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शाहबानो केस जिनका फेस, संविधान उनका चुनावी भेष

सार

बहुत पुरानी कहावत है, साधु को दासी चोर को खांसी और प्रेम को हंसी नष्ट कर देती है. अब इसमें यह भी जुड़ गया है, कि बदनीयती और चालबाजी राजनेता को नष्ट कर देती है. आतंकवादी और अपराधी तो एक समूह की ‘टारगेट किलिंग’ करते हैं, लेकिन राजनीति अगर नासमझी करे तो पूरे समाज की टारगेट किलिंग हो जाती है..!!

janmat

विस्तार

     लोकसभा चुनाव से संविधान को चुनावी एजेंडा बनाया जा रहा है. महाराष्ट्र और झारखंड में भी संविधान की मिसाइल वोट के टारगेट पर दागी जा रही है. राहुल गांधी मनुस्मृति को संविधान विरोधी बता रहे हैं. हो सकता है, उन्होंने मनुस्मृति कभी पढ़ी न हो, लेकिन चुनावी डायलॉग के लिए ऐसा कहना शायद उन्हें फायदेमंद प्रतीत हो रहा है. संविधान खुद अगर बोल सकता तो उसके साथ हुए अन्याय और भेदभाव को देश के सामने अवश्य रखता. अभी जो कुछ भी कहा जाएगा, तो उसे भाजपा और कांग्रेस की राजनीति से जोड़ दिया जाएगा.

   आजादी के 78 साल बाद, भारत का संविधान पूरे देश में लागू होने की बाट जोह रहा था.  कुछ दिनों पहले ही जम्मू कश्मीर में उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में नई सरकार ने पदभार संभाला है. पहली बार ऐसा हुआ है कि नए मुख्यमंत्री ने भारत के संविधान के नाम पर शपथ ग्रहण की है. अभी तक तो उनका संविधान अलग था. जिस कांग्रेस ने संविधान के नाम पर वर्षों तक सत्ता संभाली. वह पूरे देश में संविधान भी लागू नहीं कर पाई. इसे संविधान विरोधी कर्म कहा जा सकता है.

   मनुस्मृति अपनी जगह है. उसकी संसदीय प्रणाली में शासन संचालन में कोई भूमिका नहीं है. संविधान जिस समानता की बात करता है. जिस समान कानून की बात करता है, उसको तो कांग्रेस ने रद्दी की टोकरी में डाल रखा है.  संविधान समान नागरिक संहिता की बात करता है, लेकिन कांग्रेस इसका विरोध करती है. सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो केस में फैसला दिया था, जिसे कांग्रेस ने शरिया पर्सनल लॉ के खिलाफ़ मानकर संविधान संशोधन कर दिया. शरिया पर सहमति रखने वाले राहुल गांधी को मनुस्मृति पर बोलने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है. ऐसा लगता है कि संविधान कांग्रेस का केवल चुनावी फेस है. उनका असली फेस तो शाहबानो केस है.

   संविधान की सुरक्षा करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय शक्ति संपन्न संस्था है. कोई भी शासन संविधान के विरुद्ध आचरण करेगा तो सर्वोच्च न्यायालय उसको दुरुस्त कर देगा . संविधान के नाम पर राजनीति, सम्मानजनक सोच  नहीं कही जाएगी. संविधान ने ही वर्तमान सरकार स्थापित की है. संविधान ही उसे चला रहा है.

    हिंदू-मुस्लिम की राजनीति भारतीयों का नहीं, राजनीति का एजेंडा है. इससे कोई इनकार नहीं कर सकता, कि भारत में हिंदू बहुसंख्यक हैं. जनादेश में उनकी आवाज कोई भी सरकार बनाने के लिए सक्षम है. कांग्रेस अपने राजनीतिक पतन के बाद ऐसा मानने लगी है, कि मुसलमानों का झुकाव तो उसकी तरफ बढ़ रहा है. जब तक हिंदू नहीं बटेंगे तब तक यह  झुकाव भी उन्हें सत्ता तक नहीं पहुंचा सकेगा. 

    हिंदुओं को बांटने के लिए मनुस्मृति की बात उठाई जा रही है. जातिगत जनगणना की बात उठाई जा रही है. संविधान के नाम पर आरक्षण खत्म करने का भ्रम फैलाया जा रहा है. सारा राजनीतिक वजूद मुसलमानों को एकजुट रखने और हिंदुओं को बांटने पर टिका हुआ है. मुस्लिम समुदाय का वोट बीजेपी को मिलता नहीं है. हर राज्य में कांग्रेस को भी यह वोट नहीं मिलता, लेकिन जिस भी राजनीतिक दल को उनका वोट मिलता है, वह कांग्रेस के सहयोगी ही होंगे. मुस्लिम वोटो के ठेकेदार बीजेपी के साथ जा नहीं सकते. इसलिए राहुल गांधी और कांग्रेस इसी ओर आगे बढ़ रहे हैं. किसी भी हालत में हिंदुओं को जाति के नाम पर बंटना चाहिए, इसी उद्देश्य से मनुस्मृति का उपयोग किया जा रहा है. एक तरफ बांटने का प्रयास तो दूसरी तरफ बंटेगें तो कटेगें’ का नारा भी सियासत का ही संदेश है. 

