दलितों अथवा निम्नतर समझी जाने वाली जातियों के खिलाफ होने वाले मामलों में कमी आने के बजाय, यह संख्या बढ़ती जा रही है, देश की सरकारें इस संदर्भ में आश्वासन अवश्य देते रहे हैं, पर यह कोरे आश्वासनों वाली परंपरा ही हैं..!
प्रतिदिन-राकेश दुबे
18/08/2022
देश इ संसद आजादी के ७५ साल बाद भी स्वीकारती है कि वर्ष 2018- 2020 के दौरान देश में दलितों पर अत्याचार के १,२९,००० मामले दर्ज हुए इनमे सर्वाधिक मामले उत्तर प्रदेश में हुए। इसके बाद बिहार और मध्य प्रदेश का नंबर आता है। हकीकत यह है कि दलितों अथवा निम्नतर समझी जाने वाली जातियों के खिलाफ होने वाले मामलों में कमी आने के बजाय, यह संख्या बढ़ती जा रही है। देश की सरकारें इस संदर्भ में आश्वासन अवश्य देते रहे हैं, पर यह कोरे आश्वासनों वाली परंपरा ही हैं। यहाँ यह भी याद रखा जाना ज़रूरी है कि ऐसे दर्ज मामलों के मात्र २० प्रतिशत ही किसी निर्णय तक पहुंच पाते हैं। सामाजिक दबावों के चलते बहुत से मामले बीच में ही दम तोड़ देते हैं।
आज़ादी के अमृत-काल की शुरुआत में राजस्थान के जालोर जिले के घटी घटना देश और समाज के सामने मुंह बाये खड़े दलित मुद्दों का एक दर्दनाक उदाहरण है| जो इस बात की याद भी दिलाता है कि विकास की परिभाषा में कहीं न कहीं सामाजिक विषमता का यह मुद्दा भी शामिल होना चाहिए। वैसे भारत में जब भी विकास की बात होती है, रोटी, कपड़ा और मकान तक सीमित रह जाती है। वैसे हमारे नेता सड़कों की बात करते हैं, हर घर में शौचालय और नल-जल की दुहाई देने लगते हैं। यह सभी ज़रूरी है हमारे विकास के लिए, पर यही विकास नहीं है। कहीं न कहीं सामाजिक सोच भी हमारे विकास की समझ का हिस्सा बनना चाहिए। सामाजिक विषमता का अभिशाप हमारे जीवन से बाहर जाये, यह मानवीय विकास की एक महत्वपूर्ण शर्त है।
विकास का जो राजमार्ग हमने अपने लिए चुना है, वहां तक पहुंचने के लिए जिन गलियों से होकर गुजरना होता है, उनकी नितांत उपेक्षा हो रही है। हम यह भी याद नहीं रखना चाहते हैं कि समता और बंधुता के आधार पर खड़ा संविधान देने वाले बाबा साहेब अंबेडकर ने चेतावनी दी थी कि यदि हमने सामाजिक स्वतंत्रता की ओर ध्यान नहीं दिया तो हमारी राजनीतिक स्वतंत्रता भी खतरे में पड़ जायेगी। उन्होंने यह भी कहा था कि “हम अपने ही लोगों द्वारा धोखा दिये जाने और गद्दारी करने के कारण पहले भी अपनी स्वतंत्रता खो चुके हैं, और गद्दारी सिर्फ राजनीतिक नहीं होती। सच तो यह है कि सामाजिक समानता के विरोधी अथवा उसकी उपेक्षा करने वाले भी गद्दार हैं|”आज हमें धोखा देने वालों में वे सब भी शामिल हैं जो जाति या धर्म और वर्ण-वर्ग के आधार पर सामाजिक विषमता की खाई लगातार चौड़ी कर रहे हैं।
यूं तो समय-समय पर सामाजिक विषमता को कम करने का आह्वान हमारे मार्ग-दर्शकों, मनीषियों ने किया है, पर उनकी बातों को देश ने कितना सुना और समझा है? सामाजिक दृष्टि से पिछड़ों को विकास की दौड़ में अपने साथ खड़ा करने के लिए उनका हाथ पकड़ना जरूरी है। पर इससे कहीं ज़रूरी है इस अहसास को अपने भीतर जगाना कि वे जिन्हें हम अथवा समाज का अग्रणी समझा जाने वाला तबका पिछड़ा या अस्पृश्य अथवा अपने से नीचा मानता है, हमारी तरह मनुष्य हैं। उन्हें किसी भी दृष्टि से अपने से कमतर समझने का मतलब अपने आप को धोखा देना है, मनुष्यता के प्रति अपराध करना है।
नीची मानी जाने वाली जाति का होने के कारण जालोर के सुरना गांव के बालक इंद्र को एक ऐसे अपराध की सज़ा भुगतनी पड़ी जो उसने कभी किया ही नहीं था। अपराधी इंद्र नहीं, बल्कि वे सब हैं जो सामाजिक विषमता में विश्वास करते हैं। इंद्र के पिता देवाराम मेघवाल का कहना है कि उन्हें आज भी, यानी २१ वीं सदी में भी, बाल कटवाने के लिए घर से कई मील दूर जाना पड़ता है, क्योंकि गांव का ‘नाई’ उन्हें नीचा मानता है। बाल कटवाने के लिए कई मील दूर जाने की इस सज़ा की इंद्र द्वारा भुगती ‘सज़ा’ से कोई तुलना नहीं हो सकती, पर ऊंच-नीच की यही अवधारणा हमारे समाज को बांट रही है। इसके चलते ही हमारा समाज कमज़ोर होता जा रहा है, या मज़बूत नहीं हो पा रहा है। इस सच्चाई को हमारा नेतृत्व कब समझेगा? देश को विकास के मापदंड बदलना होंगे, सामाजिक असमानता दूर करना विकास के मापदंड में शामिल होना चाहिए |