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सियासी दोस्ताना, जय-वीरू का फसाना

सार

कांग्रेस के वचनपत्र से ज्यादा कार्यकर्ताओं में फिल्म शोले के किरदार के जय और वीरू की चर्चा है. फिल्मी दोस्ताना सियासी डैमेज कंट्रोल के लिए उपयोग किया जा रहा है. शोले फिल्म बदले की कहानी पर आधारित है. डाकू गब्बर सिंह द्वारा किये जा रहे गरीबों के शोषण से मुकाबले के लिए पुलिस अफसर ठाकुर 'जय और वीरू' नाम के दो अपराधियों को जेल से छुड़ाकर गब्बर के खात्मे के लिए लेकर आते हैं. फिल्म की शुरुआत हीरोइन बसंती के तांगे से शुरू होती है. जय और वीरू एक दूसरे की प्रेम कहानियों को परवान चढ़ाने में कॉमेडी के साथ सहयोग करते है.

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विस्तार

एमपी चुनाव में भी चुनावी शोले दागे जा रहे हैं. दिल्ली के ठाकुर चुनावी जीत के लिए ना तो गब्बर का उपयोग करने से चूक रहे हैं और ना ही जय-वीरू की एक ही जोड़ी पर भरोसा कर रहे हैं. एक दल से दूसरे दल में कई चेहरे सत्ता की फसल काटने के लिए उतारे गए हैं. सियासी दल का पहला और आखिरी नजरिया जीत ही है. इसके लिए चाहे जो उपयोग हो जाए. चाहे जय-वीरू उपयोग हो जाएँ, चाहे बसंती उपयोग हो जाए और चाहे सियासी गब्बरों से कुर्सी पाई जा सके तो कोई आपत्ति नहीं है.

जैसे-जैसे चुनावी तारीख करीब आती जा रही है, चुनावी मुद्दे भी अटकते-भटकते जा रहे हैं. चुनावी चर्चा में कांग्रेस ऐसे मुद्दे ला रही है जो उसके मूल मुद्दों को भटकाने का काम कर रहे हैं. कांग्रेस में दिल्ली से आए ठाकुर ने कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के बीच तनातनी की खबरों को गलत बताते हुए उनके रिश्ते की जय और वीरू जैसी दोस्ती से तुलना कर कपड़ों फाड़ो अभियान का नया एपिसोड पेश किया है. कांग्रेस कार्यकर्ता पुराने एपिसोड से ही उबर नहीं पाए थे. अब मतदान तक चटकारे लेने के लिए नया एपिसोड आ गया है.

कमलनाथ-दिग्विजय के ‘दोस्ताना’ की सच्चाई कोई नहीं समझ सकता. इसे या तो भगवान बता सकते हैं या यह दोनों नेता ही इसको परिभाषित कर सकते हैं. अब तो कांग्रेस में दिल्ली के ठाकुर भी इस दोस्ताना की दुहाई दे रहे हैं. घर परिवार के लोग भी इस ‘दोस्ताना’ की कसमें खाने लगे हैं. सार्वजनिक रूप से अनेक ऐसे अवसर आए हैं जब दिग्विजय और कमलनाथ के बीच तल्खी देखी गई है. राजनीति में दोस्ताना कई बार देखा जाता है लेकिन यह दोस्ताना बहुत लंबे समय तक चलता नहीं है.

भारत की राजनीति में सियासी दोस्ताने का आज सबसे बड़ा उदाहरण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की जोड़ी ही दिखाई पड़ती है. गुजरात से बनी यह जोड़ी पहली जोड़ी है जो अभी तक कभी हंसी मजाक में भी आमने-सामने नहीं देखी गई है. बीजेपी में अटल-आडवाणी की जोड़ी भी आदर्श रही है. कांग्रेस की राजनीति में सारी जोड़ी दिल्ली से ही कंट्रोल होती है. कांग्रेस में सियासी दोस्ताना सत्ता की सुविधा का दोस्ताना ही साबित होता रहा है.

