राहुल गांधी की इम्फाल से न्याय यात्रा और अयोध्या से भाजपा का नया सफर
सोमनाथ और इंफाल में भला क्या साम्य ? जबकि दोनों के बीच दूरी और परिस्थितियां नितांत भिन्न हैं। सियासी तौर पर देखें तो चौंतीस साल बाद एक साम्य बन रहा है। अगस्त 1990 में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथ यात्रा शुरू की थी, क्योंकि तत्कालीन वीपी सिंह सरकार ने मंडल कमीशन रिपोर्ट लागू करने का फैसला लिया था, तब आरएसएस ने इसे हिंदू समाज पर विभाजन के खतरे के रूप में लिया और एकता के सूत्र में बांधे रखने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण आंदोलन को गति देने की ठानी। इसी तरह चार दिन बाद 14 जनवरी से कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी 'रथ' पर सवार हो रहे हैं और करीब तीन महीने के सफर के बाद मुंबई में भारत जोड़ो न्याय यात्रा के अंतिम बिंदु पर पहुंचेंगे।
उनका मकसद भी भारत को एकजुट रखना और सही मायने में सामाजिक न्याय दिलाना है मगर राहुल के आठ दिन बाद संघ, विहिप, भाजपा व मोदी सरकार भी रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के बाद अयोध्या से 'यात्रा' पर निकलेगी, यह नजर भले न आए, लेकिन 'महसूस' जरूर होगी। साफ है कि, यात्राओं की मंजिल लोकसभा का वह चुनाव है, जो कई मायनों में बेहद महत्वपूर्ण व देश के लिए टर्निंग पाइंट सरीखा कहा व माना जा रहा है।
इसलिये कहा जा सकता है कि, सिर्फ मुसाफिर ही यात्रा नहीं करते, बल्कि समय भी उनके साथ खामोशी से सफर तय करता है। कांग्रेस की ताजा यात्रा डेढ़ साल पहले वाली भारत जोड़ो यात्रा की कामयाबी से प्रेरित है मगर हाइब्रिड मोड में है, यानी बड़ा हिस्सा बस में और बीच-बीच में पैदल मार्च।
यात्रा की शुरुआत हिंसा पीड़ित मणिपुर से करना वह संदेश है जो कांग्रेस अधिक प्रचारित करना चाहती है। यात्रा के केंद्र में 'न्याय' को रखना बता रहा है कि कांग्रेस संवैधानिक मूल्यों पर जोर देना चाहती है, वह दिखाना चाहती है कि सत्तारूढ़ पक्ष एक धर्म, पंथ, संस्कृति और एक नेता पर जोर देकर भारत की उदारता व न्याय वाली मूल दृष्टि को नुकसान पहुंचा रहा है।
2019 के चुनाव में कांग्रेस न्यूनतम आय योजना 'न्याय' नाम से लाई थी, इसलिए प्रियंका गांधी के जोर देने पर यात्रा में न्याय शब्द भी जुड़ा। मगर राहुल का यह सफर पिछले सफर की तरह आसान कदापि नहीं लगता, क्योंकि उनके सामने सिर्फ चुनाव ही नहीं, बल्कि उस गठबंधन को साधकर कदमताल की चुनौती है, जिसका नाम उनके आईडिये पर इंडिया रखा गया। इसे जोड़े रखना भी यात्रा के फलितार्थ में शामिल है।
मगर हिंदी पट्टी के राज्यों में हाल की करारी हार के बाद कांग्रेस पर भाजपा की मनोवैज्ञानिक बढ़त भी है। हिंदुत्व पर फिर वह कांग्रेस को पटखनी देने की पिच तैयार कर चुकी है। जबकि कांग्रेस अपनी आईडियालॉजी पर बार-बार असमंजस में है। उसके दिग्गज नेता चूक गए लगते हैं। नए नेताओं को कांग्रेस बड़ा एक्सपोजर नहीं दे सकी, जिसके चलते कई युवा नेता पार्टी छोड़ चुके हैं। बहरहाल, 2019 के आम चुनाव में भी राहुल ही भाजपा के मुकाबिल थे, तमाम साहस के बाद भी नाकाम हुए, कांग्रेस को फिर उनसे उम्मीद है, यह और बात है कि यह दूसरी है या आखिरी.?
अब फिर आडवाणी की यात्रा पर लौटें तो उस रथयात्रा से भाजपा का एक मजबूत कार्यकर्ता भी तैयार हुआ था- नरेंद्र मोदी। जिसने कुछ समय पहले राम मंदिर की नींव रखी और अब लोकार्पण कर रहा है। कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा से भी नया व ज्यादा स्वीकार्य राहुल गांधी तैयार हुआ, मगर वह कितना मुकम्मल व मंज सका, यह यात्रा 2.0 के फौरन बाद साबित हो जाएगा।