इसे संयोग ही कहा जायेगा, कि जिन राम के राज के अपने सपने को साकार करने के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ताजिंदगी प्रयासरत रहे, उनकी राजधानी या कि जन्मभूमि अयोध्या वे सिर्फ दो बार ही पहुंच सके..!!
राम को काल्पनिक बताने वाली कांग्रेस को अब भी अयोध्या से मलाल है, वे राम और अयोध्या को उस प्रकार स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, जैसे महात्मा गांधी ने किया था। इसे संयोग ही कहा जायेगा, कि जिन राम के राज के अपने सपने को साकार करने के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ताजिंदगी प्रयासरत रहे, उनकी राजधानी या कि जन्मभूमि अयोध्या वे सिर्फ दो बार ही पहुंच सके। अलबत्ता, अपने संदेशों से इन दोनों यात्राओं को महत्वपूर्ण बनाने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी।काश, आज के कांग्रेस नेता गांधी को समझते तो कम से कम वे मुद्दे नहीं उठाते जो आज ग़ैर ज़रूरी हैं।
10 फरवरी, 1921 को उनकी पहली यात्रा थी तत्समय के स्थानीय कांग्रेसी नेता-आचार्य नरेन्द्रदेव व महाशय केदारनाथ- गांधीजी के डिब्बे में गये तो पता चला कि उन्होंने डिब्बे की कुछ खिड़कियां बंद कर ली हैं और किसी से मिलने से मना कर दिया है।दरअसल, गांधी जी इस बात को लेकर नाराज थे कि अवध में चल रहा किसान आंदोलन खासा उत्पाती हो चला था। फैजाबाद के किसानों ने बगावती तेवर अपनाकर उन्होंने तालुकेदारों व जमींदारों के घरों में आगजनी व लूटपाट की थी। यह स्थिति गांधी जी की बर्दाश्त के बाहर थी, लेकिन अनुनय-विनय करने पर उन्होंने यह बात मान ली कि वे सभा में चलकर लोगों से अपनी नाराजगी ही जता दें।
तब उनके साथ अबुल कलाम आजाद के अतिरिक्त खिलाफत आंदोलन के नेता मौलाना शौकत अली भी थे जो लखनऊ कांग्रेस में हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल, असहयोग और खिलाफत आंदोलनों के मिलकर एक हो जाने के बाद के हालात में साथ-साथ दौरे पर निकले थे, मगर गांधी जी मोटर पर सवार होकर जुलूस के साथ चले तो देखा कि खिलाफत आंदोलन के अनुयायी हाथों में नंगी तलवारें लिए उनके स्वागत में खड़े हैं। सभास्थल पर पहुंच भारी जनसमूह से पहले तो उन्होंने हिंसा का रास्ता अपनाने के बजाय कष्ट सहकर आन्दोलन करने को कहा, फिर किसानों की हिंसा व तलवारधारियों के जुलूस की निन्दा की।
ध्यान रहे , उन्होंने देशवासियों को ये दो मंत्र देने के लिए उस अयोध्या को चुना जिसके राजा राम के राज्य की कल्पना साकार करने के लिए वे अपनी अंतिम सांस तक प्रयत्न करते रहे। सुबह सरयू स्नान के बाद गांधी जी अपने अगले पड़ाव की ओर बढ़ गये तो भी किसानों द्वारा हिंसा उनको सालती रही। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू से इन भटके किसानों को सही राह दिखाने को कहा था।
बापू अयोध्या आये तो बाल गंगाधर तिलक का निधन हो चुका था,इस वक्त वे न सिर्फ खिलाफत आंदोलन को अपने ढंग के आन्दोलन में ढाल रहे थे बल्कि हिंदु-मुस्लिम एकता की राह में डाले जा रहे रोड़े भी बुहार रहे थे। इन रोड़ों में सबसे प्रमुख था गोहत्या का मसला, जिसे अंग्रेज लगातार साम्प्रदायिक रंग दे रहे थे। गांधी जी अयोध्या में इस मसले पर खुलकर बोले। उन्होंने गोहत्या के लिए अंग्रेजों को कठघरे में खड़ा कर गोरक्षा के लिए हिन्दू मुस्लिम एकता को अपरिहार्य बताया। ऐसा करते हुए उन्होंने जहां स्वतंत्रता संघर्ष के दूसरे पहलुओं की अनदेखी नहीं की।
वे 11 फरवरी की सुबह अयोध्या के सरयूघाट पर पंडित चंदीराम की अध्यक्षता में हो रही साधुओं की सभा में पहुंचे। साधुओं को सम्बोधन में कहा, ‘कहा जाता है कि भारतवर्ष में 56 लाख साधु हैं। ये सब बलिदान के लिए तैयार हो जायें तो अपने तप तथा प्रार्थना से भारत को स्वतंत्र करा सकते हैं। लेकिन ये अपने साधुत्व के पथ से हट गये हैं। इसी प्रकार से मौलवी भी भटक गये हैं…। मैं साधुओं से अपील करता हूं कि यदि वे गाय की रक्षा करना चाहते हैं तो खिलाफत के लिए जान दे दें।’
अपने भाषण के समापन में कहा था , जो ‘संस्कृत के विद्यार्थी यहां आये हुए हैं । हर विद्यार्थी समझ ले कि अंग्रेजों से ज्ञान उपार्जन करना जहर का प्याला पीना है। …आप स्वदेशी हो जाइये। इस भाषण का अंग्रेजी अनुवाद लखनऊ स्थित राजकीय अभिलेखागार में संरक्षित है। इस भाषण से पहले वे फैजाबाद की सभा में वे सत्याग्रह, अंग्रेज सरकार से शांतिपूर्वक असहयोग करने, विदेशी वस्त्रों को त्यागने, सरकारी सहायताप्राप्त विद्यालयों का बहिष्कार करने का वे आह्वान कर चुके थे।
1929 में वे अपने हरिजन फंड के लिए धन जुटाने के सिलसिले में एक बार फिर अपने राम की राजधानी आये। फैजाबाद शहर के मोतीबाग में सभा हुई। इस यात्रा में गांधी जी धीरेन्द्र भाई मजूमदार द्वारा अकबरपुर में स्थापित देश के पहले गांधी आश्रम भी गये थे। वहां ‘पाप से घृणा करो पापी से नहीं’ का संदेश दिया। आश्रम की सभा में उन्होंने लोगों से संगठित होने, विदेशी वस्त्रों के त्याग, शराबबंदी के प्रति समर्पित होने आदि को कहा, फिर तो अवध के उत्पाती किसानों ने भी हिंसा का रास्ता त्याग दिया।
आज दो बड़े दलों के बीच राम को प्रतिष्ठा युद्ध की रेखा के भाँति उपयोग किया जा रहा है, कोई इस पार से प्रतिष्ठा लूटना चाहता है कोई उस पार से। बेचारे राम बीच में हैं।