इन दिनों गारंटी शब्द इतना लोकप्रिय हो रहा है कि इस बार भाजपा ने तो ‘मोदी की गारंटी’ नाम का जुमला ही बना लिया है।
देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने बहुत मार्के की बात कही है कि “समाज में जिस तथाकथित मुफ्त उपहार की ‘अंधी दौड़’ देखने को मिल रही है, उसकी राजनीति खर्च करने संबंधी प्राथमिकताओं को विकृत कर देती है।“ हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव और आगामी लोकसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य इसे देखा और समझा जाना चाहिए । इन दिनों गारंटी शब्द इतना लोकप्रिय हो रहा है कि इस बार भाजपा ने तो ‘मोदी की गारंटी’ नाम का जुमला ही बना लिया है।
सिर्फ़ भाजपा ने ही नहीं, कांग्रेस ने चार राज्यों में और तेलंगाना में बीआरएस ने भी गारंटियों की झड़ी लगा दी। इन वादों में एलपीजी सिलेंडर रिफिल पर भारी सब्सिडी, स्त्रियों को हर महीने धनराशि वगैरह-वगैरह शामिल हैं। इस साल मई में हुए कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस को मिली सफलता के पीछे ‘पांच गारंटियों’ की बड़ी भूमिका थी। पार्टी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में गृह ज्योति, गृह लक्ष्मी, अन्न भाग्य, युवा निधि एवं शक्ति की पांच गारंटियां दी थीं। गृह ज्योति के तहत 200 यूनिट नि:शुल्क बिजली, गृह लक्ष्मी में परिवार की मुखिया को दो हजार रुपये, अन्न भाग्य में दस किलोग्राम अनाज, युवा निधि में बेरोजगार स्नातकों को तीन हजार और डिप्लोमाधारियों को डेढ़ हजार रुपये महीने, शक्ति योजना के तहत महिलाओं को राज्यभर में सरकारी बसों में नि:शुल्क यात्रा की सुविधा की गारंटी थी।
मोदी सरकार ने अगले पांच वर्षों के लिए 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने की घोषणा करके ‘पोस्टडेटेड’ चेक की भाँति ‘पोस्टडेटेड’ गारंटी दी है, यह मानते हुए कि 2024 में सरकार उनकी ही आएगी। यह योजना पहली बार अप्रैल, 2020 में महामारी के दौरान तीन महीने के लिए शुरू की गई थी। फिर इसे छोटी-छोटी अवधियों के लिए बढ़ाया गया। अब इसे एकमुश्त पांच साल के लिए बढ़ाने से एक बात की पुष्टि हुई है कि ये गारंटियां चुनावी सफलता की गारंटी हैं।
कोई कह सकता है कि इन गारंटियों में हर्ज ही क्या है? जनता का पैसा कल्याणकारी योजनाओं पर ही तो लग रहा है। हाल ही के वर्षों में केंद्र और राज्यों के राजस्व में काफी वृद्धि हुई है। फिर भी उनके पास इतने संसाधन नहीं हैं कि वे इस मुफ्तखोरी को लंबे समय तक चला सके। भारत के रिजर्व बैंक ने पिछले साल अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि राज्य सरकारें मुफ्त की योजनाओं पर जमकर खर्च कर रही हैं, जिससे वे कर्ज के जाल में फंसती जा रही हैं। ‘स्टेट फाइनेंसेस : अ रिस्क एनालिसिस’ शीर्षक रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब, राजस्थान, बिहार, केरल और पश्चिम बंगाल कर्ज के दलदल में धंसते जा रहे हैं। पर्याप्त संसाधनों का मतलब यह भी नहीं है कि उन्हें उड़ा दिया जाए, बल्कि दीर्घकालीन विकास से जुड़े कार्यक्रमों पर उन्हें लगाना चाहिए।
अब समय आ गया है कि कल्याणकारी शब्द की व्याख्या हो। व्यावहारिक दृष्टि से कल्याणकारी लाभ का मतलब है उसकी बुनियादी दिक्कतों का दूर होना। आम जनता की गरीबी, बेरोजगारी, आवास, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी समस्याओं का दीर्घकालीन समाधान ही अर्थ निकलता है । ऐसे दूरगामी कार्यक्रमों को अक्सर समझ पाना आसान नहीं होता, जबकि हाथ में नकदी आना, मुफ्त बिजली, अनाज या मुफ्त-यात्रा का सुख फौरन दिखाई पड़ता है। इन कार्यक्रमों की अलग-अलग श्रेणियां बनाई जाएं, तो उनके लाभ और हानियां भी सामने आएंगे। देखना यह भी ज़रूरी है कि सरकारी खजाने में इन सब कार्यक्रमों को पूरा कर पाने की सामर्थ्य है भी या नहीं।
भारत की राजनीति में गरीबनवाज़ की छवि जादू दिखाती है। इंदिरा गांधी का ‘गरीबी हटाओ’ वर्ष 1985 में आंध्र विधानसभा के चुनाव में तेलुगु देशम् पार्टी का दो रुपये किलो चावल देने का वादा ऐसा ही था । चुनाव में ज़बर्दस्त सफलता मिली। भले ही चुनाव के बाद आठ रुपये किलो चावल बिका, पर जादू तो चला। दक्षिण भारत में तोहफों की राजनीति का एक नया दरवाजा तभी से खुला है।इस प्रवृत्ति को लेकर ही सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु राज्य मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा था, जिस पर 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चुनावी घोषणापत्र में किए वादों को भ्रष्ट-आचरण नहीं माना जा सकता।चुनावी वायदे भ्रष्ट आचरण हैं या नहीं, यह विषय एक अरसे से चर्चा का विषय है। यह मसला अब भी सुप्रीम कोर्ट में किसी न किसी रूप में विचाराधीन है।
सुप्रीम कोर्ट ने इसे गंभीर मुद्दा बताते हुए सरकार तथा चुनाव आयोग से कहा है कि वे इसे रोकने के लिए जरूरी समाधान खोजें। इस बार भी चुनाव से पहले मध्य प्रदेश और राजस्थान में सरकारों की ओर से चुनाव के ठीक पहले की जा रही घोषणाओं के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दाखिल की गई थीं। अदालत भी यह जिम्मेदारी राजनीतिक दलों पर डाल देती है कि वे संसद और विधानसभाओं में जाकर ‘मुफ्त की रेवड़ियों’ की परंपरा खत्म करने के लिए कानून बनाएं। क्या राजनीतिक दल इसके लिए तैयार होंगे?