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नेता पुत्रों को अभयदान, प्रशासन हलाकान

सार

राज्य कोई भी हो, हालत में कोई अंतर दिखाई नहीं पड़ता. नेता, नेता पुत्रों और प्रशासन के बीच टकराव का सिलसिला कभी खत्म नहीं होता. प्रशासन विधि और विधान की बात करता है, तो नेता ‘विधायक हूं श्रीमान’ का अहंकार दिखाता है. नेता पुत्र तो इससे भी आगे ‘पापा मंत्री हैं’ की धौंस दिखाने से पीछे नहीं रहते..!!

janmat

विस्तार

  नेता, नेता पुत्रों और सिंघम अधिकारियों के बीच टकराव पर फिल्मों का बड़ा बाजार निर्भर है. सबसे बड़ा सवाल कि सेवा के लिए चुने गए विधायकों और उनके परिवारजनों में अहंकार का यह बीज क्या निर्वाचन प्रमाण पत्र के साथ ही बो दिया जाता है? 

  पार्टियाँ अपने विधायकों को अनुशासन में रखने की कितनी भी कोशिश करती हैं लेकिन हर दिन अनुशासन तार-तार होता दिखाई पड़ता है. कीमत मिले तो सब बिकने को तैयार हैं. निर्वाचित जनप्रतिनिधियों में और उनके परिवार जनों में विधि विधान के प्रति बेरुखी और शासन-प्रशासन को दासी समझने की बढ़ती प्रवृत्ति के बीज कहां छुपे हैं?

   क्या चुनाव प्रक्रिया और प्रत्याशियों के चयन में विकृतियां हैं? जिनके कारण ऐसे लोगों को ही मौका मिलता है, जिनके लिए समाज से ज्यादा परिवार, सेवा से ज्यादा स्वार्थ,  खाने और दिखाने के दांत अलग-अलग, संघर्ष जनता के मुद्दों का दिखाया जाता है लेकिन प्रशासन पर दबाव स्वार्थ को पूरा करने के लिए डाला जाता है. 

    हर दबाव सत्ता की हिस्सेदारी में छिपा हुआ है. कोई भी जनप्रतिनिधि जब असामान्य आचरण करता है, तो मीडिया में भी सुर्खियां मिलती है. प्रशासन पर भी दबाव पड़ता है, राजनीतिक दलों द्वारा तो दिखावटी अनुशासन की खानापूर्ति के बाद सब कुछ सामान्य बता दिया जाता है.

    मध्य प्रदेश में पिछले दिनों अलग-अलग कोनों से विधायकों के आक्रोश की खबरें आई. एक विधायक द्वारा तो पद से इस्तीफा देने का भी ऐलान किया गया. दूसरे विधायक आंदोलन पर बैठ गए. एक विधायक तो ऐसे दंडवत दिखाई पड़े जो दबाव बनाने का अनुचित और अनैतिक ढंग लग रहा था. ऐसा कहा जाने लगा कि राज्य की सरकार अपने विधायकों के आक्रोश से घिरी हुई है. पार्टी ने विधायकों को तलब किया लेकिन यह सारा घटनाक्रम केवल मीडिया में सुर्खियां ही बन पाई.

   जब बीज  के स्तर पर ही गड़बड़ी है, तो फिर वृक्ष में सुधार की क्या संभावना हो सकती है. बीज में जो छिपा है, वही तो वृक्ष बनेगा. सियासी वट वृक्ष के रूप में श्रीमान विधायक जी, जो भी आचरण कर रहे हैं, उसको सुधारने के लिए बीज के स्तर पर ही काम करना पड़ेगा.

    समय के साथ विधि निर्माण में विधायकों की भूमिका सीमित होती जा रही है. अध्ययन का अभाव है, विधानसभा के बैठकों की संख्या तो लगातार कम होती जा रही है. जितनी बैठकें होती भी है, उसमें श्रीमान विधायक जी की भागीदारी कागजों में तो देखी जा सकती है लेकिन बहस में कोई छाप दिखाई नहीं पड़ती है. 

    अब तो ऐसा लगने लगा है,कि विधायिका- कार्यपालिका में दबाव बनाने या अपने हिस्से के लिए संघर्ष करने का ही एकमात्र जरिया बच गया है.   विधायक और शासन प्रशासन के बीच में टकराव की घटनाएं संकेत कर रही है,कि सेवा का सन्मार्ग स्वार्थ के कुमार्ग पर आगे बढ़ता जा रहा है. शासन प्रशासन की नियति ही ऐसे आचरण से गुजरते हुए अपनी जवाब देही और दायित्व को पूरा करने का बच गया है. 

