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संसद : उथल-पुथल भरा होगा, विशेष सत्र 

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Mon , 22 Feb

सार

प्रश्न यह है कि क्या संसद से विधानसभाओं की अवधि बढ़ाने या घटाने का संवैधानिक संशोधन प्रस्ताव भी पारित कराया जा सकता है?

janmat

विस्तार

18-22 सितंबर के 5 दिनों का संसद का विशेष सत्र, 17 वीं लोकसभा का निर्णायक, और अंतिम सत्र भी हो सकता है। इसके मद्देनजर, यदि ‘एक देश, एक चुनाव’ का बिल पारित भी किया जाता है, तो वह एकदम पूरे देश पर लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव बीते कुछ माह के दौरान ही हुए हैं अथवा उन्होंने अपने कार्यकाल का प्रथम वर्ष ही पूरा किया है।

सर्व विदित है कि संसद का मानसून सत्र 11 अगस्त को ही स्थगित हुआ है और उसके 38 दिन बाद ही मोदी सरकार ने संसद का विशेष सत्र बुलाया है, शायद यह ‘मास्टर स्ट्रोक’ साबित हो ।संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने 18-22 सितंबर के 5 दिनों में संसद के विशेष सत्र की घोषणा की है, लेकिन एजेंडे का खुलासा नहीं किया है। यह असामान्य कार्यशैली है, क्योंकि स्पीकर के साथ कार्य मंत्रणा समिति की बैठक के दौरान सरकार को संसद सत्र के एजेंडे का खुलासा करना होता है। यही प्रधानमंत्री मोदी की राजनीतिक सोच है। 

प्रश्न यह है कि क्या संसद से विधानसभाओं की अवधि बढ़ाने या घटाने का संवैधानिक संशोधन प्रस्ताव भी पारित कराया जा सकता है? हालांकि चर्चाएं हैं कि सरकार महिला आरक्षण, समान नागरिक संहिता, एक देश एक चुनाव, आरक्षण के प्रावधान की ओबीसी की केंद्रीय सूची आदि पर नए विधेयक पेश और पारित करा सकती है। लोकसभा में महिलाओं के लिए 180 सीटें आरक्षित या बढ़ाई जा सकती हैं। मोदी सरकार ऐसा महिला आरक्षण तय करना चाहती है। अधिकतर प्रस्तावित बिलों के मद्देनजर संविधान में संशोधन करने पड़ेंगे, जिनके लिए कमोबेश दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत अनिवार्य होगा। संविधान संशोधन के कुछ और प्रस्ताव भी संभव हैं। ‘चंद्रयान-3’ भारत की बहुत बड़ी अंतरिक्ष और वैश्विक वैज्ञानिक उपलब्धि है।संसद देश के होनहार और अनुभवी वैज्ञानिकों की ऐसी सफलता पर एक प्रस्ताव ला सकती है। 

भारत की 76 साल की स्वतंत्रता के दौरान जी-20 देशों की अध्यक्षता करना और शिखर सम्मेलन आयोजित करना भी अभूतपूर्व उपलब्धि है। संसद उस पर भी तालियां बजा कर प्रस्ताव पारित कर सकती है। यदि मोदी सरकार ‘एक देश, एक चुनाव’ का विधेयक पेश करती है, तो यह व्यापक राजनीतिक उथल-पुथल का निर्णय होगा। देश की राजनीति ही बदल सकती है, क्योंकि विपक्षी गठबंधन तो फिलहाल शैशव-काल में है। लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ कराना कोई नई व्यवस्था नहीं है। 1950 में संविधान लागू हुआ और 1952 में प्रथम चुनाव कराए गए। 1952, 1957, 1962, 1967 में लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा चुनाव भी कराए जाते रहे हैं । चूंकि 1968 में विधानसभाएं समय-पूर्व भंग की जाने लगीं और 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के कारण लोकसभा चुनाव तय समय से पहले कराए गए, नतीजतन व्यवस्था असंतुलित होती गई। ओडिशा में आज भी दोनों चुनाव साथ-साथ और सफलता से कराए जाते हैं। 

प्रधानमंत्री मोदी 2018-19 से अपने इस मिशन की चर्चा संसद में करते रहे हैं। नीतीश कुमार और अखिलेश यादव सरीखे विपक्षी नेताओं की इस मुद्दे पर सहमति भी रही है। अब विपक्ष कैसे प्रतिक्रिया देगा, यह सामने आ जाएगा, लेकिन क्या चुनाव आयोग, राज्यों के मुख्यमंत्री और सदन, अंतत: सर्वोच्च अदालत आदि कई हितधारक और हिस्सेदारों से परामर्श किया गया है? क्या उनकी सहमति अनिवार्य नहीं है? दरअसल भारत और प्रधानमंत्री मोदी को लेकर अभी एक अंतरराष्ट्रीय एजेंसी ने वैश्विक सर्वेक्षण किया है, जिसका निष्कर्ष है कि करीब 79 प्रतिशत लोग और नेता भारतीय प्रधानमंत्री को पसंद करते हैं। भाजपा इस लोकप्रियता का चुनावी लाभ लेना चाहती है। उसका आकलन है कि यदि साथ-साथ चुनाव होते हैं, तो राज्यों में भी भाजपा को लाभ मिल सकता है।