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राहुल, सैम, चार्ज शीट और मंच पर साथ-साथ

सार

आदत और परंपरा के अनुसार राहुल गांधी का इस बार का अमेरिका दौरा भी विवादों में आ गया है. राहुल गांधी भारत की चुनाव प्रक्रिया और उसकी शुद्धता पर सवाल खड़े कर रहे हैं. चुनाव आयोग पर निष्पक्षता से समझौते का आरोप लगा रहे हैं. .!!

janmat

विस्तार

    महाराष्ट्र चुनाव परिणाम और मतदान के आंकड़ों, मतदाता सूची और राज्य में व्यस्कों की संख्या से ज्यादा मतदान की बात कर रहे हैं. जिस दिन महाराष्ट्र के परिणाम आए थे, उसी दिन झारखंड के भी चुनाव परिणाम आए थे. वही आयोग, प्रक्रिया, मतदाता पुनरीक्षण एक ही तरीका लेकिन झारखंड में उन्हें चुनाव आयोग निष्पक्ष दिखता है और महाराष्ट्र में पक्षपाती.

    बोलना नेता के हाथ में होता है लेकिन उसको तोलना और उस पर नेता का राजनीतिक वजन तय करना जनता के हाथ होता है. राहुल गांधी की बातों में अर्थ खोजना लगभग व्यर्थ ही साबित होता है. अगर यह मान भी लिया जाए कि, चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता, शुद्धता और अशुद्धता पर सवाल वाजिब है, तब भी ऐसे सवाल भारत में उठाए जाएंगे या अमेरिका में?

  विदेश की धरती पर जब भी देश के लोकतंत्र या संवैधानिक संस्थाओं पर सवाल खड़े किए जाते हैं तो यह किसी राजनीतिक दल से नहीं जुड़ते बल्कि इससे देश का निरादर होता है. संसद का नेता प्रधानमंत्री होता है तो विपक्ष का नेता भी संसदीय लोकतंत्र में महत्वपूर्ण स्थान रखता है. जब अर्थहीन बातें करना ही आदत बन जाती है तो फिर उसको सुनकर दूसरे कान से निकाल देना भी एक आदत का ही रूप ले लेती है.

  हाथ में संविधान लेकर हीरो बनने निकले राहुल गांधी जब संविधान के साथ विलेन जैसा बर्ताव करने लगते हैं, तब उनकी बातों का अर्थ राजनीतिक दुश्मनों को ही नहीं उनके दोस्तों को भी समझ नहीं आता. इस बार के अमेरिका दौरे पर उनकी बातों पर बीजेपी की प्रतिक्रिया अपनी जगह है लेकिन अगर चुनाव की निष्पक्षता पर कोई लड़ाई भी लड़ी जाना है तो वह भारत में ही लड़ी जाएगी या अमेरिका से विदेशी दबाव इस पर काम आएगा.

  विदेश की धरती पर जाकर राहुल गांधी पहली बार ऐसा वक्तव्य नहीं दे रहे हैं. वह जब भी जाते हैं तब ऐसा ही करते हैं. अब तो ऐसा लगने लगा है कि जैसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मोदी सरकार के विरोध में बातें कर, लीडर के रूप में अपनी पहचान बनाने की वह कोशिश करते हैं.

  राहुल गांधी के अमेरिकी दौरे में दिया गया लोकतंत्र विरोधी वक्तव्य चर्चित हो गया लेकिन जिस मंच से वह वक्तव्य दे रहे थे उसी मंच पर अंकल सैम पित्रोदा दिखाई पड़ रहे हैं. राहुल और सैम इंडिया में नेशनल हैराल्ड मामले में ईडी द्वारा दायर चार्जशीट में एक साथ आरोपी हैं. इंडिया में चार्जशीट में तो फिर अमेरिका में मंच पर साथ-साथ दिखाई दे रहे हैं. मंच पर राहुल गांधी के साथ उनका होना भी कांग्रेस की बातों को अर्थहीन बता रहा है.

   साल भर पहले ही लोकसभा चुनाव के दौरान सैम ने भारत के लोगों को लेकर ऐसे बयान दिए थे, जिसकी चुनाव में गहन प्रतिक्रिया हुई थी. कांग्रेस को लगा कि इसके कारण उन्हें नुकसान हो सकता है, तत्काल कांग्रेस ने अधिकृत बयान जारी कर सैम पित्रौदा को ओवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटा दिया था. हटाने की कार्यवाई केवल कागज पर की गई थी और सैम अपनी भूमिका निभाते रहे.

