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एकात्मवाद पर, भारी भ्रष्टाचारवाद 

सार

पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जनसेवा और एकात्म मानववाद से प्रेरित होकर मध्यप्रदेश सरकार ने गरीबों को भोजन देने के लिए दीनदयाल रसोई योजना लागू की. योजना की बड़ी तारीफ हुई.  वैसे तो यह योजना पहली बार 2017 में शुरू की गई थी लेकिन इसे बाद में कई चरणों में विस्तार किया गया..!!

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विस्तार

    अब यह उजागर हुआ है कि दीनदयाल अंत्योदय रसोई योजना सिर्फ घोटाले की योजना बनकर रह गई है. यह खबर सच है या सच से दूर है?  यह तो सरकार ही बताएगी लेकिन खबर सामने आने के साथ ही पंडित दीनदयाल उपाध्याय का नाम जरूर घोटाले से जुड़ गया है. 

    जिस महापुरुष ने अपना पूरा जीवन जनसेवा और राष्ट्र के लिए समर्पित किया. अंत्योदय, जिसका सपना था. उसके नाम पर बनी अंत्योदय योजना में घोटाले की खबर से उसका नाम बदनाम हुआ है. तो इसके लिए क्या इस योजना का नामकरण करने वाले जिम्मेदार नहीं होंगे?

    देवी देवताओं या महापुरुषों के नाम पर चलचित्र में या विज्ञापनों में जब कभी मार्केट की शक्तियां दुरुपयोग करती हैं, तब उस पर तीखी प्रतिक्रिया होती है. राजनीतिक क्षेत्र से भी प्रतिक्रियाएं आती हैं. 

  सरकार की योजना का नामकरण अक्सर सरकारें अपनी विचारधारा और पूर्वजों के नाम पर करती रही हैं. पंडित दीनदयाल के नाम पर तो बहुत कम योजनाओं का नाम होगा. भारत में तो नेहरु-गांधी के नाम से ना मालूम कितनी योजनाएं, कितने भवन और मार्ग स्थापित होंगे. योजनाओं में जितने उनके नाम को प्रचार मिला है, उससे अधिक योजनाओं में गड़बड़ियों के लिए बदनामी का शिकार होना पड़ा है.  

    योजनाएं बनाने वाले, किसी भी महापुरुष के नाम पर उनका नामकरण करते हैं तो उनकी जिम्मेदारी होती है कि उन योजनाओं को पूरी ईमानदारी से बिना घोटाले के लागू किया जाए. महापुरुष के नाम की छवि चमके ना कि योजना में नामकरण के चलते महापुरुष की छवि को धक्का लगे. 

    महापुरुषों के प्रति संभवतः संवेदनशीलता समाप्त होती जा रही है. हम उनके नाम का उपयोग करना चाहते हैं लेकिन उन्होंने वो नाम बनाने के लिए जो आचरण किया था, जो कर्म किया था,उस पर नहीं चलना चाहते. 

    दीनदयाल रसोई योजना भी करप्शन के गुरुत्वाकर्षण का शिकार हो गई है. करप्शन का गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से भी ज्यादा है. अगर यह गुरुत्वाकर्षण काम नहीं करे तो शायद सरकारी प्रक्रिया की गति और सुस्त हो जाएगी.

    पंडित दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्रीय स्वयंसेवक  संघ एवं भाजपा की विचारधारा के लिए न केवल पूज्यनीय है, बल्कि उनके लिए आदर्श हैं. जनसंघ के संस्थापक पंडित  उपाध्याय उस विचारधारा के जनक कहे जा सकते हैं, जिस विचारधारा का राजनीतिक सूर्य आज देश में चमक रहा है.

    सरकारों को महापुरुषों के नाम पर सरकारी योजनाओं के नामकरण पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है. अनुभव यही बताते हैं कि कोई भी योजना करप्शन फ्री नहीं रह पाती. आगे पीछे जनधारणा में यह बात स्थापित ही हो जाती है कि योजना में करप्शन हो रहा है, जब ऐसी योजना के बारे में विरोधी चर्चाएं आरंभ होती हैं, तो फिर उस महापुरुष के नाम को भी घसीटा जाता है. जिसके नाम पर योजना का नामकरण किया गया है.

