• India
  • Thu , Dec , 12 , 2024
  • Last Update 03:09:PM
  • 29℃ Bhopal, India

अडानी मुद्दे पर, नादानी से बटा विपक्ष

सार

    बहुत दिनों बाद संसद चली, सर्व दलीय बैठक हुई, संविधान पर चर्चा की सहमति बनी, विपक्षी गठबंधन  ने अडानी का मुद्दा छोड़ दिया, राहुल गांधी के एजेंडे पर विपक्ष बंटा दिखा. अडानी पर भ्रष्टाचार के पेशकश के आरोपों में जो सरकारें विवाद  में हैं, वह सब गैर भाजपा शासित हैं..!!

janmat

विस्तार

    विपक्षी गठबंधन की सरकारों में अडानी समूह के पूंजी निवेश और व्यापार के कारण उस समूह को अनैतिक और संदिग्ध बताने की कांग्रेस की कोशिशें पर मजबूरी में विराम लगाना पड़ा. तृणमूल कांग्रेस, वाम मोर्चा और यहां तक की सपा भी अडानी मुद्दे से किनारा करने लगी. राहुल गाँधी भले ही इस मुद्दे पर अपनी जिद पर अड़े रहें लेकिन इससे उनकी गठबंधन राजनीति ज़रूर अटक सकती है.

    महाराष्ट्र की जीत के बाद बीजेपी का जोश हाई है. कांग्रेस के हालात चुनाव दर चुनाव खराब होते जा रहें हैं. संविधान पर फेक नेरेटिव भी एक्सपोज़ होता जा रहा है. अब जब संसद में संविधान के 75 साल पर चर्चा होगी, तो निश्चित रूप से निशाने पर कांग्रेस ही होगी. संविधान में सर्वाधिक संशोधन कांग्रेस की सरकारों  के कार्यकाल में ही किए गए हैं. यहां तक कि संविधान की प्रस्तावना में भी बदलाव किया गया है. 

    इमरजेंसी का काला अध्याय तो, कांग्रेस को हमेशा से ही परेशानी में डालता रहा है. जम्मू कश्मीर में बीजेपी सरकार द्वारा धारा 370 हटाने के बाद, केंद्र शासित प्रदेश के रूप में बनी पहली कांग्रेस-नेशनल कांफ्रेंस गठबंधन की सरकार द्वारा इसके खिलाफ़ विधानसभा में प्रस्ताव पर भी कांग्रेस का घिरना निश्चित है.

    आने वाले वक्त में दिल्ली और बिहार में विधानसभा के चुनाव संभावित हैं. इन दोनों राज्यों में वैसे ही कांग्रेस की संभावनाएं गठबंधन पर टिकी हुई थीं. दिल्ली में तो आम आदमी पार्टी से गठबंधन समाप्त हो गया है. बिहार में भी जनता दल के साथ गठबंधन में कई गांठें उभर गई हैं. 

    बैलेट पेपर पर चुनाव की मांग भी कांग्रेस के लिए प्रतिगामी खबर ही साबित होगी. संविधान पर चर्चा के दौरान जाति जनगणना का मुद्दा भी छाया रह सकता है. आरक्षण तो संविधान का सबसे महत्वपूर्ण सियासी दांव है. इस पर भी केंद्र सरकार विपक्ष के फेक नेरेटिव पर अपना संवैधानिक कमिटमेंट संसद में रख सकती है.

    वक्फ बोर्ड संशोधन कानून पर जेपीसी का कार्यकाल बढ़ाया जा चुका है. इसलिए इस सत्र में इस पर विवाद की संभावना नहीं बन रही है. संविधान पर चर्चा सरकार के लिए एक सकारात्मक अवसर होगा, तो कांग्रेस निश्चित रूप से चर्चा में फंसेगी.

    राहुल गांधी कांग्रेस कार्य समिति में पार्टी की विचारधारा में स्पष्टता की जरूरत बताते हैं, लेकिन उनके मुद्दे वैचारिक से ज्यादा वैयक्तिक प्रवृत्ति के दिखाई पड़ते हैं. अडानी-अंबानी को लेकर उन्होंने जिस तरह का रवैया अपनाया उसको ना जनता द्वारा पसंद किया गया और ना ही उद्योग जगत में उस पर भरोसा किया गया. न्यायिक मामलों में सियासी गतिविधियों को हमेशा अविश्वास की नजर से ही देखा जाता है. 

   अडानी मामले पर भी चर्चा की जाए तो जिन राज्यों में रिश्वत देने की पेशकश की गई है, उनमें आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ शामिल हैं. जिस मुद्दे को न्यायिक प्रक्रिया के अंतर्गत ही सीमित रखना चाहिए था, उसे राहुल गांधी ने ऐसा सियासी रंग दिया, कि अब कांग्रेस और उनके गठबंधन दलों की सरकारें ही उससे घिर गई हैं.

