बायोलॉजिकल लेवल पर तो पीएम नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी भी एक हैं. लेकिन भगवत्ता के गुण के लेवल पर कोई भी दो व्यक्ति एक समान नहीं हो सकते. गुण और कर्मों का अंतर ही व्यक्ति को महान, बलवान, गुणवान बनाता है, या दीन हीन, दुर्बल, मोहवान बनाता है. राहुल गांधी और उनकी प्रायोजित मीडिया को भारतीय अध्यात्मिक दर्शन की गहराई समझने में कठिनाई होगी. परमात्मा व्यक्ति नहीं है, बल्कि उपस्थिति मात्र है..!!
भारतीय दर्शन पॉलिटिक्स का शिकार हो गया है. पीएम नरेंद्र मोदी ने एक साक्षात्कार में अपने परमात्म भाव को क्या व्यक्त किया? इसका भी राजनीतिक विरोध चालू हो गया. राहुल गांधी और उनका प्रायोजित मीडिया इसको ऐसा प्रचारित करने लगा, कि मोदी अपने को ईश्वर का अवतार मानते हैं.
भारतीय दर्शन तो हर चेतना को ईश्वर का अंश मानता है. नास्तिक चिंतन ही सनातन विचारधारा का विरोधी है. सनातन के राजनीतिक विरोधी परमात्म भाव को समझ नहीं सकते. उनका सोच तो बायोलॉजिकल लोभ और सियासत से ज्यादा आगे जा नहीं सकता. वामपंथियों की जमात बायोलॉजिकल से आगे सोच भी नहीं सकती. दुर्भाग्यवश कांग्रेस, वामपंथी सोच का ही शिकार हो गई है. सबका साथ, सबका विकास और वसुधैव कुटुंबकम की स्पिरिचुअल मोदी पॉलिटिक्स की हर बात का, हर समय विरोध करना नास्तिक बायोलॉजिकल गांधी पॉलिटिक्स अपना दायित्व मानती है.
परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है. जिसने दुनिया और इंसान को बनाया है, निश्चित ही अस्तित्व में भगवत्ता का गुण विद्यमान है, यह गुण जिस इंसान में विद्यमान होता है, वही परमात्म भाव को महसूस करता है. भारतीय दर्शन तो कण कण में भगवत्ता के इसी गुण का दर्शन करता है. वह कोई भी व्यक्ति हो, चाहे प्रधानमंत्री ही क्यों नहीं हो, अगर उसमें ऐसे गुण और कर्म दिखाई पड़ते हैं, जिनको बायोलॉजिकल बहुमत समर्थन करता है,जिन गुणों और कर्म के कारण दुनिया का बायोलॉजिकल जगत किसी व्यक्ति को सिर माथे पर बैठाता है. जिन गुणों के कारण राष्ट्र की संप्रभुता मजबूत होती है. जिन गुणों के कारण सभी के लिए समान कानून की आशा बलवती होती है. जिन गुणों के कारण ऐसे कर्म किए जाते हैं, जिससे कि भारत का 500 साल पुराना सपना राम मंदिर का भव्य निर्माण होता है.
बायोलॉजिकल लेवल पर तो पीएम नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी भी एक हैं. लेकिन भगवत्ता के गुण के लेवल पर कोई भी दो व्यक्ति एक समान नहीं हो सकते. गुण और कर्मों का अंतर ही व्यक्ति को महान, बलवान, गुणवान बनाता है, या दीनहीन, दुर्बल, मोहवान बनाता है. राहुल गांधी और उनकी प्रायोजित मीडिया को भारतीय अध्यात्मिक दर्शन की गहराई समझने में कठिनाई होगी. परमात्मा व्यक्ति नहीं है, बल्कि उपस्थिति मात्र है. उपस्थिति का मतलब, हर व्यक्ति अपने कर्म और संस्कारों के अनुसार उसे महसूस कर सकता है. अगर नास्तिक चिंतन होगा तो ऐसा व्यक्ति हर उपस्थिति को भी कुछ पदार्थ बना देगा.और फिर उसी पदार्थ के अंधे कुएं में खुद गिर जाएगा.
हर व्यक्ति की चेतना की गहराई में उपस्थित परमात्मा ही है.और वह खुद उस व्यक्ति की अपनी उपस्थिति है. यह किसी दूसरे से मिलना नहीं है. पीएम नरेंद्र मोदी ने अगर परमात्म भाव को अपने में महसूस किया है, तो यह उनकी आध्यात्मिक यात्रा का परिणाम है. इसको राजनीति की घटिया पॉलिटिक्स से जोड़ना, बायोलॉजिकल गांधी पॉलिटिक्स ही कर सकती है.
नरेंद्र मोदी तो अपने आप को भारत कहने या मानने का साहस नहीं कर सके, इसके विपरीत बायोलॉजिकल पॉलिटिक्स इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा तक कहने का साहस किया है. भारत के अध्यात्मिक दर्शन को अगर आजादी के समय वरीयता मिलती तो शायद देश का विभाजन नहीं होता.
विश्व के शिक्षा केंद्रों नालंदा और तक्षशिला को नष्ट होने से शायद हम इसीलिए नहीं बचा सके, कि हमारी राजनीति बायोलॉजिकल ज्यादा हो गई थी. यह बायोलॉजिकल सोच है, कि बहुमत जुगाड़ने के लिए घुसपैठियों का स्वागत किया जाता है. इसके विपरीत आजादी के समय दिए गए वायदे के अनुसार पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, बांग्लादेश से प्रताड़ित हो होकर आए हिंदुओं को नागरिकता देने के कानून का विरोध किया जाता है. इसे भारतीय दर्शन और चिंतन का विरोध ही कहा जाएगा.
