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कागजी गारंटी नहीं होती आचरण की गारंटी 

सार

मध्यप्रदेश की अगली सरकार चुनने के लिए मतदान से पहले राजनीतिक दलों ने अपने आखिरी दांव चले हैं. समाचार पत्रों में कांग्रेस की ओर से शपथपत्र पर वचन पूरे करने की गारंटी दी गई है तो बीजेपी की ओर से चुनावी वादों की पूर्ति के लिए मोदी की गारंटी को भाजपा का भरोसा बताया गया है..!!

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विस्तार

चुनाव में जनता के सामने वचनबद्धता और भरोसा बढ़ाने के लिए सभी तरह के जतन किए जाते हैं लेकिन यह पहला अवसर है जब कांग्रेस की ओर से जनता की अदालत में कानूनी भाषा में शपथ पत्र के स्वरूप में संकल्प व्यक्त किया गया है. कांग्रेस के इस शपथ पत्र के संकल्प में सभी 230 विधानसभा क्षेत्र के प्रत्याशियों के नाम और उनके हस्ताक्षर हैं. 

भ्रष्टाचार मुक्त और प्रगतिशील मध्यप्रदेश शपथपत्रों से नहीं सियासी आचरण से निर्मित होगा. शपथपत्र कभी भी आचरण की गारंटी नहीं होते. जनधारणा पर विश्वास किया जाये तो शपथपत्र अक्सर झूठे तथ्यों को कानूनी जामा पहनाने के लिए उपयोग में लाये जाते हैं. शपथपत्रों की कानूनी मान्यता हो सकती है लेकिन इसकी नैतिक शक्ति जनधारणा में तो बिल्कुल ही स्वीकार नहीं की जाती है.

‘प्राण जाए पर वचन न जाए’ की संस्कृति वाले भारत में सियासी आचरण के कारण ही ऐसी स्थिति निर्मित हुई है कि अब राजनीतिक दलों को शपथ पत्रों का सहारा लेना पड़ रहा है. लोकतंत्र विश्वास के बहुमत की व्यवस्था है लेकिन दुर्भाग्य से राजनीति में विश्वसनीयता अंतिम सांस ले रही है. मध्यप्रदेश के चुनाव में खून के रिश्ते भी सियासी टकराव के लिए दांव पर लगाए गए हैं. जब खून के रिश्ते राजनीति में कोई मायने नहीं रखते तो फिर शपथ पत्रों का और चुनावी गारंटियों का क्या वजूद हो सकता है?

कांग्रेस को शायद शपथपत्र पर गारंटी इसलिए देनी पड़ रही है क्योंकि पिछली बार वह अपने विधायकों को एकजुट नहीं रख सकी थी. राष्ट्रपति के निर्वाचन में भी कांग्रेस के कुछ विधायकों ने पार्टीलाइन के खिलाफ जाकर मतदान किया था. राजनीति में दलबदल और बगावत सत्ता का रूप तय करने लगे हैं. मतदान के पहले जनता को यह विचार करना है कि जिस प्रत्याशी के पक्ष में वह मतदान कर रही है क्या जीत के बाद वह नेता उसी पार्टी में रहेगा? 

कड़ी टक्कर के चुनाव में अगर कोई भी दल बहुमत से दूर रहता है तो फिर तीसरे दल और निर्दलियों के साथ ही विधायकों की खरीदफरोख्त सत्ता की राजनीति की गारंटी ही बनेगी. चुनावी राजनीति के लिए जाति और धर्म का उपयोग कर जो लोग राष्ट्र की एकता की गारंटी को भी कमजोर करने से नहीं चूकते हैं उनकी कागजी शपथ पत्र की गारंटी का कोई औचित्य नहीं हो सकता.

संसदीय व्यवस्था की इसे उपलब्धि या गिरावट मानी जाए कि नेताओं को अपने वचन की विश्वसनीयता के लिए शपथ पत्र की कानूनी व्यवस्था का सहारा लेना पड़ रहा है. एक दौर था जब राजनेताओं के नाम पर जनता शपथ लेती थी. जनता इतना विश्वास करती थी कि हमारे जननेता ने जो भी कहा है वह पत्थर की लकीर है. उसमें कोई मिलावट बेईमानी और दोगलापन नहीं होगा. राजनीति में नैतिकता आचरण में दिखती थी. जब कभी भी आचरण विश्वसनीयता खो देता है तो फिर कागजी आधार को ही विश्वसनीयता की मजबूती के लिए उपयोग करना मजबूरी होती है.

