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​​​​​​​राजनीतिक रिश्वतखोरी, संसदीय आपदा

सार

सांसदों को रिश्वत देकर अपने पक्ष में मतदान कर कांग्रेस की नरसिम्हा राव की सरकार चलती रही थी. उस समय सर्वोच्च न्यायालय ने भी सांसदों की रिश्वतखोरी को संविधान के विशेष अधिकार के संरक्षण की परिधि में मान लिया था. 26 साल से भारतीय संसदीय व्यवस्था में रिश्वतखोरी को विधिसम्मत और जायज माना जाता रहा है..!!

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विस्तार

सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बेंच ने अपने ही पुराने फैसले को पलटते हुए अब यह निर्णय दिया है कि सांसदों और विधायकों द्वारा रिश्वत लेकर वोट करने या प्रश्न पूछने पर विशेष अधिकार का संरक्षण नहीं मिलेगा. ऐसे सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलेगा.  अपराध होने के इतने वर्षों के बाद सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला संसदीय लोकतंत्र की मजबूती के लिए स्वागतयोग्य कदम है लेकिन अब भविष्य में जो भी संसदीय योद्धा अपने दायित्व के निर्वहन के लिए कुछ लाभ हासिल करना चाहते हैं वह नए रास्ते तलाशेंगे. सिद्धांत के तहत तो निर्णय बहुत अच्छा है लेकिन क्रियान्वयन में इससे हालात बहुत सुधरेंगे ऐसी उम्मीद करना नाकाफ़ी होगा.

भारत का संसदीय लोकतंत्र अगर समय के साथ मजबूत हुआ है तो उसमें बुराइयों की श्रृंखला भी बढ़ती गई है.  भयानक राजनीतिक आपदाओं के बाद भी सामान्य लोगों को न्याय दिलाने के लिए राजनीतिक व्यवस्था ही सबसे विश्वसनीय व्यवस्था मानी जा सकती है. संसदीय लोकतंत्र में काले अध्यायों की भी कमी नहीं है. ‘नोट फॉर वोट’ उसमें से एक है. संसद और विधानसभाओं में प्रश्न पूछने के नाम पर भी रिश्वतखोरी के कलंक संसदीय व्यवस्था पर लगे हैं. अभी हाल ही में एक उद्योगपति से मदद लेकर दूसरे उद्योगपति के खिलाफ सवाल पूछने के आरोप में एक सांसद की संसद सदस्यता समाप्त की गई है.

राज्यसभा का चुनाव विधायकों द्वारा ही किया जाता है. राज्यसभा के चुनाव में विधायकों की क्रॉस वोटिंग और पाला बदलने की घटनाएं हर चुनाव में सामने आती हैं. अभी हाल ही में हुए राज्यसभा चुनाव में भी कर्नाटक, उत्तरप्रदेश और हिमाचल प्रदेश में क्रॉस वोटिंग के कारण चुनावी नतीजों में उलटफेर देखा गया है. अंतरात्मा की आवाज पर वोट देने की प्रवृत्ति संसदीय लोकतंत्र को कटघरे में खड़ी कर रही है.

लोभ मनुष्य के अवचेतन से पैदा होता है. लोभ, बुद्धि-विवेक नष्ट कर देता है. लोकतंत्र में हर पांच वर्ष में चुनाव के कारण धन की आवश्यकता पूरी व्यवस्था को धनलोलुपता और रिश्वतखोरी की ओर धकेलती है. चुनाव में कालेधन का उपयोग बंद आंखों से भी दिखाई पड़ता है. चुनाव के दौरान करोड़ों रुपए की नगदी जब्त की जाती है. जो नगदी जब्त नहीं हो पाती है, उसका तो अनुमान ही लगाया जा सकता है. चुनावी खर्च की सीमा में शायद ही कोई जनप्रतिनिधि चुनाव लड़ता हो.  

जनसेवक के रूप में जनतंत्र में निर्वाचित जनप्रतिनिधि विशेष अधिकार का जीवन गुजारने लगते हैं. कई बार तो ऐसा लगने लगता है कि चुनाव में निर्वाचित होने का प्रमाण पत्र जनप्रतिनिधियों को सामान्य जन से अलग विशेष की श्रेणी में स्थापित कर देता है. सेवा का यह क्षेत्र कमाई और व्यवसाय के रूप में उपयोग किया जाने लगता है. निर्वाचित जनप्रतिनिधि सदन में कानून बनाने की प्रक्रिया में तो न्यूनतम रुचि लेते हैं, सबसे ज्यादा रुचि सरकारों में तबादला, ठेका और अन्य लाभ लेने वाले समूह को सहयोग करके स्वयं लाभ लेने की दौड़ में होती है. जहां सरकारें कम बहुमत के साथ काम करती हैं वहां तो विधायकों और सांसदों की ऐसी पूछ परख होती है कि उन्हें नैतिक-अनैतिक तरीकों से लाभ पहुंचा कर खुश रखा जाता है.

मध्य प्रदेश का ही उदाहरण लिया जाए तो कमलनाथ के 18 महीने की सरकार में राजनीतिक क्षेत्र में ऐसी सूचनायें तैर रही थीं कि विधायकों को प्रतिमाह निश्चित रकम देने के लिए मंत्रियों को ही जिम्मेदारी सौंपी गई थी. मंत्रियों को विधायक बांट दिए गए थे, मंत्री ऐसे विधायकों को हर महीने निश्चित रकम देकर उनकी प्रसन्नता सुनिश्चित करते थे. दलबदल से सरकारों में उलटफेर भले ही कानून के अंतर्गत अवैध नहीं कहे जाते हैं लेकिन ऐसे तख्तापलट के पीछे की सारी कवायद में रिश्वतखोरी और पैसे के लेनदेन को नकारा नहीं जा सकता है.
 
