देश की सर्वोच्च अदालत बार-बार राजनीति को मुफ्तखोरी की भयावहता पर आगाह कर रही है. मुफ्त के माल को भी लुटाने में दर्द होता है लेकिन राजनेताओं को जन-धन लुटाने में पद-पावर के सुख में जन सामान्य को हो रहे दर्द का आभास नहीं होता. मुफ्तखोरी की बीमारी अब तो राजनीतिक कैंसर बन चुकी है..!
भारत ने पहले भी आर्थिक संकट देखा है. देश को रिजर्व सोना तक बेचना पड़ा. कोटा परमिट लाइसेंसराज और भ्रष्टाचार में जा रहे जन-धन को रोकने में थोड़ी बहुत सफलता मिली तो मुफ्तखोरी की योजनाओं में खुलेआम जन-धन को बर्बाद किया जा रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने एमपी-राजस्थान को मुफ्तखोरी की योजनाओं के लिए जवाब देने का नोटिस दिया है. राजनेताओं को सुप्रीम कोर्ट की चिंता नहीं है. उन्हें तो जनता के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के लिए फिलहाल जन-धन लुटाने या लूट का वायदा करने से कोई भी नहीं रोक सकता है.
कोई भी भविष्य को कर्जदार बनाकर दुनिया से नहीं जाना चाहता लेकिन लोकतंत्र के पहरेदार कर्ज पर कर्ज लेकर अपना सत्तालोक बनाना चाहते हैं. इस लोभ में जाने अनजाने जो नर्कलोक बनाया जा रहा है उसी में सत्ता से उतरने के बाद उन्हें भी जीना है. दुर्भाग्यजनक स्थिति है कि जनता का भाग्य विधाता माने जाने वाले राजनेता जाने अनजाने सत्ता पर टिकाई तिरछी नजरों से सिस्टम और जनता का सपना पूरा करने के बजाय सपना तोड़ने का काम कर रहे हैं.
बात केवल मध्यप्रदेश और राजस्थान की नहीं है. कौन सी सरकार है जो मुफ्तखोरी के अलावा दूसरा कोई काम ईमानदारी से करने की कोशिश कर रही है. राजनीतिक दलों के अपने-अपने तर्क हैं. कोई कहता है कि बिजली-पानी और अन्य सुविधा फ्री में देना जनता का अधिकार है. कोई कहता है कैश के रूप में सहायता देने से सशक्तिकरण होता है. कोई कहता है, सीधे खातों में पैसा देकर किसानों का सम्मान बढ़ाया जा रहा है. कोई कहता है कर्ज माफी किसानों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता है. फ्री में बिजली तो जैसे राजनेताओं के लिए चुनावी नेग बन गया है. टैक्सपेयर के साथ राजनीति किस तरह का अन्याय कर रही है इस का कोई एहसास तक नहीं है.
एक तरफ फ्री की राजनीति चल रही है, दूसरी तरफ समाज का टैलेंट तड़फड़ा रहा है. टैलेंट का पलायन हो रहा है. स्थानीय स्तर पर ना शिक्षा की समुचित व्यवस्था है और ना ही रोजगार की कोई उम्मीद है. देश के अंदर या तो पढ़ाई और नौकरी के लिए बड़े शहरों की तरफ युवा भाग रहे हैं और जो देश से बाहर जाने की क्षमता रखते हैं वह सब दूसरे देशों में जाकर उनके विकास में अपने टैलेंट का उपयोग कर रहे हैं.
भारत की राजनीति इस पर तो गौरवान्वित होती है कि दुनिया के हर देश में भारतीय सबसे आगे हैं लेकिन इस बात पर उन्हें कोई शर्मिंदगी नहीं है कि भारत का टैलेंट भारत में रहकर भारत को दुनिया का सिरमौर बनाने में अपना टैलेंट क्यों उपयोग नहीं कर पा रहा है? मुफ्तखोरी की प्रवृत्ति से हमेशा टैलेंट ही कुंठित होता है. बहुमत की राजनीति में टैलेंट की उपयोगिता शायद भीड़ से कम होती है. इसलिए राजनीति भीड़ को मुफ्तखोरी से लुभाती है. मुफ्तखोरी के पुण्य से सत्ता तक पहुंचकर खुद के लिए भी मुफ्तखोरी का ही संसार बनाने में लग जाती है.
