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प्रहरी ही कुतरते लोकतंत्र की सफेद चादर

सार

​​​​​​​संसदीय शिष्टाचार और आचरण लोकतंत्र की मर्यादा और सदाचार की बुनियाद है. सियासत के अतिवाद के कारण यह बुनियाद हिलती जा रही है. विधायकों का प्रबोधन एक औपचारिकता बन चुका है..!!

janmat

विस्तार

नई विधानसभा के गठन के साथ निर्वाचित सदस्यों के प्रबोधन की रस्म अदायगी सामान्य बात है. प्रबोधन के प्रभाव का आकलन सदस्यों के निलंबन और विधायी सदनों का सुचारू संचालन नहीं होने में देखा जा सकता है. मध्यप्रदेश की 16वीं विधानसभा के सदस्यों का प्रबोधन संसदीय प्रभुता के सबसे बड़े पद लोकसभा स्पीकर सहित अनेक विद्वानों द्वारा दिया है. स्पीकर स्वयं पहली बार के सांसद हैं. अनुभव तो सिखावन से नहीं आ सकता. अनुभव स्वयं जानने और अनुभूति करने से ही संभव है. 

संसद और विधानसभाओं में जिस तरह के दृश्य और राजनीतिक चरित्र दृष्टिगोचर होते हैं, उससे तो यही लगता है कि विधायी सदनों को भी दलीय प्रतिस्पर्धा का केंद्र बना दिया गया है. सदनों का कोई भी सत्र निर्धारित कार्यकाल तक नहीं चलता. विधायी कार्य बिना विचार विमर्श और संवाद के पूरे कर लिये जाते हैं. कानून निर्माण में जन-आकांक्षाओं और अपेक्षाओं की मंशा पूरी नहीं होती है. संसदीय लोकतंत्र जनादेश की सबसे बेहतर शासन प्रणाली है. इसलिए इसमें उभर रही कमियों को परिपक्व होते लोकतंत्र की निशानी के रूप में ही स्वीकार किया जाना चाहिए. लोकतंत्र के मंदिर विधायी सदन जनादेश के मंदिर है लेकिन ऐसा दिखाई पड़ता है कि दलीय आस्था के आधार पर इस मंदिर को भी मंदिर, मस्जिद, चर्च और गुरुद्वारे में बांट दिया गया है. 

हर प्रतिनिधि लोकतंत्र के प्रति आस्था व्यक्त करने से ज्यादा अपनी दलीय आस्था को वरीयता देता है. सदन की गरिमा और मर्यादा की बातें तो बहुत होती हैं लेकिन पक्ष और विपक्ष दोनों की सरकारों वाले विधायी सदनों में कमोबेश एक जैसा ही वातावरण रहता है. इसलिए सदन की मर्यादा और गरिमा पर पड़ रहे प्रभाव के लिए किसी एक को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. राजनीतिक विरोध की पराकाष्ठा सदनों में लोकतंत्र के मूल विचार पर ही आघात करती हुई दिखाई पड़ती हैं.

सदनों का संचालन पक्ष और विपक्ष की सामूहिक जिम्मेदारी है. संसदीय विरोध के प्रतीकों का दुरुपयोग आम हो गया है. काम रोको प्रस्ताव और बहिर्गमन, मुद्दों से ज्यादा मीडिया अटेंशन के लिए होने लगा है. सदनों की कार्रवाइयों के लाइव प्रसारण के कारण सजगता जरूर बढ़ रही है लेकिन अभी भी हालत वैसे ही बने हुए हैं. गर्भगृह में जाकर विरोध प्रदर्शन जहां संसदीय प्रक्रिया में सदन की मर्यादा के विरुद्ध है,  वहीं सदस्य इसे अपना मौलिक अधिकार मानते हुए आचरण करते हैं. इसी टकराहट में सदस्यों का निलंबन होता है. हाल ही में संसद में बड़ी संख्या में विपक्ष के सांसदों का निलंबन ऐसी ही सदन की मर्यादा पालन नहीं करने के लिए किया गया है लेकिन संसदीय लोकतंत्र में ऐसे व्यवहार को अच्छा नहीं कहा जा सकता.
 