भारत को पर्सनल ला पर संचालित करने की मंशा बायोलॉजिकल पॉलिटिक्स का ही प्रतीक है. अगर स्पिरिचुअल पॉलिटिक्स में भरोसा होता, तो इस तरीके की बात नहीं होती, कि कोई भी ऐसा काम किया जाए जिससे विभाजन की परिस्थितियां पैदा हो.
भारतीय दर्शन तो इंसान से इंसान को जोड़ने का दर्शन है. भगवत्ता के स्तर पर हर इंसान एक ही चेतना है. अनकॉन्शियस अलग-अलग हो सकता है, लेकिन कलेक्टिव अनकॉन्शियस एक ही होता है. कलेक्टिव अनकॉन्शियस आपस में जुड़ा हुआ है. बच्चों को कोई तकलीफ हो, तो मां हजारों किलोमीटर दूर तड़प उठती है. भारत की तो मान्यता है, कि शादियों के जोड़े जमीन पर नहीं ऊपर बनते हैं.
सनातन तो पाप,पुण्य और कर्मफल में विश्वास करता है. हमारे संस्कार ही हमको परमात्मा से जोड़ते हैं. हमारी अनुभूति ही हमारी ताकत है. अगर कोई भगवत्ता की अनुभूति कर रहा हैं, तो यह उसकी चेतना के ऊर्जा की ताकत है. यह कोई आलोचना का विषय नहीं है, यह आध्यात्मिक उपलब्धि का विषय है.
भारतीय दर्शन व्यक्तियों पर नहीं साक्षी भाव और दृष्टा भाव पर टिका हुआ है. साक्षी भाव बायोलॉजिकल नहीं है, यही परमात्म भाव है. आवश्यकता केवल जागृति आने की है. जिस भी चेतना को साक्षी भाव और दृष्टा भाव की अनुभूति हो जाती है, वह सबका साथ, सबका विकास की भावना में सोचने लगता है.
नास्तिक चिंतन भी चेतना के स्तर पर कलेक्टिव अनकॉन्शियस का ही हिस्सा है. अगर हमारा संस्कार आचरण और व्यवहार बायोलॉजिकल से ज्यादा, मन की गहराइयों से निकलेगा, तो उसमें भगवत्ता का गुण देखना स्वाभाविक है. सियासी संसार में नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी अलग-अलग सोचते होंगे लेकिन, भारतीय दर्शन में तो चेतना और आत्मा के स्तर पर दोनों एक ही परमात्म भाव के हिस्से हैं. अगर दोनों के परमात्म भाव से कोई चीज निकलेगी, तो उसमें कोई भी अंतर नहीं देखा जा सकेगा.
इंसान के जीवन में सृजन ज्यादातर कलेक्टिव अनकॉन्शियस से निकलता है. चाहे नृत्य हो चित्रकला हो, संगीत हो, सब कलेक्टिव अनकॉन्शियस से ही आता है. इसीलिए इनको समझने के लिए भाषा क्षेत्र या कोई भी चीज बाधा नहीं बनती. कोई भाषा भले नहीं आती हो लेकिन उस भाषा का कोई व्यक्ति अगर नृत्य कर रहा है, तो वह दूसरी भाषा के व्यक्ति को भी समझने में कोई देर नहीं लगेगी.
सियासत में समत्व भाव आना बहुत बड़ी घटना है. क्योंकि सियासत विभाजन पर ही टिकी हुई है. बहुमत या अल्पमत विभाजन पर ही तय होता है,इसलिए सियासी ताकतें हमेशा विभाजन को ही प्राथमिकता देती हैं. भले ही वह धर्म हो, ईश्वर हो, परमात्मा हो अगर सियासत बायोलॉजिकल ढंग से सोचेगी तो, इसमें भी विभाजन ही खोजेगी.
नरेंद्र मोदी ईश्वर नहीं है. ईश्वर कोई व्यक्ति होता भी नहीं. व्यक्ति में तो संस्कार, गुण और कर्म होते हैं. गुण, कर्म और संस्कार पर ही व्यक्ति की छवि और दिशा तय होती है. कोई भी व्यक्ति अपने गुण, संस्कार और कर्म से जीवन को भगवत्ता के करीब पहुंचा सकता है. कोई अगर भगवत्ता का अनुभव कर रहा है, तो यह आलोचना का नहीं बल्कि खुशी का विषय है.
राहुल गांधी और उनके प्रयोजित मीडिया को इस बात के लिए खुश होना चाहिए, कि उनका प्रधानमंत्री भारतीय दर्शन के अनुसार अपने भीतर परमात्मा का अनुभव कर रहा है. जो भी ऐसा भाव रखेगा, वह कोई विभेद नहीं कर सकेगा. उसका सारा कर्म समत्व पर आधारित होगा. उसके कर्मों के परिणाम सकारात्मक होंगे. वह विध्वंस से ज्यादा सृजन को प्राथमिकता देगा. बायोलॉजिकल चिंतन करने वालों को इन्हीं आधार पर किसी भी व्यक्ति में भगवत्ता को अनुभव करने की प्रवृत्ति विकसित करने की आवश्यकता है.