हजरत मोहम्मद के पैरोकारों के दो अलग-अलग पंथ कर्बला के युद्ध के बाद ही बन गए थे। एक इस्लाम पंथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जिसके पैरोकार मुसलमान कहलाए जाने लगे और दूसरा शिया पंथ के नाम से प्रसिद्ध हो गया..!!
कश्मीर में शिया पंथ के लोगों को लेकर इस्लाम पंथ के पैरोकारों में एक मामला अभी भी गर्म है। उस पर चर्चा करने के लिए शिया पंथ और इस्लाम पंथ के मूल विवाद को समझ लेना जरूरी है। दरअसल हजरत मोहम्मद (सल्ल) के पैरोकारों के दो अलग-अलग पंथ कर्बला के युद्ध के बाद ही बन गए थे। एक इस्लाम पंथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जिसके पैरोकार मुसलमान कहलाए जाने लगे और दूसरा शिया पंथ के नाम से प्रसिद्ध हो गया। इसे इतिहास का दुर्योग ही कहा जाएगा कि दोनों हजरत मोहम्मद साहिब में ईमान रखते हैं, लेकिन उसके बावजूद एक दूसरे के सामने आ जाते हैं।
शिया पंथ के अनुयायी हजरत मोहम्मद को तो मानते हैं, लेकिन उसके बाद उनका रास्ता मुसलमानों/इस्लाम पंथियों से अलग हो जाता है। इस्लाम पंथ के अनुयायी हजरत मोहम्मद के देहावसान के बाद के चार खलीफाओं यानी अबू बकर, उमर, उस्मान और अली (इन चार खलीफाओं को वे राशिदुन खलीफा कहते हैं) के अस्तित्व को स्वीकारते हैं और उसके बाद उत्तराधिकारी की परम्परा को समाप्त मान लेते हैं। इसके विपरीत शिया पंथ के लोग पहले के तीन खलीफाओं को मान्यता नहीं देते। वे हजरत मोहम्मद के बाद हजरत अली को ही मान्यता देते हैं।
चौथे खलीफा हजरत अली, हजरत मोहम्मद (सल्ल) के दामाद थे। उनकी किसी मुसलमान ने मस्जिद में नमाज पढ़ते हुए हत्या कर दी थी। इतना ही नहीं, उनके बेटे हसन को भी कहा जाता है जहर देकर मरवा दिया था। इसके बाद भी बस नहीं, उनके बचे हुए बेटे हुसैन को कर्बला के मैदान में धोखे से बुलाकर परिवार सहित हत्या कर दी गई थी। इस प्रकार पूरा वंश ही समाप्त कर दिया गया ताकि उत्तराधिकार का मसला ही बंद हो जाए।
इस अमानुषिक आचरण के विरोध में, कर्बला में हुए इस नरसंहार के बाद शिया पंथ के नाम से एक नया पंथ शुरू हो गया। अंग्रेजी में शिया पंथ का अनुवाद ही ‘अली की पार्टी’ किया जाता है। देखते ही देखते, आज का ईरान और ईराक इस्लाम पंथ को छोडक़र शिया पंथ का अनुयायी हो गया। इस्लाम पंथ को मानने वाले दुनिया के दूसरे देशों में भी बहुत से इस्लाम पंथी बाद में शिया पंथ के अनुयायी हो गए, लेकिन ईरान और ईराक को छोडक़र अन्य स्थानों पर वे अल्पमत में ही हैं। इस्लाम पंथ और शिया पंथ के शिष्यों में विवाद की जड़ में कर्बला का वह युद्ध बहुत महत्वपूर्ण पड़ाव है। शिया पंथ के लोग कर्बला की उस घटना को हर साल दुनिया भर में याद करते हैं। उसकी याद में ताजिया निकालते हैं। अली के बेटे हुसैन को जब मारा, तो उनके कष्ट को अनुभव करने के लिए शिया पंथी अपने शरीर पर कोड़े मारते हुए लहूलुहान हो जाते हैं। उन्हें अफसोस है कि उस अमानवीय नरसंहार के वक्त वे कर्बला के मैदान में नहीं थे। यदि वहां होते तो जरूर न्याय की इस लड़ाई में अपनी जान दे देते।