ऐसा माना जाता है कि बुद्धिमान राजनीति में नहीं जाते हैं. राजनीति आज सबसे कठिन क्षेत्र है फिर भी राजनीति में लंबी कतार है. देश में परिवारवादी राजनीति यही साबित करती है कि राजनीति लाभ का सबसे बड़ा धंधा है. राजनीति में ऐसा कौन सा चुंबक है कि जो इसमें एक बार गया वह पूरा जीवन 24 घंटे उसी से जुड़ा रहता है. सत्ता और धन ही शायद वह चुंबक होगा. अगर राजनीति इतनी लाभकारी ना हो तो फिर 24 घंटे की व्यस्तता के बाद भी कोई राजनीति से अलग क्यों नहीं होना चाहता? राजनेता बनना 24 घंटे का काम है. राजनेता आराम नहीं कर सकता क्योंकि अगर वह आराम करेगा तो पीछे रह जाएगा. राजनीति कड़ा संघर्ष है. गला काट प्रतियोगिता है. 

राजनीतिक रिश्वतखोरी बहुत बड़ी संसदीय आपदा बनती जा रही है. राजनीति में ईमानदारी दुर्लभ होती है. अगर कोई ईमानदार राजनेता स्वच्छता के साथ काम करना चाहता है तो उसके रास्ते में इतनी बाधाएं खड़ी की जाती हैं कि अगर वह ईमानदारी के प्रति प्रतिबद्ध ना हो तो उसका चलना मुश्किल होगा. ईमानदारी धर्म है. ईमानदारी राजनीति की नीति नहीं हो सकती है. ईमानदारी हृदय है, जो ईमानदार है वह कुछ हासिल करने के लिए ईमानदार नहीं है बल्कि ईमानदार होने के आनंद के लिए ईमानदार है. भले ही ईमानदारी के लिए उसे सब कुछ खोना पड़े लेकिन वह हृदय के विरुद्ध जा ही नहीं सकता.

संसदीय लोकतंत्र में भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी को रोकने के लिए नियम बने हुए हैं. नियमों की कोई कमी नहीं है.  नियमों को तोड़-मरोड़ कर ही रिश्वतखोरी की जाती है. यह तो विरला उदाहरण है जो सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच जाते हैं और जिन पर फैसले हो जाते हैं. हर रोज खुले हाथों से व्यवस्था में जो नंगा खेल हो रहा है उसकी ओर ज्यादातर आंखें बंद हैं और राजनीति में भ्रष्टाचार के खिलाफ जब भी एक्शन होता है तब राजनीतिक आवाज़ ऐसी प्रबलता से उठाई जाती है कि जैसे हरिश्चंद्र की ईमानदारी पर कोई सवाल खड़ा किया गया है.

नियमों से भ्रष्टाचार अगर रोका जा सकता होता तो वर्तमान हालात बनते ही नहीं. जब नियत ही खराब है, सवाल पूछने के लिए पैसे लेने की ही नियत है, तो कौन सी व्यवस्था ऐसे  बदनियत जनप्रतिनिधियों पर नियंत्रण लगा सकती है?

सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है उन मामलों में अपराध तो बहुत पहले हो चुका है. अपराध करने वाले लोग इस देश की सरकारों का नेतृत्व कर चुके हैं. जो सरकारें ‘नोट फॉर वोट’ से बची थीं उन सरकारों के कामकाज पर ईमानदारी की बात सोचना तो बेईमानी के साथ नाइंसाफी होगी. संसदीय व्यवस्था में भ्रष्टाचार का जहरीला फल भ्रष्ट राजनेताओं के लिए सत्ता के बसंत के रूप में आता है. जब भी ऐसे लोग सत्ता से बाहर होते हैं तब भी उनकी पूरी कोशिश होती है कि जो भी सत्ता हो कम से कम भ्रष्टाचार की धारा तो चलती रहे. अगर यह धारा बंद हो जाएगी तो भ्रष्ट राजनेताओं को अपने अस्तित्व पर संकट नजर आने लगेगा. 

राजनेताओं के सब्जबाग और राजनीतिक भाषण तो ईमानदारी से भरे होते हैं. भ्रष्टाचार कोई भी स्वीकार करने को तैयार नहीं होता. भ्रष्टाचार करते अधिकाँश हैं लेकिन उसे सच्चाई से स्वीकार करने का साहस नहीं रखते. राजनीति के अवचेतन में भ्रष्टाचार बैठ गया है. इसे निकालने के लिए जनता को केवल चुनाव के समय ही नहीं लगातार पांच साल राजनेताओं पर नकेल कसने की जरूरत है. 

केवल रिश्वतखोरी में विशेषाधिकार समाप्त किया गया है. निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को तो किसी प्रकार का विशेषाधिकार मिलना ही नहीं चाहिए. जहां भी विशेष अधिकार होता है वहां उसकी आड़ में सब तरह के धंधे शुरू हो जाते हैं. यह भी एक संयोग है कि जब राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ देश में अभियान चल रहा है उसी दौरान इतने पुराने मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने पुराने फैसले को पलट कर लोकतंत्र की मजबूती की दिशा में बड़ा कदम उठाया है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले का राजनेताओं में केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वागत किया है. हर बात पर प्रतिक्रिया देने वाले राजनेताओं को इतने बड़े फैसले पर प्रतिक्रिया देने से शायद उनके अवचेतन मन ने ही रोका होगा.