जम्मू-कश्मीर के राजौरी में आतंकवादियों से हुई मुठभेड़ में इस युवा जांबाज ने अपना सर्वोच्च बलिदान देकर अपनी माटी का कर्ज चुकाया था..!
यह पत्थर पर लिखी इबारत है कि “शहीदों के बलिदान की कोई कीमत नहीं लगायी जा सकती, फिर भी जितनी कीमत लगे उतनी कम होती है। सवाल इस सहायता का नहीं है, सवाल उस असंवेदनशील प्रदर्शन का है जो इस सहायता के साथ जुड़ गया है।“ दुर्भाग्य है राजनेता इसे भोंडा प्रदर्शन बनाने पर उतारू हैं। वाक़या आगरा में घटा,सत्ताईस वर्षीय कैप्टन शुभम् गुप्ता का गृह स्थान है आगरा। जम्मू-कश्मीर के राजौरी में आतंकवादियों से हुई मुठभेड़ में इस युवा जांबाज ने अपना सर्वोच्च बलिदान देकर अपनी माटी का कर्ज चुकाया था। उनका शव अभी पहुंचा नहीं था। पर उत्तर प्रदेश के कैबिनेट मंत्री पहुंच गये थे। उनके साथ स्थानीय विधायक भी थे। घर में कोहराम मचा हुआ था। कैप्टन शुभम् की बिलखती मां संभाले नहीं संभल रही थीं। और मंत्री जी उन्हें शासन की ओर से पचास लाख रुपये का चेक देने पर आमादा थे। वे चेक ही नहीं देना चाह रहे थे, दुखिया मां को चेक देते हुए एक फोटो भी खिंचवाना चाहते थे। मंत्री जी वह चेक मां के हाथ में देना चाहते थे और मां के हाथ मातम मना रहे थे। मां को जबरन चेक देने की कोशिश का वह वीडियो अवश्य वायरल हो गया। बिलखती मां यह कहती ही रह गयी, ‘मेरी प्रदर्शनी मत लगाओ, मुझे मेरा बेटा लौटा दो।’
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पहले ही यह घोषणा कर चुके थे कि शहीद कैप्टन को इस राशि के अलावा उनके परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी भी दी जायेगी। शहीदों के बलिदान की कोई कीमत नहीं लगायी जा सकती, फिर भी जितनी कीमत लगे उतनी कम होती है। सवाल इस सहायता का नहीं है, सवाल उस असंवेदनशील प्रदर्शन का है जो इस सहायता के साथ जुड़ गया है। शव पहुंचने से पहले चेक पहुंचना क्यों ज़रूरी था? चेक को मां के हाथों में सौंपना भी मंत्री महोदय को क्यों ज़रूरी लगा? और क्यों ज़रूरी था उसका वीडियो बनाया जाना? मंत्री महोदय वीडियो क्यों बनवाना चाहते थे, पता नहीं, पर आज यह वीडियो कुल मिलाकर एक असहजता का प्रतीक बनकर रह गया है!जब भी कोई ऐसी घटना घटती है जिसमें जान-माल की हानि होती है, सरकार मुआवजे की घोषणा तत्काल कर देती है। मुआवजा देना ग़लत नहीं है, पर मुआवजे की प्रदर्शनी लगाना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता।
आखिर ऐसी घोषणाओं का मतलब क्या है? आगरा की यह घटना इसका जो मतलब समझाती है, वह यही है कि ऐसी घोषणाएं करके और ऐसी प्रदर्शनी लगाकर सरकारें संवेदनशीलता का नहीं, संवेदनहीनता का परिचय देती हैं। कैप्टन शुभम् गुप्ता के बलिदान पर हर भारतीय को नाज है, लेकिन उनके बलिदान का बदला चुकाने की यह प्रदर्शनी हर भारतीय को व्यथित करती है।
इस मुआवजे या सहायता के पीछे भावना सही भी हो सकती है, पर जो संवेदनहीनता इसमें दिखाई देती है वह अनुचित ही कहलायेगी। पूछा जाना चाहिए कि वह चेक बलिदानी सैनिक की मां को तभी देना क्यों जरूरी समझा गया? और मंत्रीजी को यह क्यों लगा कि इस अवसर का चित्र भी होना चाहिए? इन प्रश्नों का उत्तर यह हो सकता है कि शासन यह संदेश देना चाहता है कि वह बलिदानियों का सम्मान करता है। पर जो संवेदनहीनता इसमें झलक रही है, वह स्पष्ट बताती है कि कहीं न कहीं शासन इसे एक रस्म अदायगी के रूप में ही देखता है।
कैप्टन शुभम् की मां की पीड़ा की कल्पना करना आसान नहीं है। वह बार-बार कहती रही हैं, मेरी प्रदर्शनी मत लगाओ, और मंत्री महोदय चाह रहे हैं चेक देते हुए फोटो खींचा जाये। आखिर क्यों? कहां प्रचार कराना चाहते थे मंत्री महोदय?
यह समय प्रचार-बहुल वाला है। हर आदमी हर चीज़ का प्रचार करना चाहता है। जहां तक राजनेताओं का सवाल है ऐसा लग रहा है जैसे उनकी सारी राजनीति प्रचार पर ही टिकी हुई है। फोटो का कोई भी अवसर हमारे नेता छोड़ते नहीं हैं। जो जितना बड़ा नेता है उतनी ही बड़ी उसकी आकांक्षा हो जाती है प्रचार पाने की। नेता मां-बाप से मिलने जाता है तो कैमरामैन उसके साथ होता है, मंदिर जाता है तो उससे पहले फोटोग्राफर वहां पहुंचा होता है। मीडिया वालों की विवशता तो एक सीमा तक समझ आती है, पर हमारे नेता यह क्यों भूल जाते हैं कि उन्हें समाज के सामने एक उदाहरण पेश करना होता है?