    राहुल गांधी अगर मुस्लिम पर्सनल लॉ की संवैधानिक वैलेडिटी पर कुछ भी बोलने की हिम्मत दिखा सकते हैं, तो मनुस्मृति पर उनकी बात में भी नैतिक बल हो सकता है. अन्यथा उनके ऐसे मुद्दे चोर की खांसी जैसा, उनको ही जनता की नजर में एक्सपोज कर देते है. 

    हिंदू और मुसलमानों के बीच उतना तनाव नहीं है जितना उनके नाम पर राजनेताओं में देखा जाता है. भारत का विभाजन हुआ था तब अगर धर्म के आधार पर सभी लोग भारत - पाकिस्तान चले जाते इसको लेकर सोशल मीडिया पर एक बहुत रोचक टिप्पणी है. कुछ लोग कहते हैं कि अगर ऐसा हो जाता तो पाकिस्तान आज सीरिया होता और भारत, अमेरिका होता.  

      राहुल गांधी से कोई पूछे कि भारत में नारियों की पूजा का जो भारतीय संस्कृति का उदाहरण है. वह कहां से आया है? उन्हें शायद ही पता होगा? यह मनुस्मृति का ही उद्घोष है. भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी और कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत के बीच इसी विषय पर बहस में कांग्रेस प्रवक्ता की बोलती उस समय बंद हो गई, जब उन्हें भाजपा प्रवक्ता ने बताया कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ की बात तो कांग्रेस खूब करती है लेकिन इस उद्घोष के ग्रंथ मनुस्मृति का कांग्रेस विरोध करती है.    

   पहले के ग्रंथों और शास्त्रों में क्या कहा गया है, उस पर आज किसी विवाद की आवश्यकता नहीं है. किसी पर भी नकारात्मक बात करना तो बहुत आसान है, लेकिन उनकी सकारात्मक बातों पर चलना किसी के बस की बात नहीं है. 

      देश अजीब हालात से घिरता जा रहा है. किसी सरकार से या नेताओं के आपसी विरोध के चलते राजनीतिक कारणों से देश विरोधी गतिविधियों को प्रोत्साहन दिया जा रहा है. मनुस्मृति का जब विरोध किया जाता है, तो मनुस्मृति समर्थकों को जोड़ने के राजनीतिक प्रयास साथ-साथ चलते हैं. हर चुनाव और उसके परिणाम विभाजन की राजनीति के नए-नए संदेश देते हैं. हरियाणा  और कश्मीर के चुनाव में इसी तरह की मनुस्मृति विरोधी राजनीति चलाने में कमी नहीं रखी गई थी, लेकिन चुनाव परिणामों ने कांग्रेस को निराश किया अब झारखंड और महाराष्ट्र में फिर से पुराने शस्त्रों को, नए ढंग से उछाला जा रहा है.

    कांग्रेस की सबसे बड़ी त्रासदी यह हो गई है कि उसे समझ नहीं आ रहा है, कि उसे किस दिशा में जाना चाहिए. वह सॉफ्ट हिंदुत्व पर भी चलना चाहती है. वह कट्टर मुस्लिमवाद का भी सियासी लाभ लेना चाहती है. कांग्रेस एक समय में ही सभी राजनीतिक दलों की विचारधारा को समाहित करना चाहती है. कांग्रेस बसपा भी दिखना चाहती है. कांग्रेस सपा भी बनना चाहती है. कांग्रेस लोकदल भी बनना चाहती है और कांग्रेस मुस्लिम लीग भी दिखना चाहती है. विचारधारा का फेस तो एक ही रखना पड़ेगा.अनेक चेहरे एक चेहरे का नूर भी समाप्त कर देते हैं.

    संसदीय व्यवस्था में शास्त्रों पर हमला करने की जरूरत नहीं है. शासन की अपनी स्मृतियों पर अगर कांग्रेस चिंतन कर ले, और ‘कांग्रेसस्मृति’  सुधारने का कोई फार्मूला निकाल ले तो फिर शरिया और मनुस्मृति के द्वन्द में उसे नहीं फंसना होगा.  पॉपुलर डायलॉग से फिल्में चलती होंगी, सियासत चुनावी डायलॉग से नहीं चलती. कांग्रेस की सरकारों की स्मृतियां खुद कांग्रेस को ही नुकसान पहुंचा रही हैं. मनुस्मृति को गाली देने से ‘कांग्रेसस्मृति’ नहीं मिटेगी. 

   भारत का मूल संविधान और कांग्रेस के संशोधनों  के बाद के संविधान की स्मृतियां अब भी तरोताजा हैं. संविधान,हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में जीता है. संविधान, महाराष्ट्र और झारखंड में भी जीतेगा. मतदान ‘मनुस्मृति’ पर नहीं बल्कि ‘संविधान’ पर होगा.