मुफ्तखोरी रुकने के बाद ही गरीबों की बेहतरी के लिए संस्थागत योजनाओं का स्वरूप बन सकेगा. तभी सरकारों के संसाधनों का प्रोडक्टिव उपयोग हो सकेगा. मैन्युफैक्चरिंग का आधार बढ़ेगा. रोजगार के अवसर बढ़ेंगे. हर नागरिक कर्महीनता छोड़कर कर्म के आधार पर जीवनयापन करने की तरफ बढ़ेगा.
मुफ्तखोरी की योजनाओं के कारण व्यापक आर्थिक अस्थिरता का खतरा बढ़ता जा रहा है. स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए भी मुफ्तखोरी की योजनाएं खतरे के रूप में हमारे सामने हैं. मतदाताओं को मुफ्तखोरी की रिश्वत से सत्ता पर पहुंचे नेता भी रिश्वत का ही संसार निर्मित करते हैं.
मुफ्तखोरी की नीतियों से सियासी फायदे के लिए राज्यों को बर्बादी की ओर धकेला जा रहा है.राज्यों पर आर्थिक बोझ और क़र्ज़ की स्थिति लगातार भयावह होती जा रही है. मुफ्तखोरी की योजनाओं से राज्यों पर बोझ बढ़ता जा रहा है. अनावश्यक व्यव बढ़ रहा है. दीर्घकालीन वित्तीय घाटा सीमाओं से ऊपर पहुंच चुका है. देश के सभी राज्य कर्ज के जाल में फंस गए हैं.
रिजर्व बैंक के अनुसार किसी भी राज्य पर कर्ज उसकी जीडीपी के 30% से ज्यादा नहीं होना चाहिए. इसके विपरीत राजस्थान पर जीडीपी का 40% कर्ज है. मध्यप्रदेश पर 31% और पंजाब पर तो जीडीपी का 53% तक कर्ज है. अधिकांश बड़े राज्य जीडीपी के अनुपात में कर्ज की शर्त सीमा से आगे निकल गए हैं.
ऐसा नहीं है कि कोई भी राजनीतिक दल राज्यों के वित्तीय हालत और क़र्ज़ से अनभिज्ञ है. ऐसी ही परिस्थितियों के कारण दुनिया के कितने देश आर्थिक कंगाली में चले गए हैं. भारत के पड़ोसी श्रीलंका और पाकिस्तान में तो अर्थव्यवस्था पतन के बुरे दौर में पहुंच गई है. इन देशों में भी राजनीति की मुफ्तखोरी से बर्बादी आई है.
पीएम नरेंद्र मोदी इस दिशा में कई बार सचेत कर चुके हैं. राजनीतिक मजबूरी के कारण कई बार प्रतिस्पर्धा में मुकाबले के लिए खड़े होने की दृष्टि से भी मुफ्तखोरी को देखना और बर्दाश्त करना पड़ता है. मुफ्तखोरी पर रोक कोई एक राजनीतिक दल नहीं लगा सकता है इस पर सर्वदलीय सहमति की जरुरत है. ओल्ड पेंशन स्कीम पर भाजपा जहां अभी आर्थिक हालात के कारण चुप है वहीं कांग्रेस ओपीएस को चुनावी हथियार के रूप में उपयोग कर रही है.
अगर जनधन से एक दलअपना सत्ता लोभ पूरा करने में सफल होगा तो स्वाभाविक रूप से दूसरा दल भी इस दिशा में आगे बढ़ेगा. अंततः इस राजनीतिक खेल का हश्र देश-राज्य और जनता को ही भुगतना पड़ेगा. सुप्रीम कोर्ट मुफ्तखोरी की योजनाओं को रोकने के लिए किसी निर्णायक नतीजे पर पहुँचने का प्रयास कर रहा है. चुनाव आयोग, रिजर्व बैंक आफ इंडिया, कैग और राज्यों का वित्तीय प्रबंधन नियंत्रित करने वाली सभी संवैधानिक संस्थाओं को सरकारों के लिए नहीं जनता के लिए उचित व्यवस्था निर्मित करने का काम करने की जरूरत है.