   नेता और नेता पुत्रों के दबाव के दुष्प्रभाव के कारण शासन प्रशासन भी धीरे-धीरे एडजस्टमेंट की प्रणाली अपनाने लगता है. वह भी विधि विधान से ज्यादा हिस्सेदारी की तरफ बढ़ने लगता है.

    राज्य में नेता पुत्रों की पुलिस से टकराने की दो बड़ी घटनाएं हुई है. एक राघवगढ़ में हुई है तो दूसरी जबलपुर में. दोनों को जो वीडियो वायरल हुए हैं, वह दंभ और अहंकार की बानगी है. सोशल मीडिया से अवेयरनेस के कारण कभी-कभी ऐसे वीडियो वायरल हो जाते हैं. घटनाएं तो अक्सर होती है लेकिन नेताओं के दबाव में दबी रह जाती हैं. 

    नेता पुत्रों का एक अलग नशा होता है. मध्य प्रदेश में तो नेता और नेता पत्रों की राजनीति को काफी होती रही है. यद्यपि अगर गहराई से देखा जाए तो अधिकतर नेता पुत्र लॉन्च तो हो जाते हैं, लेकिन मंजिल पर पहुंच नहीं पाते हैं. 

    शासन प्रशासन भी जनप्रतिनिधियों के साथ अच्छे व्यवहार की नसीहत समय-समय पर देता है. इन घटनाओं के बाद नए मुख्य सचिव ने भी ऐसी ही नसीहत प्रशासन को दी है. जनप्रतिनिधियों का सम्मान निश्चित किया जाना चाहिए लेकिन प्रशासन का दायित्व विधि विधान का सम्मान करना सबसे ऊपर होना चाहिए.

    परिवारवाद की राजनीति पर तो बहुत चर्चाएं होती हैं लेकिन परिवार वाद के कारण शासन प्रशासन को जिन तकलीफों का सामना करने पड़ता है, उन पर कम ही बात होती है. शासन में लोकसेवक का सम्मान हर हालत में होना चाहिए. जो फील्ड में मौके पर परिस्थितियों को संभाल रहा है, उनके साथ दुर्व्यवहार शासन के साथ दुर्व्यवहार ही माना जाएगा. 

    अगर दुर्व्यवहार करने वाले मंत्री पुत्र या उससे भी पावरफुल नेता के परिवार से जुड़ा है, तो फिर मामलों को रफा-दफा करना ही सफल लोकतंत्र का प्रमाण माना जाता है. 

    मध्यप्रदेश ऐसी राजनीति से काफी दूर था, लेकिन अब हालात बदलते दिखाई पड़ रहें है. किसी एक दल को ऐसी घटनाओं के लिए ना तो जिम्मेदार ठहराया जा सकता है और ना ही दोषी बताया जा सकता है. अनुचित व्यवहार और अनर्गल वक्तव्य से ही सुर्खियाँ मिलती हैं और शायद सुर्खियां ही नेता और नेता पुत्रों की असली पूंजी है. भले ही नकारात्मक हों लेकिन सुर्खियों से नाम की धमक तो बढ़ेगी. जितनी ज्यादा धमक होगी उतनी बारगेनिंग कैपेसिटी होगी. शासन प्रशासन में बारगेनिंग मतलब, लाभ ही लाभ. नुकसान तो होने से रहा.

    मध्य प्रदेश में 15 महीने की सरकार में तो विधायिका को निश्चित रकम देने का राजनीतिक तरीका विकसित कर लिया था. इसके लिए वकायदा मंत्रियों को जिम्मेदारी दी गई थी. हिस्सा बांटी के इसी खेल में संतुलन बिगड़ने के कारण सरकार को जाना पड़ा था. एक बार कोई बुराई खड़ी हो जाए तो  फिर वह अचानक खत्म नहीं होती. 

    विधायिका की गरिमा निर्वाचित हर सदस्य का सबसे पहला कर्तव्य है. किसी भी आचरण से यदि इस गरिमा को ठेस पहुंचती है, तो फिर निर्वाचित सदस्य की गरिमा ही कहां बचेगी. विधायिका और कार्यपालिका में प्रमुख पदों पर बैठे निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को, अपने परिवारजनों को कम से कम पद के अहंकार से दूर रखना चाहिए.

    जनसेवा के आनंद और धन्यता की महक निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से सतत आनी चाहिए. मध्य प्रदेश अगर इस दिशा में आगे बढ़ेगा, तो देश के दिल की आवाज पूरे देश में फैलेगी.