   लोकसभा चुनाव के बाद राहुल गांधी जब पहली बार अमेरिका गए तो फिर से पित्रोदा उनके कार्यक्रमों का मैनेजमेंट कर रहे हैं, जैसे कि पहले करते थे. अब तो उनके गांधी परिवार से रिश्ते के तार नेशनल हेराल्ड से भी जुड़ गए हैं. राहुल गांधी की बातों में अगर अर्थ खोजने का कोई प्रयास करेगा तो उसका निराशा होना स्वाभाविक है. अगर किसी ने लोकसभा चुनाव के समय यह मान लिया हो कि, कांग्रेस कह रही है तो सैम पित्रोदा को पार्टी से हटा दिया गया होगा तो अब मंच पर दोनों को साथ देखकर निराशा स्वाभाविक है. 

   राहुल गांधी की बातों का अर्थ राजनीतिक विरोधी तो इसलिए समझ लेते होंगे क्योंकि उनकी बातों से उन्हें राजनीतिक फायदा होता है. कांग्रेस के दोस्तों के लिए राहुल गांधी की बातों का अर्थ निकालना कठिन हो गया है. कांग्रेस ने अपनी सरकारों के समय जो नीतियां बनाई थी, आज राहुल गांधी उसके विपरीत काम करते दिखाई पड़ रहे हैं. इंदिरा गांधी, राजीव गांधी जातीय जनगणना के खिलाफ थे और आज यह राहुल गांधी का सबसे बड़ा एजेंडा है.

   आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण और विनिवेश कांग्रेस की ही नीति रही है लेकिन आज राहुल गांधी इसके खिलाफ खुलकर राजनीति कर रहे हैं. उद्योगपतियों के खिलाफ आरोप लगाते हैं. राहुल गांधी के जितने करीबी दोस्त राजनेता समझे जाते थे, इनमें से अधिकांश कांग्रेस छोड़कर दूसरे राजनीतिक दलों में जा चुके हैं. इसका कारण शायद यही है कि, उनकी बातों का दोस्तों को भी कोई अर्थ समझ नहीं आता. 

राहुल गांधी की हर सभा में अदानी और अंबानी के खिलाफ आरोप लगाने की उनकी बातों का क्या अर्थ है? यह आज तक कांग्रेस नेता और कार्यकर्ता समझ नहीं सके. ना तो इसका राजनीतिक लाभ हो रहा है और ना ही इसके कारण कांग्रेस शासित राज्य सरकारें अदानी - अंबानी से दूरी बना रही है फिर भी राहुल गांधी के कंप्यूटर का डाटा अपने पुराने आरोप दोहराता चला जा रहा है. 

   कांग्रेस पार्टी के भीतर बीजेपी के वफादार होने का भी राहुल गांधी आरोप लगाते हैं. शादी का घोड़ा और रेस के घोड़े की बात कर अपने कार्यकर्ताओं को वह चार्ज करते हैं या कार्यकर्ताओं में रेस और शादी के घोड़ों के बीच लड़ाई का मंच उपलब्ध कराते हैं? यह समझ से परे है. 

  अगर उनमें यह क्षमता है कि वह पार्टी में शामिल मिलावटी नेताओं और कार्यकर्ताओं की पहचान कर सकते हैं तो फिर अब तक ऐसे लोग कांग्रेस में क्यों बने हुए हैं? इसका भी उत्तर राहुल गांधी ही दे सकते हैं. 

बातें ऐसी हो जिसका कोई अर्थ निकले. अर्थहीन बातें समाज और देश के लिए अनर्थकारी ही साबित होती हैं. अगर कोई नेता ईमानदारी से सुधार चाहता है तो वह बातों से नहीं होगा उसके लिए काम करना होगा. इलेक्शन कमीशन ईश्वर ने नहीं बनाया है इसका गठन भी संसदीय सरकारों ने ही किया है. कांग्रेस जैसा करती रही है, कम से कम अब तो कानून बनाकर व्यवस्था में सुधार दिखता है.

  सुधार की प्रक्रिया फुलप्रूफ नहीं हो सकती. राहुल गांधी ऐसा मानते हैं कि उनके आरोप फुलप्रूफ है तो फिर उन्हें भारत के संविधान के मुताबिक देश में ही इन आरोपों के खिलाफ लड़ाई और जन जागरण करके देश के सामने साबित करना होगा.