ता से बाहर होना नहीं पड़ता.

   इतना अवसर देने के बाद भी राहुल गांधी जब अपनी वांछित सफलता नहीं हासिल कर सके तो फिर शायद गांधी परिवार प्रियंका प्रयोग को भी आजमाना चाहता है. सियासत में बेटियों को आगे आने का तो संवैधानिक माहौल बन चुका है. संसद और विधानसभाओं में नारी शक्ति को आरक्षण का लाभ अगले लोकसभा चुनाव तक महिलाओं को मिलेगा ही. कांग्रेस में तो बीस साल तक प्रतीक्षा और अलग-अलग तरीके से राहुल यान  को लांच किया. हर लॉन्चिंग अंततः वांछित लेंडिंग नहीं पा सकी. प्रियंका गांधी की अपील और पब्लिक कनेक्ट  निश्चित रूप से ही पुराने अनुभवों को मात दे सकती है.

   आपातकाल पर बनी फिल्म इमरजेंसी अभी रिलीज नहीं हो पाई है. जो ट्रेलर सोशल मीडिया में दिखाई पड़े हैं, उसमें इंदिरा गांधी का कैरेक्टर निभाने वाली हीरोइन कंगना रनौत भी इंदिरा गांधी का फील दे रही हैं. अब तो वह सांसद बन चुकी हैं. इंदिरा गांधी की सकारात्मक छवि भुनाने का वक्त भी शायद अब नहीं बचा है? दूसरी तरफ उनकी नकारात्मक इमेज के लिए इम्युनेशन कम नही है. अगर राहुल गांधी के पहले प्रियंका यान को लांच किया जाता तो शायद इस छवि को भुनाया जा सकता था.

   अब तो धीरे-धीरे प्रियंका वाड्रा भी सियासी झंझावतों में उलझ गई हैं. दामाद जी भी बहुचर्चित कर दिए गए हैं. बीजेपी उन्हें टारगेट ही करती है. उनके काम धंधे और जमीनों से उनका प्यार कांग्रेस को कई बार संकट में डालता है. उनकी राजनीतिक आकांक्षाएं भी हैं. गांधी परिवार के भीतर सियासी खींचतान के नजारे कई बार देखे गए हैं.

   सियासत के स्तर पर कोई चर्चा ही बेमानी होगी. हर दिन गिरावट का नया रिकॉर्ड बन जाता है. चुनाव मैदान में उतरने का मतलब किसी का कुछ भी छुपा नहीं रह सकता. प्रियंका गांधी में कांग्रेस नवीन संभावनाएं देख रही है. शायद गांधी परिवार भी अपने पहले प्रयोग से असंतुष्ट होकर नए प्रयोग को स्वीकार कर रही है.