संसद और विधानसभाओं की बैठकों की संख्या हर साल घटती जा रही हैं. पहले जहां साल में दो महीने से अधिक सत्र हुआ करते थे उनकी संख्या अब महीनों से भी कम में सिमटती जा रही है. जितने समय के लिए सत्र होते भी हैं उनमें संवाद और विचार विमर्श तो कम ही होता है, हो हल्ला और नारेबाज़ी के बीच विधायी कार्य बिना चर्चा के पूरे कर लिए जाते हैं. 

प्रबोधन की भावना अच्छी है लेकिन इसके परिणाम तो अच्छे नहीं दिखाई पड़ते हैं. फिल्मों में तो स्क्रिप्ट के आधार पर अभिनय किया जाता है उसके बाद भी फिल्मों का आम जनजीवन पर असर पड़ता है लेकिन विधायी सदनों में तो जो दृश्य दिखाई पड़ते हैं, वह जनता के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के आचरण को प्रदर्शित करते हैं फिर हमारे प्रतिनिधि यह क्यों नहीं महसूस करते कि इसका प्रभाव जनमानस पर पड़ रहा होगा? 

अच्छे नागरिक और राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना के लिए सद्गुणों की जितनी बातें की जाती हैं उनको आम लोग अपने जनप्रतिनिधियों में ढूंढने की कोशिश करते हैं लेकिन हमेशा उन्हें निराशा ही हाथ लगती है. कई बार तो हालात ऐसे हो जाते हैं कि मार्गदर्शक की भूमिका वाला व्यक्ति ही ऐसा आचरण पेश करता है जो शर्मसार कर देता है. अभी हाल ही में एक सांसद को उद्योग जगत से निजी लाभ लेकर दूसरे उद्योगपति के खिलाफ सवाल पूछने का दोषी पाकर  संसद सदस्यता समाप्त की गई है. 

विधानसभा और संसद के सदस्यों को लाभ के पद से दूर रहने के लिए संविधान निर्माताओं ने संविधान में व्यवस्था की है. सत्ताधारी दल में कार्यपालिका में शामिल जनप्रतिनिधियों के अलावा सदन के सदस्यों को लाभ का पद हासिल करने के लिए प्रतिबंधित किया गया है. जो संविधान निर्वाचित सदस्यों को इतना पवित्र और उच्च मानता है कि जिसे लाभ का पद लेने से प्रतिबंधित करता है वही अगर अपने आचरण में लाभ के लिए काम करते हुए दिखाई पड़े तो लोकतंत्र के माता पिता आम लोग कैसा महसूस करते होंगे? ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ भारत के लोकतंत्र की रक्षा माता-पिता जैसे आम लोग ही करते हैं. उन्हीं के जनादेश से लोकतंत्र के नायक बने जनप्रतिनिधि अगर ऐसा दुराचरण करते दिखाई पड़ते हैं तो इसे लोकतंत्र के साथ मातृघात और पितृघात जैसा दुर्व्यवहार ही कहा जायेगा.

प्रबोधन कार्यक्रम में नई विधानसभा के सदस्यों के लिए नई आवासीय योजना की भी मांग उठाई गई है जिनके लिए लाभ का पद प्रतिबंधित है उनके लाभ के लिए इस तरीके की योजनाएं भी संविधान की कसौटी पर खरी नहीं उतरती हैं. पहले भी ऐसी आवासीय योजनाएं मध्यप्रदेश में बनाई गई  हैं. राजधानी भोपाल की प्राइम लोकेशन जवाहर चौक पर सबसे पहले विधायकों को सस्ती दरों पर प्लाट/आवास दिए गए थे. आज वहां पर कोई भी पूर्व विधायक शायद ही निवास करता हो. सारे आवास कमर्शियल हो चुके हैं. कई करोड़ में इन भवनों को या तो बेचकर या किराए पर देकर हमारे जनप्रतिनिधि या उनके परिवार करोड़ों रुपए कमा रहे हैं. लाभ के पद की परिभाषा केवल तकनीकी आधार पर तय करना चोर दरवाजा निकालने जैसा ही है.
 