ऐसी ही मजबूरी राजनीतिक दलों के सामने आज है. चुनावी वादों और घोषणा पत्रों की तो कोई विश्वसनीयता बची नहीं है. इसकी कोई कानूनी मान्यता भी नहीं है. चुनाव आयोग भी चुनावी घोषणा पत्र पर कोई कानूनी अधिकार नहीं रखता है. अब तो घोषणा पत्र को वचनपत्र और संकल्पपत्र का नाम देकर योजनाओं की गारंटी का जामा पहनाया जाने लगा है.

मध्यप्रदेश की ही राजनीति का किस्सा है. कहा जाता है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू रीवा में चुनावी सभा में आए थे. वहां पहुंचने के बाद उन्हें यह बताया गया कि जिस प्रत्याशी के पक्ष में वे प्रचार करने आए हैं उस पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं तो उन्होंने ऐसे प्रत्याशी के समर्थन में जनता से वोट मांगने से इनकार कर दिया था. 

एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक बीते चुनाव में चुने गए 93 प्रत्याशियों पर अपराधिक मामले हैं. इनमें से 39 भाजपा और 52 कांग्रेस के हैं. जो राजनीतिक दल अपनी वचनबद्धता के लिए शपथ पत्र का सहारा ले रहे हैं उनको बेदाग प्रत्याशी भी राज्य में नहीं मिल पाते हैं .

सभी प्रत्याशियों के हस्ताक्षर के साथ शपथ पत्र के स्वरूप में संकल्प व्यक्त करना हास्य व्यंग के अलावा कुछ भी नहीं कहा जा सकता. जो प्रत्याशी जीतेंगे उनकी तो छोड़ दीजिए लेकिन जो हारेंगे वह फिर क्या अपने बड़े नेताओं से मुलाकात कर पाने में भी सक्षम हो पाएंगे? ‘चलो-चलो’ का आचरण और विधायकों के बीच समन्वय की कमी ही कांग्रेस की सरकार के पतन का कारण बनी थी. जो लोग आज शपथपत्र पर हस्ताक्षर कर रहे हैं, उनका खुद का भविष्य भी उन्हीं नेताओं के हाथ में है जो चुनावी अभियान चला रहे हैं.

सियासत अब केवल सत्ता के लिए ही रह गई है. सत्ता में भी परिवारवाद और पट्ठावाद सबसे महत्वपूर्ण साबित होता है. अगर हर विधायक की ताकत और भूमिका लोकतांत्रिक सिस्टम में कायम रहे तो फिर व्यवस्था में कुछ सुधार की उम्मीद की जा सकती है. केवल चुनाव और बहुमत के लिए ही निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की उपयोगिता होगी तो फिर सत्ता संसाधन और सुविधाओं के बंदरबांट में ताकत के मुताबिक हिस्सेदारी ही एकमात्र लक्ष्य होता है.

भ्रष्टाचारमुक्त राज्य की बात तो महाझूठ सी लगती है. राजनीति में विरोधी को भ्रष्टाचारी और स्वयं को सदाचारी साबित करने की प्रवृत्ति अब पूरी तौर से एक्सपोज हो गई है. देखा तो यह जा रहा है कि समय के साथ भ्रष्टाचार की संभावनाएं खत्म होने की बजाय बढ़ती ही जा रही हैं, जो जितना खाली है वह मौका आने के साथ ही सबसे पहले भरने में उतनी ताकत से ही लग जाता है.

जनता के सामने धर्म संकट सा है. जाति-संप्रदाय और दलों के बीच विभाजन के कारण निर्वाचन में योग्यता और राज्य का विकास दूसरे पायदान पर खिसक जाता है. मतदान के दिन फिक्र के साथ तोल-मोल कर पीढ़ियों के भविष्य और स्वयं के गर्व के लिए भरपूर मतदान ही एकमात्र रास्ता है. जितना मतदान बढ़ेगा, उतना ही राजनीति में जातिवाद- सम्प्रदायवाद, पाखंड और दोगलापन रुकेगा. शपथ पत्र नहीं आचरण और इतिहास देखकर भविष्य की नींव बनाने के लिए मतदान जरूर करिए.