    कांग्रेस को इस बात का उत्तर जरुर देना पड़ेगा, कि उनकी सरकार में अगर रिश्वत की पेशकश की गई है, इसका मतलब स्पष्ट है, कि कांग्रेस की सरकारों ने अडानी समूह के साथ व्यापार किया है. जिस समूह को राहुल गांधी करप्ट और अनैतिक स्थापित कर रहे हैं, उस समूह के साथ व्यापार करने की जिम्मेदारी से कांग्रेस की सरकारें मुक्त नहीं हो सकतीं. 

    सार्वजिनक जीवन में कोई भी मुद्दा उतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितना महत्वपूर्ण उसे उठाने वाला होता है. अगर ऐसा मुद्दा उठाया जाए जिसे बाद में अपने आप मजबूरी में छोड़ना पड़े तो फिर इससे नेता की विश्वसनीयता पर संकट खड़ा हो जाता है. 

    महाराष्ट्र चुनाव के समय राहुल गांधी ने तिजोरी के जरिए पीएम मोदी और अडानी के पोस्टर ऐसे सार्वजनिक किए थे जैसे कोई प्रामाणिक आरोप लगा रहे हों. विधानसभा चुनाव परिणामों ने कांग्रेस को इतिहास की अब तक की सबसे बड़ी पराजय देकर देश के औद्योगिक राज्य ने उद्योग समूहों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण को पूरी तरह से नकार दिया है.

    एक तरफ जनादेश में राहुल गांधी का मुद्दा धराशाई हुआ और दूसरी तरफ उनके गठबंधन में इसको लेकर दरार पैदा हो गई. पहले भी इस मुद्दे पर शरद पवार जैसे नेताओं ने सवाल खड़े किए थे, कि राहुल गांधी को उद्योग समूह के प्रति इस स्तर पर बयानबाजी नहीं करना चाहिए. 

    राहुल गांधी संसदीय ओरेटर नहीं माने जाते हैं. जब भी वह संसद में बोलते हैं तब कोई ना कोई विवाद खड़ा कर देते हैं. यह भी विवाद ऐसे होते हैं, जिसका नुकसान उन्हें ही उठाना पड़ता है. नेता प्रतिपक्ष के रूप में संसदीय परफार्रमेंस किसी भी नेता के लिए जनमत बनाता है. 

    राहुल गांधी की संविधान की राजनीति भी कांग्रेस को संकट में धकेलती दिखती है. इंदिरा गांधी ने संविधान में सेकुलर शब्द जोड़ा था. सेकुलर मतलब संविधान धर्मनिरपेक्ष है. धर्मनिरपेक्ष संविधान में धार्मिक कानूनों को मान्यता कैसे दी जा सकती है.

   सेकुलर संविधान समान नागरिक संहिता की अनुशंसा करता है, तो फिर शरिया कानून को मान्यता देने की कांग्रेस की संवैधानिक गलती जनमानस को उद्वेलित कर रही है. सेकुलर संविधान वाले राष्ट्र में पर्सनल लॉ माइनॉरिटी कमीशन जैसे धार्मिक विचारों पर आधारित व्यवस्थाओं को कैसे जारी रखा जा सकता है. 

    देश में जैसे-जैसे राजनीतिक जागरूकता और शिक्षा बढ़ रही है, वैसे-वैसे कांग्रेस द्वारा संविधान के साथ की गई छेड़छाड़ और गलतियां जन मानस तक पहुंच रही हैं. दुर्भाग्य देखिए कि जिस कांग्रेस को संविधान की सार्वजनिक राजनीति से बचना चाहिए, राहुल गांधी उसी को अपनी राजनीति का मोहरा बना रहे हैं. जब-जब संविधान पर ध्यान जाएगा तब-तब कांग्रेस की संवैधानिक गलतियों पर ध्यान जाएगा और इसका खामियाजा कांग्रेस को ही भुगतना पड़ेगा. 

    अपरिपक्व राजनीति वैचारिक पतन का स्वयं प्रबंध सुनिश्चित करती है. कांग्रेस ऐसे ही प्रबंधकों के अदूरदर्शी सोच और समझ से न केवल अपने इतिहास की गलतियों को स्वयं जनमानस तक पहुंचा रही है. बल्कि भविष्य की संभावनाओं को भी सीमित कर रही है. कांग्रेस संविधान के नाम पर सांप सीढ़ी का खेल, खेल रही है. अब तक जिस सीढ़ी पर कांग्रेस पहुंची है, उससे नीचे पहुंचने में अपरिपकता और वैचारिक मूर्छा पर्याप्त होगी.