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सवालिया सरकारी कर पद्धति?

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Thu , 12 Sep

सार

इन्फोसिस इस लेन-देन की व्याख्या स्वयं को उपलब्ध कराई सेवा के रूप में कर रही है परंतु, कर विभाग का तर्क है कि विदेश में कंपनी के कार्यालय या सहायक इकाइयां स्वतंत्र हैं, इसलिए कंपनी को उसे कर चुकाना चाहिए,कर विभाग के इस दावे पर स्थिति साफ नहीं है और उलझन बनी हुई है, जिससे बाजार में चिंता और बढ़ गई है..!!

janmat

विस्तार

सरकार कभी-कभी जल्दबाज़ी में ऐसे कदम उठा लेती है,जिससे बाज़ार में उसकी साख प्रभावित होने लगती है। ऐसा ही एक मामला इन दिनों चर्चा में है,सूचना-प्रौद्योगिकी (आईटी) क्षेत्र की नामी कंपनी इन्फोसिस को कर विभाग की तरफ से प्रारंभिक कारण बताओ नोटिस मिलने के बाद बाजार एवं अन्यत्र असंतोष दिख रहा है। इस नोटिस में उल्लेख किया गया है कि इन्फोसिस पर भारत एवं विदेश में उसके कार्यालयों के बीच हुए लेन-देन से संबंधित एकीकृत वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की देनदारी बनती है।

इन्फोसिस इस लेन-देन की व्याख्या स्वयं को उपलब्ध कराई सेवा के रूप में कर रही है परंतु, कर विभाग का तर्क है कि विदेश में कंपनी के कार्यालय या सहायक इकाइयां स्वतंत्र हैं, इसलिए कंपनी को उसे कर चुकाना चाहिए।कर विभाग के इस दावे पर स्थिति साफ नहीं है और उलझन बनी हुई है, जिससे बाजार में चिंता और बढ़ गई है। राज्य प्राधिकरण (कर्नाटक) ने भी नोटिस जारी किया था परंतु, अब उसने इसे वापस ले लिया है। कुछ पुराने कर, जिन्हें अब चुकाने के लिए कहा जा रहा है, वे समय से परे (टाइम बार्ड) हो सकते हैं या जल्द इस स्थिति में पहुंच सकते हैं।

यह दावा जुलाई में निर्गत एक परिपत्र में दिए गए एक प्रावधान से निष्प्रभावी हो भी सकता है और नहीं भी। अन्य आईटी कंपनियां, जिनकी विदेश में इकाइयां हैं, उनके समक्ष भी यह कर मांग रखी जा सकती है या नहीं भी रखी जा सकती है। यह भी संभव है कि उन्हें जुलाई में निर्गत परिपत्र से सुरक्षा मिल जाए या फिर न मिले। विदेश में सहायक इकाइयां या शाखा कार्यालय रखने वाली विमानन कंपनियों से भी ऐसी मांग की जा सकती है और नहीं भी।

कर दावों पर जिस तरह उलझन की स्थिति बनी है सरकार को इससे निश्चित तौर पर बचने का प्रयास करना चाहिए। यह संभव है कि सरकार ने कानून में वर्णित विभिन्न समय सीमा का पालन करने की हड़बड़ी में इन्फोसिस को 32,400 करोड़ रुपये कर चुकाने के लिए कहा है। सरकार ने कर के रूप में इन्फोसिस से जितनी रकम मांगी है वह कंपनी के मुनाफे के आंकड़े के बराबर नजर आ रही है। यह कानून की मर्यादा का उल्लंघन और व्यावहारिक रूप से करदाता के लिए अवमानना है।

सरकार को कर मांगने से पहले सोच-विचार करना चाहिए था और समग्र कारोबारी मानकों के संदर्भ में निर्णय लेना था। परंतु, ऐसा नहीं हुआ और एक समय सीमा का पालन करने के लिए उसने आनन-फानन में फैसला ले लिया गया। संभव है कि सरकार ने सोचा होगा कि कंपनी से कर मांगने के बाद जांच-पड़ताल की जाएगी और कुछ अनियमितता दिखेगी तो वह नोटिस वापस ले लेगी। यह रवैया स्वीकार्य नहीं है और उन अधिकारियों की जवाबदेही तय की जानी चाहिए, जो कानून की गलत व्याख्या कर नोटिस भेजते हैं।

पिछले दशक में हुए कर सुधार की मूल भावना अधिक पारदर्शिता एवं सटीक अनुमान पर आधारित है। ये दोनों बातें यह व्यावहारिक रूप में भी दिखनी चाहिए। आनन-फानन में भेजे गए ऐसे कर नोटिस इस मूल भावना के बिल्कुल उलट हैं और बाजार व्यवस्था में उलझन की स्थिति खड़ी करते हैं।

इन्फोसिस जैसी कंपनी का सामान्य कारोबारी व्यवहार उचित रूप में कराधान के दायरे में लाया जाता है तो खुली चर्चा के माध्यम से इस दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। परंतु, अचानक एवं पिछली तारीख से इसे लागू करना उचित नहीं माना जा सकता। यहां स्थिति कुछ इस तरह है कि एक बड़ी कंपनी एक विशेष आचरण के साथ कई वर्षों से कर चुकाती आ रही है और फिर अचानक कर विभाग को याद आता है कि कर चुकाने का तरीका या आधार ठीक नहीं है।

उसके बाद सरकार तपाक से कर भुगतान की अंतिम तारीख से ठीक पहले कर नोटिस थमाती है। सरकार का यह रवैया अचरज भरा है। केंद्र सरकार लगातार दावा करती रही है कि लोगों एवं कंपनियों में कर का डर दूर किया जा रहा है परंतु, वास्तविकता यह है कि कर अधिकारियों की तरफ से उठाया गया ऐसा प्रत्येक कदम (भले ही बाद में वापस क्यों न ले लिया जाए) इस बात की ओर इशारा करता है कि कर संग्रह तंत्र के संचालन पर नीति निर्धारकों का कम या बिल्कुल नियंत्रण नहीं है। जब तक जीएसटी प्रणाली में सुधार एवं इसे सरल नहीं बनाया जाएगा और कर विभाग की जवाबदेही तय नहीं की जाएगी तब तक निवेशक भारत में कारोबार करने से कतराएंगे।