कोई भी कौम अपने इतिहास के अंधेरे पक्ष का सामना नहीं करना चाहती। वह यह भी नहीं चाहती की शिया पक्ष बार बार उसका प्रदर्शन करके उसे चिढ़ाए। लेकिन शिया पंथ की तो शुरुआत ही कर्बला के उस मैदान से होती है, अत: वह उसे कैसे भूल सकता है? यही कारण है कि अनेक स्थानों पर कर्बला युद्ध का वह ऐतिहासिक दिन आज भी शिया पंथियों और मुसलमानों के बीच में एक बार फिर कर्बला का मैदान बन जाता है। दोनों पक्षों में दंगा हो जाता है जिसमें कई निर्दोष लोगों की जान चली जाती है। पाकिस्तान ने तो सारी हदें तोड़ दी हैं। वहां तो शिया इबादतखानों पर बाकायदा बम विस्फोट किए जाते हैं ताकि शिया पंथी किसी स्थान पर एकत्रित न हो सकें।
शिया पंथ के अनुयायियों और ग़ैर अनुयायियों में विवाद का एक दूसरा कारण भी है। शिया पंथ के लोग ताजिए के नीचे से अपने बच्चों को निकालते हैं। उनका मानना है कि इससे बच्चों को हजरत हुसैन का आशीर्वाद मिल जाता है और वे जीवन में रोगों से मुक्त रहते हैं। इसी प्रकार वे ताजिया पर चढ़ावा शीरनी, शर्बत इत्यादि भी चढ़ाते हैं। यही चढ़ावा श्रद्धालुओं को प्रसाद के रूप में दिया जाता है।
इन सभी कारणों से ताजिए की तुलना मूर्तिपूजा से करते हैं। उनके अनुसार ताजिया एक प्रकार से हजरत हुसैन का प्रतीक ही है। मूर्ति भी प्रतीक ही होती है। मूर्ति पर भी चढ़ावा चढ़ाया जाता है और प्रसाद बंटता है। इस्लाम में न तो प्रतीक रूप में मूर्ति की अनुमति है और न ही मूर्ति पूजा की। इस्लाम पंथ को मानने वाले यह नहीं सोचते कि वे इस्लाम का कर्मकांड, शिया पंथ पर कैसे लाद सकते हैं? न्याय के लिए जिस प्रकार का युद्ध कर्बला के मैदान में लड़ा गया था, क्या उनके पास इतिहास का कोई ऐसा गौरवशाली क्षण है।
हिंदुस्तान के बारे में दुनिया भर के शिया पंथियों का एक नरम कोना है। जिस समय हजरत अली के परिवार को बेरहमी से मार रहे थे और दुनिया के बाकी लोग महज तमाशा देख रहे थे, उस समय मोहयाल ब्राह्मणों का एक वर्ग हुसैन के पक्ष में लड़ा था। न्याय की इस लड़ाई में अनेकों मोहयाल ब्राह्मणों ने भी बलिदान दिया था।
इसलिए शिया पंथ के लोग अब भी ताजिया निकालते समय मोहयाल ब्राह्मणों को हुसैनी ब्राह्मण के नाम से याद करते हैं। कश्मीर में तो शिया पंथियों और ॰दूसरे पंथियों में यह विवाद प्राय: इतना बढ़ जाता है कि अनेक बार सरकार इस्लाम पंथियों के दबाव में शिया पंथियों को इस ऐतिहासिक अवसर पर ताजिया निकालने की अनुमति ही नहीं देती। इसके बाद भी यदि शिया पंथी ताजिया निकालते हैं तो उसे बलपूर्वक रोकते हैं। दंगा तक हो जाता है।
बीती 11 जनवरी 2025 को श्रीनगर के करालपोरा इलाके में एक मुशायरा था। यह मुशायरा शिया पंथ के कुछ युवा अनुयायियों ने आयोजित किया था। किसी युवा कवि ने अपनी कविता में हजरत अली से पूर्व के तीन खलीफाओं के लिए कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग किया कि घाटी के मुसलमान उत्तेजित हो गए। ऐसे मौके पर शिया पंथ के बड़े बुजुर्गों ने बीच में पडक़र मामला शांत करवाने का प्रयास किया।
आगा सैयद हादी ने भी उन कवियों की मुज्जमत की जिन्होंने तीन खलीफाओं का गलत तरीके से मूल्यांकन किया था। साथ ही उन्होंने यह भी आगाह किया कि इन एक-दो कवियों के विचार को बहाना बना कर पूरे शिया पंथ को निशाना नहीं बनाना चाहिए। पुलिस ने आरोपियों के खिलाफ केस दर्ज कर ही लिया है। दोनों वर्गों में जो भी मतभेद हैं, उनसे शांति पर आंच नहीं आनी चाहिए।