गांधी परिवार और बच्चन परिवार का ‘दोस्ताना’ पूरा देश जानता था लेकिन जैसे ही इसमें सियासत का प्रवेश हुआ यह दोस्ताना बिखर गया. राजीव गांधी और संजय गांधी के राजनीतिक दौर में उनके कई दोस्तों ने राजनीति में अपना मुकाम हासिल किया लेकिन यह सारी दोस्ती सत्ता की सुविधा तक सीमित दिखी. माधवराव सिंधिया और राजीव गांधी के दोस्ताने के उदाहरण दिए जाते थे जो बाद में बिखर गया था. राहुल गांधी और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच में भी दोस्ताना राजनीति में चर्चा का विषय होता था अब तो दोनों अलग-अलग दलों में है.

चुनाव की सियासत ऐसा मौका है जिसमें दोस्ताना तो दोस्ताना परिवार के संबंध तक बिखर जाते हैं. सत्ता के फसाने के लिए सियासी दोस्ताना चल सकता है. अगर एक भी ऐसी बाधा आ जाए जो पॉवर की संभावना कम कर दे तो फिर दोस्ताना कपड़े फाड़ो तक भी जा सकता है. एमपी की चुनावी राजनीति में इस बार ऐसे इतिहास रचे गए हैं जहां भाई-भाई, चुनाव में आमने-सामने हैं. चाचा भतीजे दो-दो हाथ कर रहे हैं. जेठ और बहू चुनाव मैदान में रिश्तो को दांव पर लगाए हैं.

सियासत का सच सत्ता है और सत्ता में भागीदारी हर नेता की लालसा है. सत्ता की राजनीति में तो ऐसे भी उदाहरण भरे पड़े हैं जहां सत्ता के लिए एक ही परिवार के लोग दल बदल कर अलग-अलग राहों पर चले जाते हैं. सत्ता के लिए जब परिवार वाले तक छूट जाते हैं तो फिर सियासी ‘दोस्ताना’ कितना साथ दे सकेगा?

कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के बीच नाराजगी की चर्चाओं का दिग्विजय सिंह की ओर से भी खंडन किया गया है. वह ऐसे नेता हैं जो हमेशा अपनी बात पर अडिग रहते हैं. अपने किसी भी बयान का कभी उन्होंने खंडन नहीं किया है. वह बहुत सोच समझ कर ही कोई बयान देते हैं और फिर उस पर कायम रहते हैं. चुनाव के मौके पर पार्टी को राजनीतिक चर्चाओं के कारण खामियाजा न भुगतना पड़े इसलिए पार्टी लाइन पर काम करना दिग्विजय का पुराना इतिहास है.

कांग्रेस में पिछले चुनाव में दिग्विजय, कमलनाथ और  ज्योतिरादित्य सिंधिया की जोड़ी मैदान में उतरी थी. यह जोड़ी तो बीच में ही टूट गई, जय-वीरू की जोड़ी में तीसरे नेता की कमी पहले से ही थी. दोनों नेता इतने वरिष्ठ और अनुभवी हैं कि पार्टी के दूसरे नेता उनके पीछे ही हो सकते हैं. उनकी बराबरी के दूसरे नेता तो प्रदेश में हैं ही नहीं. जय वीरू का का उदाहरण देकर कांग्रेस ने चुनावी मैदान में दोनों के रिश्तों पर चर्चाओं को हवा दी है.

चुनावी राजनीति में तो कभी भी कुछ भी देखा जा सकता है. चाहे चुनावी वादे हों या चुनावी बयान और भाषण, सच और झूठ में अंतर करना मतदाता के लिए असंभव सा हो जाता है. कांग्रेस की ओर से सुपरमैन का चुनावी अवतार भी सामने आया है. शेखचिल्ली की कहानी भी चुनावी कहानियों के आगे शर्माने लगती है. चुनावी यात्रा में मंजिल हासिल करने के लिए ना कोई सत्य होता है ना कोई मर्यादा.

सियासत के सत्य और दोस्ताना से ज्यादा स्वयं के सत्य की यात्रा साहसिक होती है. सुपरमैन का दुस्साहस स्वयं के सत्य के लिए उपयोग करने से आत्म कल्याण का मार्ग खुलता है. जनकल्याण के बहाने स्वकल्याण की राजनीति के सारे सत्य, सत्ता के सत्य से ही संचालित होते हैं. यही सुपरमैन और दोस्ताना का भी सत्य लगता है.