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सियासी शैतानी संविधान की जुबानी

सार

    कांग्रेस के सर्वस्व लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने फिर एक बार बालक बुद्धि का वक्तव्य दिया है. बिहार में उन्होंने कहा कि अभी इस देश में जो सवर्ण नहीं है, वह दूसरे दर्जे का नागरिक है. यह बयान जातिवादी सियासत के शैतानी दिमाग की उपज ही कही जा सकती है..!!

janmat

विस्तार

    सवर्ण और अवर्ण की सोच इतिहास में दफन हो चुकी है. सनातन गर्व महाकुंभ का आयोजन जातिविहीन सनातन समाज का सबसे बड़ा उदाहरण है.

    राहुल गांधी बंद कमरों में जीते हैं. सार्वजनिक स्थान पर भी सुरक्षा घेरे में ही उनका जीवन होता है. उनका हर वक्तव्य राजनीति के लिए ही होता है. जातिवाद अब केवल सियासत में ही रोपा और सींचा जाता है. समाज की वास्तविकता में तो जातिवादी आचरण का कोई भी दुस्साहस नहीं कर सकता.

    सार्वजनिक जीवन में कोई भी व्यक्ति किसी के साथ भी जाति सूचक संबोधन या व्यवहार अगर करता है तो यह अपराध की श्रेणी में आता है. सवर्ण और अवर्ण इंगित कर राजनीतिक लक्ष्य साधने की राहुल गांधी की कोशिश सामाजिक अपराध ही कही जाएगी. 

     चाहे रेल हो, बस हो, होटल हो, रेस्टोरेंट हो, बाजार हो या दूसरा कोई भी सार्वजनिक स्थान हो वहां कोई भी, क्या किसी से भी यह कह सकता है, कि वह कौन-से समाज का है, कौन-सी जाति का है. यहां तक कि वेटर से भी कोई जाति पूछने की हिम्मत नहीं करता. साधु की तो जाति पूछी ही नहीं जाती.

    रेस्टोरेंट में जाकर शाकाहारी और मांसाहारी दोनों तरह के लोग एक ही हॉल में बिना एक दूसरे की जाति पर सवाल खड़ा किए बिना एकसाथ समय बिताते हैं. सवर्ण और अवर्ण की भावना तो आचरण में अब बची ही नहीं है. बल्कि यह तो सोच से ही समाप्त होती जा रही है. केवल सियासी लोग ही जाति की बात करते हैं. खास करके राहुल गांधी और कांग्रेस जातिवाद को ही अपनी पार्टी के पुनर्निर्माण का आधार बनाने में लगे हुए हैं. 

    जातिगत जनगणना की बात राहुल गांधी हर विधानसभा चुनाव में करते हैं. लोकसभा में, करते हैं. पिछले जितने भी चुनाव हाल फिलहाल में हुए हैं, सब में राहुल गांधी ने जातिगत जनगणना का मुद्दा उठाया था, लेकिन जनादेश ने उनकी सोच को नकार दिया.

    राहुल गांधी ओबीसी, दलित ट्राईबल की हिस्सेदारी पर सवाल उठाते हैं. भारत सरकार में सचिवों की संख्या को जातियों के हिसाब से गिना करते हैं. अदालत में जजों की संख्या में भी जातियों का गणित देखते हैं. उद्योगों में भी जाति के हिसाब से उद्योगपति गिनते रहे हैं. उनकी जातिवादी राजनीति का यह दृष्टिकोण नकारात्मक ही था. लेकिन इस बार तो उन्होंने सारी सीमाएं तोड़ दी हैं. सवर्ण जातियों को दूसरी जातियों के साथ जोड़ते हुए सेकंड क्लास का सिटीजन होने की बात करके संवैधानिक अपराध किया है.

    संविधान में जातिवाद की कोई जगह नहीं है. पिछड़ापन के आधार पर समानता के दृष्टिकोण से सारी सुविधाएं और व्यवस्थाएं संविधान में की गई हैं. भारतीय संविधान समान नागरिक संहिता की बात करता है, लेकिन इस पर राहुल गांधी चुप्पी साधे रहते हैं. संविधान जहां समानता की बात करता है,वहां उनकी वोट बैंक की राजनीति के लिए ये सूट नहीं करता है. इसीलिए अब उन्होंने सवर्ण जातियों को दूसरी जातियों से लड़ाने का कुचक्र रचा है. सवर्ण और अवर्ण की दृष्टि से सोचना ही सियासी अपराध है.

