मुख्यमंत्री का पद कांटों का ताज होता है. सिंहासन का पहला साल सजगता, सहजता और चाल साधने का साल होता है. पहले साल की सत्ता की नाव पर कई पतवार अपने आप खड़ी हो जाती हैं. शासन और पार्टी दोनों जगह संतुलन तो साधना ही होता है..!!
जो भी पहली बार नेता चुना जाता है, उसे बहुत सारे ईगो सेटिस्फाई करने होते हैं. एलीट वर्ग में अपनी पहचान स्थापित करना होता है. ब्यूरोक्रेसी को सही डायरेक्शन देना होता है. शासन की वीणा के तारों को ढीला और कसना पड़ता है, ताकि उससे मधुर संगीत निकल सके. तंत्र की स्वर लहरियों में स्वार्थ-निस्वार्थ और जनहित को सुनना और गुनना पड़ता है.
स्वरों को साधना पड़ता है. सुधारना पड़ता है, जरूरत पड़ने पर टाइट भी करना पड़ता है. जनकल्याण का दायित्व निभाना पड़ता है. इसी बीच चुनाव से भी निपटना पड़ता है. जनता के बीच पहुंचकर पब्लिक कनेक्ट और जनहितैषी इमेज को निर्मित करना पड़ता है.
मुख्यमंत्री के पहले साल को आंकड़ों में उपलब्धि के नजरिए से देखना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना विजन और गवर्नेंस विजडम पर मूल्यांकन करना ज़रूरी है.
सत्ता संघर्ष के कठिन दौर में मुख्यमंत्री पद पर पहुंचना, चांद पर पहुंचने से कम नहीं है. दो दशकों में बीजेपी ने मध्य प्रदेश को चार मुख्यमंत्री दिए हैं. उमा भारती तो अपना पहला साल पूरा नहीं कर पाईं. बाबूलाल गौर तो भोपाल के ही मुख्यमंत्री कहे जाते थे. इनका पूरा कार्यकाल उमा भारती की साया और संगठन की छाया के बीच खींच-तान में निकल गया.
शिवराज सिंह चौहान का पहला साल भी उथल-पुथल भरा ही रहा. कई बार तो ऐसा लगा कि उनके सत्ता का प्लेन क्रैश होने वाला है, लेकिन संतुलन की उनकी साधना ने लंबे कार्यकाल का रिकॉर्ड बनाया. मोहन यादव का पहला साल ना उथल-पुथल भरा रहा ना खींच-तान दिखाई दी. सरकार, संगठन, परिवार और जनहित के सरोकारों में मोहन की चाल बहुत सजग, गतिमान, दृढ और मजबूत रीढ़ वाली दिखी.
संगठन से तालमेल दिखा. सत्ता साकेत से परिवार को दूर रखा. पहले तो मुख्यमंत्री के परिवार सत्ता साकेत में चर्चा के केंद्र होते थे. मोहन की पत्नी तो सत्ता साकेत से बहुत दूर हैं. जबकि पहले इससे उलट प्रदेश ने देखा है,पांव-पांव वाले भैया के बाद, मोहन ने भाग दौड़ और दौरों के मामले में तो नया रिकॉर्ड बनाया है. कोई ऐसा दिन नहीं होगा, जब वह कहीं ना कहीं दौरे पर नहीं जा रहे हों. एक साल में सभी जिलों का दौरा कर चुके होंगे.
गवर्नेंस एक कंटीन्यूअस प्रोसेस है. मोहन यादव ने इस प्रक्रिया को तेज गति दी है. उनको मंत्री रहने का अनुभव था, इसलिए सरकार की गति में कोई अवरोध नहीं आया. सब कुछ पहले जैसा चलता दिखा. जन कल्याण पर्व मनाया जा रहा है. योजनाओं के लोकार्पण और भूमिपूजन भी हो रहे हैं. पूर्व अनुसार कर्ज लेकर विकास भी किए जा रहे हैं.
लाड़ली बहनों के खातों में अमाउंट भी ट्रांसफर हो रहा है. अधिकारियों कर्मचारियों को सारे हक दिए जा रहे हैं. इन्वेस्टमेंट के दौरे हो रहे हैं. ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट की प्लानिंग हो रही है. रीजनल इंडस्ट्रियल कॉन्क्लेव हो रहे हैं. सारी योजनाओं को चलाया जा रहा है. कमिटमेंट के अनुसार खातों में रुपए डाले जा रहे हैं.
कन्टिन्यूटी तो है, लेकिन इनोवेशन की तलाश है. जिंदगी में पुरानी राख भी है और नए अंगार भी हैं. सवाल केवल दृष्टि का है. पुराना तो राख होता है. अंगार तो नयापन है. पुराना उबाऊ होता है, नएपन में जीवन होता है.
सीएम डॉ. मोहन यादव तलवारबाजी में सिद्धहस्त हैं. कभी भी तलवारबाजी पर वह हाथ आजमा लेते हैं. सजग ध्यान की समग्रता के बिना तलवारबाजी हो नहीं सकती. तलवारबाजी अटैक के साथ प्रोटेक्शन का अटेंशन है. तलवारबाजी और पॉलिटिक्स की कला हमले और बचाव का संतुलन है. तलवारबाजी का हुनर रखने वाला पॉलिटिक्स का हुनर पा ही जाएगा इसमें कोई संदेह नहीं है. मोहन यादव की पर्सनलिटी भी यही साबित कर रही है.
