मध्य प्रदेश सरकार पहली बार गीता जयंती पर महोत्सव का आयोजन कर रही है. महोत्सव में श्रीमद्भगवदगीता के सस्वर पाठ का विश्व रिकॉर्ड बनेगा. कृष्ण परंपरा आधारित सांस्कृतिक गतिविधियां, गीता संवाद, महानाट्य कृष्णायन की प्रस्तुति के साथ संगीत, नृत्य और प्रदर्शनी सहित शरीर से गीता दर्शन को प्रतिबिंबित करने के सभी प्रयास किए जाएंगे..!!
मोटिवेशनल स्पीच भी होगी. शिक्षा की प्रतियोगिताएं भी होंगीं. प्रतियोगिता होगी तो पुरस्कार भी दिए जाएंगे. महोत्सव की जो रूपरेखा सरकार ने बताई है, वह हर साल मनाई जाने वाली सैकड़ों जयन्तियों जैसे कार्यक्रमों की रूपरेखा ही लग रही है. सीएम मोहन अगर गीता जयंती मना रहे हैं, तो यह निश्चित रूप से अपनी सरकार की कार्य संस्कृति में गीता दर्शन की वह प्राण प्रतिष्ठा करना चाहते होंगे. हम क्या चाहते हैं और क्या होता है यही यह महोत्सव में भी दिख रहा है.
श्री कृष्ण जन्मभूमि मथुरा पर विवाद अदालत की चौखट पर है. श्री कृष्ण की शिक्षा भूमि मध्य प्रदेश कृष्णपथ पर आगे बढ़ गया है. श्री कृष्ण पाथेय योजना आरंभ हो गई है. भगवान कृष्ण की मथुरा से लेकर उज्जैन, अमरावती, कुरुक्षेत्र, द्वारिका क्षेत्र की यात्राओं तथा इन यात्राओं के दौरान भगवान श्री कृष्ण द्वारा युग परिवर्तनकारी कार्यों की फिर से पहचान और उनकी अद्वितीय विरासत से समाज के विकास का पथ खोजना इस योजना में मध्य प्रदेश सरकार का संकल्प बताया गया है.
गोवर्धन पूजा की इस बार भव्यता से आयोजन में मोहन की छाप दिखाई पड़ी थी. सीएम डॉ. मोहन यादव ने अपने निवास सीएम हाउस में हाईटेक गौशाला बनाई है. बिना गौ के गोपाल और मोहन अधूरे ही होते हैं.
कर्ता होने का भ्रम पाले बिना फलाकांक्षाविहीन कर्म गीता दर्शन का सार है. वैसे तो गीता दर्शन से जीवन का कोई भी पक्ष अछूता नहीं है, लेकिन क्योंकि गीता जयंती सरकार के मोहन को प्रेरित कर रही है, तो ऐसा माना जा सकता है, कि मोहन की मंशा सरकार में गीता दर्शन की प्राण प्रतिष्ठा करना होगा.
गीता एक धर्म ग्रंथ ही नहीं है, इसका दर्शन,धर्म, संस्कृति, सभ्यता के साथ ही स्वधर्म और राजधर्म का जीवंत स्वरूप है. इसमें द्रुत क्रीड़ा है, तो सिंहासन का अंधापन है. इसमें नारी सम्मान की दृष्टि है, तो हक के लिए युद्ध का घोष है. इसमें अपनों के मोह में पलायन है, तो कर्ता के भ्रम को और अहंकार को तोड़ने का दर्शन है. इसमें जिज्ञासा की संजय दृष्टि है, गीता में मोह मुक्ति और आत्म तृप्ति का मार्ग है. इसमें आत्म जागरण का पथ है. गीता में समर्पित जीवन का विज्ञान है. गीता स्वधर्म की खोज है, तो परमात्मा समर्पित कर्म की यात्रा है. गीता सामान्य जीवन से ज्यादा शासक और शासन व्यवस्था के लिए मार्गदर्शक चेतना है. गीता सत्ता में समान और न्यायपूर्ण हिस्सेदाारी के लिए संघर्ष का दस्तावेज़ है.
मध्य प्रदेश सरकार में गीता जयंती को लेकर पहले कभी भी ऐसे महोत्सव की कल्पना नहीं की गई थी. सीएम मोहन यादव ने इसकी कल्पना की है, तो यह केवल ईवेंट का विचार नहीं हो सकता. यह सरकार की कार्य संस्कृति को सुधारने और जन कल्याण के मार्ग को श्री कृष्ण के दर्शन से जोड़ने का भावनात्मक विचार होगा. ऐसे ही सोच-विचार किसी भी शासन के लिए तो कल्याणकारी होगा ही व्यक्तिगत तौर पर शासक के कर्म की परम साधना होगी.
अगर महाराज धृतराष्ट्र में जिज्ञासा नहीं होती, जानने की प्रबल इच्छा नहीं होती, संजय दृष्टि का अनुभव नहीं होता, तो कुरुक्षेत्र में कुछ भी होता रहता, गीता दर्शन का धर्म ग्रंथ भारतीय संस्कृति को नहीं मिलता. इसका मतलब है, शासन में जानने की प्रबल इच्छा होना चाहिए. शासन की यह भी बड़ी योग्यता है, कि उसे संजय दृष्टि की पहचान हो. जानकारी मिलने के सभी माध्यमों को पर्याप्त सम्मान और अवसर मिलना चाहिए.
