देश में एक तरफ हीट वेव चल रही है तो दूसरी तरफ धार्मिक आजादी का पॉलिटिकल वेव चल रहा है. हर तरफ धर्म और मजहब को बचाने के पैगाम गाये जा रहे हैं. सर्वोच्च अदालत से लगाकर सड़कों तक धार्मिक उन्माद की बातें हवा में तैर रही हैं..!!
सारा मसला संशोधित वक्फ़ कानून से खड़ा हुआ है. विरोधी राजनीतिक दल और कुछ मुस्लिम संगठन इसे मजहब में हस्तक्षेप मानकर अदालत के साथ ही सड़कों पर धरना प्रदर्शन कर रहे हैं. वक्फ़ बचाओ सम्मेलन हो रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने नए कानून के कुछ प्रावधानों पर सरकार से सफाई मांगी है जो अगली सुनवाई में सामने आएगी.
कानून के इस धर्म युद्ध में सब अपनी अपनी आहुतियां डाल रहें हैं. सर्वोच्च न्यायालय पर भी सवाल खडे़ किये जा रहे हैं. प्रदर्शनों में मौलवी मौलानाओं की सरकार के खिलाफ़ जो भाषा सुनाई पड़ रही है, वह संविधान सम्मत तो नहीं है. वक्फ़ कानून के सहारे एक पक्ष मुस्लिम समाज में अमीर और गरीब के कल्याण की बात कर रहा है तो वही दूसरा पक्ष समाज को एकजुट कर सड़कों पर उतरने की बातें कर रहा है. बातें कब? भड़काऊ और गलत हो जाती हैं, यह मंच पर भाषण देने वाला शायद समझ नहीं पाता.
बंगाल तो हिंदू मुस्लिम राजनीति की प्रयोगशाला बना हुआ है. वक्फ़ विरोध के नाम पर मुर्शिदाबाद में जो कुछ भी घटा है, उसकी राख इतनी जल्दी बुझने वाली नहीं है क्योंकि अगले साल वहां चुनाव होना है. तुष्टिकरण और ध्रुवीकरण का खेल चरम पर है. किसी एक पक्ष को दोष देना वाजिब नहीं होगा. हिंदुस्तान की धरती पर हिंदुओं का पलायन पाकिस्तान और बांग्लादेश की याद ताजा कर रहा है.
बंगाल का इतिहास कई सालों से रक्त रंजित राजनीति का ही रहा है. पहले कम्युनिस्ट सरकारें जिस ढर्रे पर चला करती थीं, ममता बनर्जी भले उनसे सत्ता छीनने में सफल हो गईं लेकिन ढर्रे में कोई बदलाव नहीं आया. बंगाल में अब सीधा मुकाबला टीएमसी और बीजेपी के बीच में है. मुसलमानों की आबादी चुनावी राजनीति में एक तरफा फैसला करती है. बंगाल में यह आबादी सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका निभाने लगी है.
इसमें फेर बदल तभी संभव होगा जब पूरा बंगाल हिंदू-मुस्लिम राजनीतिक ध्रुवीकरण का आकार ले पाएगा. वक्फ़ के नाम पर यह ध्रुवीकरण बहुत तेजी से हो रहा है. राजनीतिक ध्रुवीकरण तक तो परिस्थितियों को डाला जा सकता है लेकिन जब यह स्थानीय स्तर पर बहुसंख्यक समाज द्वारा अल्पसंख्यक समाज की हत्या का कारण बन जाए, उनके घर जलाए जाने लगें, पलायन करना पड़े, शेल्टर होम में जाकर रहना पड़े, तब तो फिर हकीकत पर गौर करना ज़रूरी है.
मुर्शिदाबाद में हिंदुओं की हत्या हुई. हिंदुओं को पलायन करना पड़ा. जब यह सब चरम पर था. इस बीच ममता बनर्जी ने कोलकाता में राज्य के इमामों को बुलाकर संवाद किया. किसी से भी संवाद बुरा नहीं है लेकिन इसके के पीछे जब वोट की ममता छुपी हो तब सारे प्रयास धूर्तता की नजर से ही देखे जाते हैं.
इमाम से ममत्व का प्रदर्शन और वहां दिए गए भाषण, घुमाफिरा कर यही संदेश दे रहे थे कि, वोट बैंक का समर्थन और एकजुटता बनी रहे. ममता ने तो यहां तक कह दिया कि, इस संविधान के तहत बनाए गए वक्फ़ कानून को वह बंगाल में लागू नहीं करेंगी. उनका यह दावा संविधान सम्मत नहीं है, फिर भी इमामों के सामने यह बात कहकर ही वह उनके प्रति अपने कमिटमेंट की मजबूती पेश कर रही हैं.