प्रबोधन कार्यक्रम में यह आवाज भी सुनाई पड़ी है कि अधिकारियों में विधानसभा का डर नहीं बचा है. किसी को डराने का भाव ही लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है. डर वहीं पैदा किया जाता है जहां लाभ प्राप्त करने की मंशा होती है. विधायी सदन सरकार की जबाबदेही की जांच और कानून बनाने के प्रतिनिधि केंद्र होते हैं. जनाकांक्षाओं और अपेक्षाओं के संरक्षण के इन केन्द्रों को राजनीति के अखाड़े बनने से बचाने की जरूरत है. सरकारी पक्ष की भूमिका तो कार्यपालिका के जरिए जनता के बीच स्थापित होती रहती है लेकिन विधायी सदनों में विपक्ष की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है. संसदीय प्रणाली में भागीदार लोगों का मन मस्तिष्क इतना अधिक सत्ता केंद्रित हो गया है कि विपक्ष की भूमिका खंडित अव्यवस्थित और बेतरतीबी का शिकार बनी हुई है. कोई विजन और रणनीति दिखाई नहीं पड़ती है. कमजोर विपक्ष और गैर उत्तरदायी सरकार तबाही ही लाती हैं.

गैर उत्तरदायी सरकार एक कायर एवं संकोची विपक्ष के साथ मिलकर कयामत ही  बरपाती है. जहां मजबूत सरकार होती है वहां मजबूत नेता का कट्टर विरोध विपक्ष के लाइव दिखने का माध्यम बन जाता है. गठबंधन की राजनीति भी सशक्त नेता से मुकाबले की ही कमजोर रणनीति होती है. पक्ष और विपक्ष के मतदाताओं के अलावा बड़ी संख्या में तटस्थ और निरपेक्ष लोग होते हैं जिन्हें जोड़ने की रणनीति संसदीय प्रणाली के साथ ही दलीय व्यवस्था को भी मजबूती देती है.

आज सबसे बड़ी समस्या प्रतिष्ठित लोगों का नोइंग एटीट्यूड बना हुआ है. ‘हम सब जानते हैं’ इस भाव से पैदा होने वाला अहंकार जनप्रतिनिधियों में देखा जा सकता है. नॉन नोइंग एटीट्यूड विनम्रता और शालीनता लाता है. उधार की सीख से न शिष्टाचार पैदा होगा और ना ही आचरण में बदलाव आयेगा. अनुभव से ही व्यक्तित्व निखरेगा. 

नियत अगर लोकतांत्रिक होगी, आचरण संसदीय होगा, निर्लोभी जीवन होगा, तो बिना किसी प्रबोधन के भी संसदीय शिष्टाचार और आचरण की गरिमा प्रज्वलित दिखेगी. वेतनभत्ते और पेंशन में वृद्धि के लिए तो 24 घंटे टकराने वाले नेता भी आम सहमति बना लेते हैं तो फिर सदन की मर्यादा खंडित करने और असंसदीय आचरण कहीं दिखावे का प्रहसन मात्र तो नहीं होता?  जनादेश की बारीक नजर होती है फिर भी कुछ लोग समाज की कुछ कमजोरियों के सहारे जीत तो जाते हैं लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता. लोकतंत्र की चादर तो सफ़ेद ही रहेगी लेकिन इसे कुतरने वाले दांत जरूर अपना अस्तित्व खो देंगे.