आजकल तो सिस्टम में ऐसे हालात हैं, कि जो जानकारी के आदान-प्रदान के जिम्मेदार हैं, वह सिस्टम के दरवाजे के बाहर खड़े होकर तनावपूर्ण समय काट रहे हैं. शासन के पास सूचनाएं नियंत्रित ढंग से ही पहुंचती हैं. आसपास का ब्यूरोक्रेटिक घेरा जितनी जानकारियां पहुंचाना चाहता है, वही शासक तक पहुंचने दी जाती हैं.
जानकारी का अंधापन शासन प्रणाली को नुकसान पहुंचाता है. अच्छी शासन प्रणाली जानकारी और सूचनाओं के आदान-प्रदान को सुगम बनाकर रखती है. इसमें आने वाली सभी बाधाएं दूर कर दी जाती हैं. ताकि प्रदेश के शासक को सभी पक्ष, सभी तकलीफ, सभी राजनीति की हवाएं मिल सकें. सूचनाओं की हवाएं ताजा होंगी तो शासन प्रणाली की सुगंध भी बिखरेगी.
गीता दर्शन और सरकारों की कार्य संस्कृति में कोई मेल नहीं हो सकता. सिस्टम के हर किरदार को कर्ता होने का भ्रम है. उसे ऐसा लगता है, कि सब कुछ उसके लिए ही हो रहा है और सब कुछ उससे ही हो रहा है.
जो गीता की बुनियाद है, उसका सरकारों में कोई प्रसाद नहीं देखा जाता. फलाकांक्षाविहीन कर्म की तो सरकारी सिस्टम में कल्पना ही बेकार है. अगर प्रत्यत्क्ष-अप्रत्यक्ष, नैतिक-अनैतिक फल का अवसर न हो, तो फिर शायद सरकारी सिस्टम और सुस्त हो जाएगा. बिना फल का सरकार का कोई कर्म सोचा ही नहीं जा सकता. जिम्मेदारी, जवाबदारी का भाव सरकार में ढूंढना पड़ता है. राज्य सरकारों के मंत्रीमंडल में आपसी सत्ता संघर्ष आज शायद इसीलिए आम है, कि सत्ता प्रमुख मंत्रीमंडल के सदस्यों के बीच न्यायपूर्ण हिस्सेदारी से किनारा करने लगते हैं.
गीता सरकारों का सबसे बड़ा दर्शन मानी जा सकती है. स्वधर्म का कर्तव्य पथ स्वार्थ धर्म तक पहुंच गया है. सरकारी सिस्टम सबसे ज्यादा स्वार्थ धर्म पर ही केंद्रित हो गया है. सदकर्म तो कभी-कभी ऐसे विचारों में दिखते हैं, जो मोहन के कृष्णपथ को अपनाने के विचार में दिखाई पड़ता है. हम जो कुछ भी कर रहे हैं, चाहे सरकारी सिस्टम में कोई भी भूमिका हो, चाहे मुख्यमंत्री का पद हो, चाहे मंत्री का पद हो या कोई भी पद हो वह कर्ता भ्रम के बिना राजधर्म और जन धर्म निभाने का अवसर है. वैसे तो आध्यात्म मानता है, जो हमारे पास नहीं है, वह हम कभी नहीं प्राप्त कर सकते.
जीवात्मा अपना स्वभाव लेकर पैदा हुई है. पद, प्रतिष्ठा, धन, संपत्ति, वैभव सब कुछ भाग्य से और कर्म से हासिल किया जा सकता है, लेकिन स्वभाव और संस्कार तो जन्म के साथ ही आया है. हम अपने टारगेट पर काम करते हैं, लेकिन इस रास्ते में अज्ञात कब प्रकट हो जाता है, हमें पता नहीं चलता.
अगर हम प्रारंभ में अपने अंत को देखने की क्षमता विकसित करें तो हम देख पाएंगे कि हम जो चाहते थे हमें हासिल तो हुआ, लेकिन उससे हमें सुख की अनुभूति नहीं हुई. पाप की पीड़ा कई बार पुण्य से ज्यादा परम पद तक पहुंचने में फलदाई होती है. गीता जयंती का भाव, गीता दर्शन शासन प्रणाली का दर्शन अगर बन पाएगा तो ही इसकी सार्थकता होगी. बाकी इवेंट जैसा, अगर यह भी एक इवेंट ही बनकर रह जाएगा, तो फिर शासन स्तर पर गीता की बात करना बिल्कुल औचित्य पूर्ण नहीं रहेगा.
सीएम डॉ. मोहन यादव मध्य प्रदेश को जिस पथ की ओर आगे बढ़ा रहे हैं, वह श्री कृष्ण और गीता दर्शन का ही पथ है. यह पथ अगर सरकार का कर्तव्य पथ बन सके, तो शासन प्रणाली का नया अध्याय शुरू हो सकता है.