    अक्सर दिवंगत महापुरुषों के नाम पर ही योजनाओं का नामकरण किया जाता है. उनके प्रति श्रद्धा और सम्मान के लिए ऐसा किया जाता है लेकिन कालांतर में श्रद्धा और सम्मान का यह प्रयास, अपमान और निंदा का कारण बन जाता है. ऐसी परिस्थितियों में सरकारी योजनाओं से कम से कम महापुरुषों का नाम तो नहीं जोड़ना चाहिए. 

    सरकारें बदलने पर योजनाएं और उनके नाम बदल ही जाते हैं लेकिन कई बार बदनामी के कारण भी योजनाओं को बंद किया जाता है. ऐसी अनेक योजनाओं के उदाहरण उपस्थित हैं, जहां योजनाओं में गड़बड़ियों के कारण उन्हें  बंद कर दिया गया था. यह बात अलग है, कि योजनाओं के साथ जुड़े महापुरुषों के नाम को भी योजनाओं के साथ निंदा करते समय जोड़ा जाता है.

    दीनदयाल रसोई योजना के संबंध में उजागर हुई मीडिया रिपोर्ट में जो घोटाले बताए गए हैं, उन पर राज्य सरकार द्वारा स्पष्टीकरण जरूर दिया जाना चाहिए. योजना के लिए नहीं तो कम से कम पंडित दीनदयाल उपाध्याय के नाम की बदनामी के कारण जरूर देना चाहिए. 

    भौतिक जगत में नाम की उपयोगिता है. आध्यात्मिक जगत में तो नाम अर्थ हीन है. यहां तक कि परमात्मा ही अनाम है. राजनीतिक जगत में तो नाम का ही बोलबाला है. नाम की ही विश्वसनीयता और जन स्वीकार्यता सत्ता तक पहुंचाती है. नाम पर बदनामी ही सत्ता से उतारती है. इसलिए राजनीतिक जगत में तो नाम की महत्ता की रक्षा करना बहुत जरूरी है. पूरा राजनीतिक जगत नाम और बदनाम के बीच खेल खेलता है. पब्लिक विवेक से अपना निर्णय कर लेती है. 

    सैद्धांतिक रूप से महापुरुषों के नाम को सरकारी योजनाओं की बदनामी से बचाने का एक रास्ता तो यही हो सकता है कि महापुरुषों के नाम पर योजनाओं का नामकरण ही बंद कर दिया जाए. क्योंकि सरकारी योजना में करप्शन की संभावनाएं रोकना तो शायद किसी के बस में नहीं है. हर राजनीतिक दल अपने आदर्श और प्रतीक महापुरुष को योजनाओं का नामकरण करके भले ही श्रद्धांजलि देता हो लेकिन कालांतर में इसका दुरुपयोग होता है. 

    पंडित दीनदयाल के आदर्श, समर्पण और संदेशों पर आस्था रखने वालों को इस पर बहुत बैचनी होती होगी. जब उनके नाम की योजना नटवरलालों का शिकार हो जाती है. सरकारें जब योजनाएं बनाती हैं, तब उनका एप्रोच प्रैक्टिकल नहीं होता. 

    कोई व्यक्ति जो रुपये पांच में भरपेट भोजन करने के लिए दीनदयाल रसोई योजना में जा रहा है, उसका फोन नंबर रजिस्टर्ड किया जाता है. योजना बनाने वाले यह मानते हैं कि जो रसोई में आएगा उसके पास फोन होगा और फिर इस फोन को बार-बार रजिस्टर करके अनुदान के रेवड़ी घोटालीबाज ले जाएंगे. 

    पंडित दीनदयाल पर दया जरूरी है. सरकारी योजनाओं की कीचड़ में दीनदयाल को प्रकट करने से तो बेहतर स्थिति उनके अनाम रहने से ही होगी. कमल कीचड़ में खिलता होगा लेकिन खिलने के बाद कीचड़ में मिलाया नहीं जाता.