यही मजबूती दूसरे समुदाय पर हमलो को प्रेरित करती है. लगातार मांग हो रही है कि ममता बनर्जी को मुर्शिदाबाद जाकर हिंदू पीड़ितों से मिलना चाहिए. शेल्टर होम में जाकर हिंदू पीड़ित परिवारों से मुलाकात कर राहत पहुंचानी चाहिए. ममता बनर्जी वहां जाएंगी जरूर लेकिन तब, जब वोट बैंक की ओर से यह संकेत मिलेगा कि हमारी मैसेजिंग अपडेट हो गई है, अब आप दूसरे समुदाय में अपनी पॉलिटिकल मैसेजिंग को अपडेट कर सकती हैं.
वक्फ़ की लड़ाई संविधान और कानून की लड़ाई है. इसका नतीजा सड़कों पर तो कभी नहीं निकल सकता है. सड़कों पर केवल राजनीतिक उपयोग हो सकता है. राजनीति में मुसलमान को वोट बैंक के रूप में उपयोग करने वाले राजनीतिक दलों को यह समझना पड़ेगा कि, आजादी के बाद उनकी रणनीतियों का ही दुष्परिणाम है कि, आज हिंदू ध्रुवीकरण राजनीति की हकीकत बन गया है.
इसको जितना ज्यादा बढ़ाया जाएगा वह हिंदू ध्रुवीकरण को यह और तेज करेगा. इससे आगे चलकर उनको नुकसान ही होगा. कानून की सीमा में ही ऐसे मामलों को सुलझाना बुद्धिमानी भरा कदम होगा.
संविधान में धार्मिक आजादी की व्यवस्था को लेकर चारो तरफ अज़ान पढ़ी जा रही है. मुसलमान हर प्रदर्शन में धार्मिक आजादी की बात कर रहे हैं. मुस्लिम समर्थक राजनीतिक दल भी इसी भाषा में बात कर रहे हैं. सबसे पहला सवाल धार्मिक आजादी व्यक्तिगत मामला है या समाजवादी?
अगर व्यक्तिगत है तो यह आजादी प्रत्येक नागरिक के लिए सुरक्षित है. ऐसा नहीं हो सकता कि किसी समुदाय विशेष के लिए धार्मिक आजादी है. वैसे तो धार्मिक आजादी का राग अलापने के लिए अल्पसंख्यक बनने का स्वांग रचा जाता है और जब राजनीति की बात आती है तो हिंदुओं में जातिवाद का जहर घोला जाता है.
अगर जातियों के हिसाब से हिंदू और मुसलमान को ही देख लिया जाएगा तो फिर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की सही स्थितियां स्पष्ट हो जाएंगी. अल्पसंख्यक जनसंख्या का केवल आंकड़ा अगर है तो फिर इसे सभी वर्गों पर लागू होना चाहिए.
धार्मिक आजादी के नाम पर किसी दूसरे नागरिक की धार्मिक आजादी को अगर कुचला जा रहा है तो क्या यह धार्मिक आजादी के प्रावधानों का दुरुपयोग नहीं है. धार्मिक आजादी के नाम पर पर्सनल कानून कैसे संविधान सम्मत हो सकते हैं?
अभी तो वक्फ़ पर इतना हंगामा हो रहा है. जब समान नागरिक संहिता पर सभी राज्यों में काम आगे बढ़ेगा तो फिर तो इस तरह की टकराहट और बढ़ सकती है. सबसे पहला सवाल यह है कि, सबको संविधान के हिसाब से व्यवस्था संचालित करने का कमिटमेंट पूरा करना होगा. धार्मिक आस्था व्यक्तिगत है, धार्मिक आजादी व्यक्तिगत है, लेकिन व्यवस्था में धर्म का कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए. सभी धर्म के लोगों को समान रूप से संविधान और कानून के मुताबिक स्वतंत्रता और मौलिक अधिकार मिलना चाहिए.
हिंदू, मुसलमान दोनों को ईमान से सजदा करना होगा. ईमान रहेगा तभी धर्म रहेगा. तभी राजनीति रहेगी. पावर के लिए ईमान से बेईमानी, कयामत तक पीछा नहीं छोड़ेगी.