    जाति एक सच्चाई हो सकती है, लेकिन संविधान के पद पर बैठे लोग जब जातिवाद को बढ़ाने और विभिन्न जातियों के बीच विवाद पैदा कर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने का प्रयास करेंगे तो फिर इससे जो अशांति और अराजकता पैदा होगी, उसका दुष्परिणाम भी  ऐसे राजनेताओं को ही भुगतना पड़ेगा.  लोकसभा में राहुल गांधी की जाति को लेकर भारी हंगामा हुआ था. जो नेता जातिगत जनगणना करने की बात करता है, उसे अपनी जाति बताने में कोई तकलीफ नहीं होना चाहिए. औरंगजेब की कब्र पर ताज़ा विवाद चल रहा है. औरंगजेब को इतिहास आक्रांता साबित करता है, फिर भी कुछ लोग उसे अपने आदर्श के रूप में मानते हैं, तो यह भी सियासत के कारण हो रहा है.

    अगर जातियों के हिसाब से ही देखा जाएगा तब भी भारतीय राजनीति में अधिकांश उच्च पदों पर ओबीसी आदिवासी या दूसरे समुदाय के नेता काबिज़ हैं. पीएम नरेंद्र मोदी ओबीसी समाज से आते हैं,. सवर्ण मुख्यमंत्री के रूप में तो राजस्थान के मुख्यमंत्री का नाम ही लिया जा सकता है. 

    संविधान के पद पर बैठा हुआ कोई नेता यह कैसे कह सकता है, कि भारत में कोई भी जाति या समाज का व्यक्ति सेकंड क्लास सिटीजन है, जब संविधान सभी को समान अधिकार और मौका देता है, तो फिर जातियों में भेदभाव की बात क्यों कही जाती है।

    देश में सवर्ण राजनीति को सबसे ज्यादा कांग्रेस में ही प्रश्रय मिला. कांग्रेस जब सत्ता के सिरमौर पर रहा करती थी तब इसी समाज के लोग सरकार और पार्टी में हावी होते थे. अब तो देश में ओबीसी पॉलिटिक्स का बोलबाला है. राजनीति केवल जातिवाद से नहीं चलती नेतृत्व, विचारधारा और पर्सनालिटी की विश्वसनीयता सियासत की पहली जरूरत है. राहुल गांधी राजनीति में इतना अनुभव लेने के बाद भी जो भी बोलते हैं, उसे मीडिया फोकस जरूर मिलता है, लेकिन संगठन को इससे कोई फायदा होता दिखाई नहीं पड़ता. 

    वह आरक्षण की सीमा पचास प्रतिशत को समाप्त करने की बात करते हैं. वह योग्यता से ज्यादा जातिवाद कोभारत की प्रगति के लिए जरूरी समझते हैं. पिछड़ेपन और गरीबी के आधार पर समानता के लिए आरक्षण और विशेष सुविधाएं संविधान में मिली हुई हैं.  इसमें किसी को  दिक्कत नहीं है, लेकिन सब ठीक चलता रहे कांग्रेस सत्ता से दूर बनी रहे, यह राहुल गांधी कैसे पसंद करेंगे उनका राजनीतिक ट्यूटर जो भी हो लेकिन सवर्ण और अवर्ण के बीच मतभेद कराकर राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने का उनका नजरिया ना सियासी हित में है और ना ही राष्ट्रहित में है.

    राहुल खुद अपने को ब्राह्मण बताते हैं, सवर्ण बताते हैं. वह ऐसा कैसे सोच सकते हैं, कि जो सवर्ण नहीं है, वह दूसरे दर्जे का नागरिक है. ऐसी  सोच जिस भी सवर्ण मस्तिष्क में होगी, उसे सवर्ण कहना ही सही नहीं होगा. 

    राहुल गांधी न्याय अधिकार और संविधान की बातें करते हैं. हर सार्वजनिक सभा में संविधान लहराते हैं. संविधान की जुबानी बोलने का दावा करते हैं, लेकिन जो कुछ बोलते हैं उसको संविधान पर तौलना भूल जाते हैं. राजनीति का तोल-मोल और संविधान का तालमेल अगर नहीं होगा तो फिर कांग्रेस अपना पुराना दौर कभी  वापस नहीं पा सकती. भारत जातिवाद से ऊपर है. योग्यता इसकी ताकत है. जो राजनेता स्वयं अपनी योग्यता साबित नहीं कर पाए हैं, वही जातिवाद के सहारे राजनीतिक ताकत हासिल करने की कोशिश कर सकते हैं.

    जाति-जाति खेलने से कुछ नहीं होगा. जीतेगी तो योग्यता. योग्यता का मुकाबला जातिवाद से नहीं हो सकता. विकास की राजनीति ने जातिवाद को तोड़ा है और आगे इसका बुरा दौर ही आएगा. संतुलित बुद्धि सवर्ण और अवर्ण की बात नहीं कर सकती. मंदबुद्धि आचरण निजी संपत्ति है, यह जातियों से भी ऊपर है.