सीएम मोहन में नए की तलाश दिखती है. सोशल मीडिया पर भी उनकी गहरी नजर है. कुछ नया और मौलिक दिखता है, तो वह न केवल उस पर ध्यान केंद्रित करते हैं बल्कि सृजन की प्रशंसा करते हैं. उनकी दृढ़ता का असर काम-काज में दिखता है.
बीआरटीएस का टूटना और लंबे समय के बाद लोक परिवहन का प्रारंभ होना, मोहन यादव की दृढ़ता और जमीनी अनुभव कहा जाएगा. जिन राजनीतिक हालातो में मोहन यादव को मुख्यमंत्री का पद मिला है, उसमें जीत का नायक कोई और था. नायक अपने लिए सिंहासन चाहता था लेकिन शीर्ष नेतृत्व ने मोहन यादव को चुना. पहले साल में यह तो दिखता ही है, कि पीएम मोदी और गृहमंत्री अमित शाह का मोहन यादव पर अटूट भरोसा है. निश्चित ही इस भरोसे का लाभ प्रदेश को मिलेगा.
जब भी सत्ता के सिंहासन पर मजबूत रीढ़ वाला होता है, तब झुक-झुककर, मिल-जुलकर हित साधने वाले रीढ़ विहीन रखवालो को प्रॉब्लम होती है. ब्यूरोक्रेसी को तो रीढ़ विहीन ही कहा जाता है. इस समय देश में गवर्नेंस का कॉम्पटीशन है. पीएम मोदी के रूप में गवर्नेंस का नया दौर है. हर मुख्यमंत्री को गवर्नेंस क्षमता और उपलब्धि साबित करना पड़ता है. भले ही मोहन यादव अभी सहज और सरल ही दिख रहे हों, लेकिन उनमें गवर्नेंस की काबिलियत, दृढ़ता, नयापन पहचानने की क्षमता विद्यमान दिखती है.
पुरानी योजनाओं की गति बढ़ाने पर उनकी दृष्टि है तो एडमिनिस्ट्रेशन में मोहन सोच को इंजेक्ट करने में भी, लगे हुए हैं. कृष्ण पाथेय मोहन का सोच है, तो गीता दर्शन को मोहन सरकार प्रेरणा मानती है. गोवर्धन पूजा और गौपालन गांव गरीब के प्रति सरकार की दृष्टि बताती है.
महाकाल की नगरी उज्जैन आध्यात्मिक राजधानी बन गई है, तो यह भी मोहन यादव की ही दृष्टि है. शासन का धर्मस्व विभाग उज्जैन पहुंच चुका है. भले ही इसे निर्वाचन क्षेत्र और अपने नगर के स्वार्थ के रूप में ही देखा जाए. लेकिन मोहन यादव ने अपने क्षेत्र और नगर के विकास के लिए एक साल में अनेक नई योजनाएं प्रारंभ की हैं, जो अपने नगर के लिए समर्पित है, वही राज्य के लिए भी समर्पित हो सकता है. समर्पण एक भाव है. वह किसी स्थान के लिए नहीं होता, वह तो व्यक्ति का गुण होता है.
मुख्यमंत्री के पहले साल का मूल्यांकन किसी भी रूप में किया जाए, लेकिन इसका वास्तविक मूल्यांकन तो फाइनल सेमेस्टर के बाद जनादेश की कसौटी पर आएगा. हर कदम और हर चाल भविष्य की जीत का मार्ग प्रशस्त करे, यही संगठन की अपेक्षा होती है, यही शीर्ष नेतृत्व चाहता है.
मोहन यादव में मौलिकता है. पढ़े-लिखे वे काफी हैं, लेकिन उनके व्यक्तित्व से अंग्रेजियत नहीं बल्कि भारतीयता झलकती है. सिंहस्थ की तैयारी चालू हो गई है. सिंहस्थ मोहन यादव के लिए बड़ा चैलेंज है. सीएम का पहला साल चुनावी नजरिए से लोकसभा में तो डिस्टिंक्शन में रहा, सभी 29 सीटें पहली बार मोहन की लीडरशिप में पार्टी ने जीतीं. लेकिन विजयपुर की हार ने थोड़ा झटका दिया है.
विश्व एक बड़े गांव के रूप में हो गया है. गवर्नेंस के मामले में राज्य और देश की सीमाएं बहुत मायने नहीं रखतीं. प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री, दूसरे नेता क्या कर रहे हैं, सब कुछ इंस्टेंट उपलब्ध होता है. हर दिन एंटी इनकम्बेंसी पलती रहती है. चुनाव के समय इसका असर दिखता है. अब तो प्रो इनकमवेंसी परिणाम बदलने लगी है. मोहन की इफिशिएंसी प्रो इनकम्बेंसी प्रमाणित करेगी. एमपी के भाल पर मोहन का पहला साल बॉक्स ऑफिस पर सफल ही कहा जाएगा.